महान कर्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण

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भगवान श्रीकृष्ण की पत्रिका वृषभ लग्न तथा चन्द्र लग्न की शास्त्रों द्वारा सर्वमान्य है। लग्न में सोलह कला लिए हुए उच्च का चन्द्रमा उनके योगी स्वरूप का संकेत करता है। भगवान श्रीकृष्ण ने बचपन में अपनी बाल सुलभ लीलाएँ कर समस्त जगत को आनंद रस में डूबो दिया। यह भगवान की वह लीला थी, जिसके द्वारा वे मानव मात्र को अपने स्वरूप का ध्यान करवाकर समस्त जगत को कष्टों से मुक्त करना चाहते थे।

पराक्रम भाव में उच्च का गुरु ज्ञान, कर्म, समाधि तथा तप जैसे क्षेत्रों में विशिष्ट पराक्रम का संकेत देता है। भाग्य भाव में उच्च के मंगल-गुरु द्वारा दृष्ट है, इन दो ग्रहों का संबंध भाग्य भाव तथा पराक्रम से है। दोनों ग्रह अपनी नीच राशि पर दृष्टि डाल रहे हैं। द्वापर युग में धर्म का पतन हो चुका था। कौरव वंश छल-कपट तथा शक्ति के बल पर राज्य कर रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने अधर्म को नष्ट करने के लिए पराक्रम किया लेकिन उन्होंने हथियार नहीं उठाए, यह था दोनों ग्रहों की नीच दृष्टि का फल।

भगवान श्रीकृष्ण ने पूरा युद्ध अधर्म से ही अप्रत्यक्ष रूप से लड़ा। छठे भाव में शुक्र शनि की स्थिति छठे भाव की महत्ता तथा भगवान श्रीकृष्ण की शत्रु के प्रति युद्ध नीति के संबंध में स्पष्ट संकेत देता है। लग्न का स्वामी शुक्र छठे भाव में भाग्येश तथा कर्मेश शनि के साथ अपनी उच्च राशि में है। शुक्र नीति का प्रमुख ग्रह है, छठे भाव में शनि प्रबल शत्रुहंता बनता है। छठे भाव से मामा, मौसी पक्ष का विचार किया जाता है, भगवान श्रीकृष्ण ने अपने मामा कंस का वध किया। कौरवों से भगवान का पारिवारिक रिश्ता था। पांडवों की माँ कुंती उनकी बुआ थी। लग्न का छठे भाव में जाना व्यक्तित्व को शत्रु समस्या से संबद्ध दर्शाता है, भगवान श्रीकृष्ण का जन्म ही शत्रु की काल कोठरी में हुआ। सारा जीवन शत्रुओं से युद्ध में ही व्यतीत हुआ।

यह था छठे भाव में शुक्र-शनि का फल। पंचम भाव में उच्चस्थ बुध केतु के साथ है। स्वग्रही ग्रह के साथ केतु की स्थिति उस ग्रह की क्षमता को चार गुना बढ़ाती है। पंचम भाव मनोरंजन, प्रेमिका तथा बुद्धि का कहलाता है। चौथे भाव में सिंह राशि का सूर्य उनके राज्यपक्ष से संबंध को दृष्टिगोचर करता है वे स्वयं राजा थे। चतुर्थ भाव के सूर्य ने उन्हें राजपक्ष तथा जीवन के उच्च स्तर की प्रतिष्ठा प्रदान की।

कुण्डली की विशेषताएँ-
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* लग्न में सोलह कला लिए हुए चन्द्रमा उनके योगेश्वर स्वरूप का बखान करता है। भगवान ने श्रीकृष्ण अवतार में सभी तरह की लीलाएँ कीं।

* पंचम भाव में उच्च के बुध के साथ केतु की स्थिति उनके विख्यात, विद्वान, महान, ज्ञानी तथा कुशल सलाहकार होने का संकेत दे रही है। राधा-कृष्ण का प्रेम जगत विख्यात है, यह भी पंचम भाव में उच्च राशिस्थ बुध के साथ केतु की स्थिति का परिणाम था। इसलिए भगवान के नाम के आगे राधाजी का नाम आता है।

* छठे भाव शुक्र-शनि की स्थिति भाग्य तथा कर्म का शत्रुओं से संबंध इंगित करता है साथ ही यह भी संकेत मिलता है ‍िक उनके शत्रु नीतिगत रूप से चतुर, विद्वान, धूर्त तथा नीच प्रवृत्ति के थे। भगवान ने उन्हें उनके ही हथियार से मारा।

* पराक्रम तथा भाग्य भाव में उच्च राशि के गुरु तथा मंगल का नीच राशि में दृष्टि संबंध उनके नीति मिश्रित पराक्रम से भाग्य के संबंध को दर्शाता है, उन्होंने बल के स्थान पर बल तथा छल के स्थान पर छल का प्रयोग किया।

* उच्चस्थ चन्द्रमा की अपनी नीच राशि में दृष्टि उसके पारिवारिक जीवन की शून्यता को इंगित करता है, उन्होंने सारे जीवन में प्रेम का रस प्रदान किया। लोगों को आनंद का पाठ पढ़ाया, जो महिलाएँ दुःखी थीं उन्हें अपना नाम दिया ताकि वे सम्मानपूर्वक जीवन का वरण कर सकें।
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