न लो इस तरह मजा कि मजा हो जाए किरकिरा

मनीष शर्मा
एक सेठ अपने नगर के बाहर एक भव्य मंदिर का निर्माण करवा रहा था। इस काम में बहुत से कारीगर दिन-रात लगे रहते थे। एक बार कुछ कारीगर लकड़ी के बड़े लट्ठे को फाड़ रहे थे। लट्ठा मोटा था, इसलिए उन्हें उसमें फच्चर फँसाना पड़ रहा था। इस बीच उनके दोपहर के भोजन का समय हो गया, इसलिए वे उस लट्ठे को वैसा ही छोड़कर चले गए। वहाँ पास ही बंदरों का एक झुंड रहता था। कारीगरों के चले जाने पर कुछ बंदर उधर आकर मस्ती करने लगे। उनमें से एक युवा बंदर बहुत ही ऊधमी था।

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उसकी नजर फच्चर वाले लट्ठे पर पड़ी। वह अपने साथियों को अपनी ताकत दिखाने के लिए फच्चर पर चढ़कर उसे जोर-जोर से हिलने-डुलाने लगा। इस बीच एक वृद्ध बंदर ने उसे ऐसा न करने के लिए चेताया, लेकिन उसने बात अनसुनी कर दी। जब उसके दूसरे साथियों ने उसे समझाने की कोशिश की तो वह बोला- तुम मेरी ताकत को देखकर जल रहे हो। इसके बाद वह और भी ताकत लगाकर उस फच्चर को जोर-जोर से हिलाने लगा। अचानक फच्चर खिसक गया और बंदर लट्ठे में फँस गया। उसके शरीर पर इतनी गहरी चोटें आईं कि वह थोड़ी ही देर में छटपटा कर मर गया।

  जब हम इस बात के पीछे के मनोविज्ञान पर गौर करेंगे तो देखेंगे कि बचपन से ही हर बच्चे का सपना होता है कि वह जल्दी से बड़ा हो जाए और फिर आजाद पंछी की तरह जो मन में आए करे।      
दोस्तो, हर उम्र का अपना मिजाज, अपना मजा होता है। लेकिन यह मजा इस तरह भी नहीं लिया जाना चाहिए कि मजा किरकिरा हो जाए। जैसे कि उस बंदर के ऊधम ने उसका दम ही निकाल दिया। इसी तरह कई किशोर और युवक जिंदगी को हँसी-खेल समझकर उससे खेलते रहते हैं और इस चक्कर में उनके ही खेल लग जाते हैं।

इसके बावजूद वे जानते-बूझते ऐसी हरकतें करते रहते हैं, ऊधम मचाते रहते हैं और अंततः नुकसान उठाते हैं। कई बार तो उनकी जान पर भी बन आती है। जब हम इस बात के पीछे के मनोविज्ञान पर गौर करेंगे तो देखेंगे कि बचपन से ही हर बच्चे का सपना होता है कि वह जल्दी से बड़ा हो जाए और फिर आजाद पंछी की तरह जो मन में आए करे।

इसी कारण जब वह स्कूल से निकलकर कॉलेज में अपना कदम रखता है, तो वह मानसिक रूप से अपने को बड़ा मानने-समझने लगता है। ऐसे में वह अपनी आजादी का जश्न मनाने लगता है। कोई अपनी मोटरसाइकल को तेज भगाता है, कोई पिकनिक स्पॉट के सँकरे या खतरनाक ढलानों पर चढ़ने-उतरने की कोशिश करता है या फिर किसी अनजान नदी-तालाब में डुबकी लगाने की कोशिश करता है। यानी कुल मिलाकर मौज-मस्ती करते हुए अपनी बहादुरी के कारनामे दिखाकर वह यह बताना चाहता है कि अब मैं बड़ा हो गया हूँ।

यदि आप भी ऐसा ही करते हैं, तो एक बार अपने दिमाग पर जोर देकर बताएँ क्या यही बड़े होने की निशानी है। नहीं, बिलकुल नहीं। यहाँ हम मस्तीखोरी को गलत नहीं ठहराते। कहते हैं कि जिंदगी जिंदादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं। लेकिन जिंदादिली का मतलब यह नहीं कि हम दूसरों की और अपनी जान से भी दिल्लगी करें।

जिंदगी का मजा लें, मौज-मस्ती करें, ऊधम मचाएँ, लेकिन एक सीमा में रहकर, ताकि किसी को उससे परेशानी न हो, आपको भी। यदि आप खतरों को हँसी-खेल समझेंगे, तो हँसी में खसी हो जाएगी। आए दिन कई युवाओं के साथ ऐसा होता रहता है। कम से कम उन हादसों से सबक लें। जिंदगी इतनी सस्ती नहीं कि उसे थोड़ी-सी मस्ती के लिए दाँव पर लगा दिया जाए।

और अंत में, कल ऊधमसिंह का शहीदी दिवस था। जलियाँवाला बाग में निहत्थों पर गोली चलाने का आदेश देने वाले पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकेल ओडायर की उन्होंने लंदन में हत्या कर दी। जब उन पर मुकदमा चला तो हत्या करना स्वीकारते हुए कहा कि ओडायर मृत्युदंड का अधिकारी था। मुझे मौत का डर नहीं। बुढ़ापे तक जीवित रहने की बजाय यदि कोई जवानी में अपने देश के लिए मरता है, तो यह अच्छी बात है। मैं अपना जीवन मातृभूमि को समर्पित कर रहा हूँ।

31 जुलाई 1940 को उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया। ऊधमसिंह ने भारत का अपमान करने वाले का पीछा उसके घर तक करने का खतरा मोल लिया और उसे मारकर ही दम लिया। ऐसी बहादुरी की अपेक्षा हर युवा से रहती है, क्योंकि इसमे राष्ट्रहित छिपा था। अरे भाई, तुम्हारे मजे ने हमारा मिजाज ही बिगाड़ दिया।
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