श्याम सिंघा रॉय फिल्म समीक्षा: कम उम्मीदों के साथ देखी जा सकती है मूवी

समय ताम्रकर
बुधवार, 2 फ़रवरी 2022 (13:57 IST)
भारत में पुनर्जन्म आधारित कई फिल्में मिली हैं जिनमें से ज्यादा दमदार नहीं रही। श्याम सिंघा रॉय अच्छी और बुरी फिल्म के बीच झूलती रहती है। पुनर्जन्म होते हैं या नहीं इसको लेकर सभी के अपने मत हैं, बहरहाल यह विषय हमेशा आकर्षित करता रहा है। 
श्याम सिंघा रॉय की कहानी के बारे में ज्यादा तो नहीं बताया जा सकता, लेकिन थोड़ी झलक दी जा सकती है। हैदराबाद का रहने वाला वासु (नानी) एक उभरता हुआ फिल्मकार है। वह एक फिल्म की कहानी लिखता है और फिल्म सुपरहिट होती है। अचानक कोलकाता से एक पब्लिशर दावा करता है कि यह कहानी उनके लेखक श्याम सिंघा रॉय ने बरसों पहले लिखी थी और वासु ने हूबहू कॉपी कर लिया। वासु चकित रह जाता है। उसका करियर खत्म हो जाता है और उसे जेल की हवा खानी पड़ती है। मुकदमा चलता है। उसकी गर्लफ्रेंड उसे एक महिला के पास ले जाती है जो उसे सम्मोहित कर यह राज पता लगाती है कि आखिर यह सब कैसे हुआ। 
 
फिल्म दो टाइम पीरियड में चलती है। एक वर्तमान दौर और दूसरा सत्तर का दशक। एक में आधुनिक हैदराबाद और किरदार दिखाई देते हैं तो दूसरे में परंपरागत बंगाल। फिल्म की शुरुआत में वासु का एक फिल्मकार के रूप में जो संघर्ष दिखाया गया है वो मजेदार है। किस तरह से उसे शॉर्ट फिल्म के लिए समझौते करने पड़ते हैं। हीरोइन ढूंढनी पड़ती है। फिल्म बनाना पड़ती है। निर्देशक ने ये सारी बातें मनोरंजक अंदाज में कही है। 
 
फिल्म में यू टर्न जब आता है जब कहानी बंगाल में शिफ्ट होती है। यहां पर एक नई कहानी देखने को मिलती है। देवदासी प्रथा के नाम पर महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार की हल्की झलक दिखाई गई है। देवदासी और गांव के एक युवक की प्रेम कहानी को दर्शाया गया है। हालांकि इस कहानी को थोड़ा खींचा गया है और इसके अंत का पहले से ही आप अनुमान लगा सकते हैं। इस कहानी की बुनावट और बेहतर होना थी, हालांकि प्रस्तुतिकरण के बल पर यह दर्शकों को बांधे रखती है। 
 
जब दोनों कहानी का मिलन होता है तो कई नई बातें पता चलती हैं, लेकिन यहां भी लेखकों ने सहूलियत भरा अंत किया है। कुछ नया सोच कर दर्शकों को चौंकाया भी जा सकता है। 
 
कहानी कुछ सवाल भी छोड़ती है, जैसे- क्या वासु को अपने पिछले जन्म की याद कम उम्र में कभी नहीं आई? युवा होने पर ही कैसे सब याद आने लगा? क्या सम्मोहन के जरिये हम सब पता लगा सकते हैं? इन सवालों के जवाबों के लिए लेखकों ने खास मेहनत नहीं की है। 
 
जंगा सत्यदेव की कहानी पर राहुल सांकृत्यन का निर्देशन और स्क्रीनप्ले भारी रहा है। उन्होंने मनोरंजक तरीके से कहानी को कहा है और कमजोरियों को काफी छिपाया है। श्याम सिंघा रॉय के किरदार पर खासी मेहनत की है। तेलगु और बंगाली बोलते किरदारों को भी जस्टिफाई किया है। बंगाल वाली कहानी का फिल्मांकन उम्दा है और वह हमें सत्तर के दशक में ले जाता है। 
 
डबल रोल में नानी का अभिनय बढ़िया है। हैदराबादी युवक को उन्होंने सामान्य तरीके से अदा किया है, लेकिन श्याम सिंघा रॉय के रोल को उन्होंने खास मैनेरिज्म के साथ अदा किया है और श्याम की दबंगता उन्होंने अभिनय से दर्शाई है। साई पल्लवी की बोलती आंखें हैं जिसका इस्तेमाल उन्होंने अपने अभिनय में बखूबी किया है। रोमांटिक दृश्यों में उनका अभिनय देखते ही बनता है। 
 
कीर्ति शेट्टी, मैडोना सेबस्टियन, मुरली शर्मा, जीशु सेनगुप्ता अपनी प्रभाव उपस्थिति दर्ज कराते हैं। फिल्म का तकनीकी पक्ष मजबूत है। कुल मिलाकर कम उम्मीद के साथ श्याम सिंघा रॉय देखी जाए तो निराश नहीं करती। 
 
 
 

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