नवरात्रि में शक्तिपीठों में विशेष उपासना

- गोविंद बल्लभ जोशी

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भगवान शंकर को परमेश्वर के रूप में वरण कर दक्ष प्रजापति की कन्या सती जी नित्य कैलाश धाम में विराजमान रहते हुए शिव अनुग्रह से अभिभूत थी किंतु अपने लीला क्रम का संवरण कर पार्वती रूप में आने तथा दक्ष का कार्यकाल समाप्त करने हेतु स्वयं सती जी द्वारा लीला रची गई।

दक्ष ने एक विराट यज्ञ अपनी राजधानी मायापुरी क्षेत्र हरिद्वार के गंगातट कनसल में आयोजित किया जिसमें समस्त देवता, ऋषि-मुनि आमंत्रित किए गए किंतु शंकर जी का आह्वान नहीं किया। इस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए जब सती ने शंकर जी से आज्ञा चाही तो उन्होंने यह कहते हुए आज्ञा देने से इंकार कर दिया कि यह यज्ञ अपमान और प्रतिशोध के लिए किया जा रहा है। अतः वहाँ जाना किसी विपत्ति का कारण बन सकता है लेकिन सती का उद्देश्य तो कुछ और ही था। उन्होंने शंकर जी से हाँ भरने के लिए हठ ठान ली।

शंकर वहाँ से उठकर ज्यों ही अन्यत्र जाने लगे तो आद्याशक्ति सती कालिका रूप में प्रकट होकर शंकर के सम्मुख खड़ी हो गई। उनके विक्राल स्वरूप को जो आज तक कभी नहीं देखा था, उसे देखते हुए शंकर अन्य दिशाओं की ओर भागने लगे। लेकिन सती जी काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुर भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला दश महाविद्याओं के रूप में दसों दिशाओं में व्याप्त हो गई। तब शंकर को समझाते हुए माँ ने कहा महाविद्यायों को जगत कल्याण के लिए प्रकट करने के लिए यह लीला रची है।

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इसके बाद सती जी सीधे कनखल में दक्ष प्रजापति क्षेत्र में हो रहे यज्ञ मंडप पर पहुँचती हैं। वहाँ शिव की घोर उपेक्षा से क्रुद्ध होकर शंकर द्रोह का दंड दक्ष को देने के लिए सती जी ने अपनी योगाग्नि से अपनी छाया देह को दग्ध कर दिया। शंकर जी को जब नंदीगण से इस घटना का पता चला तो उन्होंने अपनी जटा उखाड़कर अपने एक स्वरूप वीरभद्र को प्रकट कर-दक्ष का वध कर यज्ञ विध्वंस करने की आज्ञा दी। यही हुआ भी। वीरभद्र ने सब तहस-नहस कर दिया। दक्ष का सिर धड़ से अलग कर दिया।

इधर भगवान शंकर सतीजी के दग्ध छाया देह को कंधे पर रखकर संपूर्ण हिमालय क्षेत्र, तीर्थक्षेत्र गिरि-पर्वत सहित भूमंडल का चक्कर काटने लगे। देवताओं को लगा अब प्रलय होगी। अतः विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से छाया देह को कई भागों में बाँट दिया। जो अंग जिस स्थान पर गिरा, वहीं वह शक्ति पुंजीभूत होकर जगत कल्याण का केंद्र बन गई।

पुराणों के तत्वज्ञ कहते हैं कि इन शक्ति पीठों की शक्ति उपासना से भारत की सीमाएँ सुरक्षित रहती थीं। वस्तुतः यही शक्ति पीठ हमारी राजनीतिक, आंतरिक, आवासीय क्षेत्र एवं उससे कहीं सुदूर तक फैली हमारी भौगोलिक सीमाओं के विस्तार के भी केंद्र रहे हैं। अर्थात जहाँ जो शक्ति पीठ है वहाँ से राष्ट्र की राजधानी की ओर तथा उस शक्ति केंद्र से उतना ही बाहर की ओर हमारे भौगोलिक क्षेत्र का विस्तार था।

विभिन्न पुराणों एवं शक्ति ग्रंथों के स्वाध्याय से शक्ति पीठों की संख्या में कुछ भिन्नता जान पड़ती है। तंत्रचूड़ा मणि में इनकी संख्या 52 कही गई है श्रीमद्देवीभागवत में 908 एवं देवी गीता में 72 तथा देवीपुराण में 51 शक्ति पीठों का उल्लेख हुआ है। वस्तुतः मुख्य अंगों-प्रत्यंगों की गणना क्रम में 51 शक्ति पीठ मुख्य हो सकते हैं लेकिन प्रत्यंगों के सूक्ष्म अंगविशेष एवं असंख्य रोम कूपों का वर्षण प्रायः विराट धरातल पर होने से आदि शक्ति कण-कण में व्याप्त हो गई और संसार में पूजी जाने लगी इन शक्तिपीठों में कालिका शक्तिपीठ जो पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकता स्थित कालीघाट का कालिका मंदिर शक्ति पीठ है, यहाँ पर सतीजी के छायादेह की अँगूठा छोड़ कर दाहिने चरण की चार अँगुलियाँ गिरी थी।

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यहाँ शक्ति कालिका रूप में भैरव नकुलीश हैं। कुछ लोग कोलकीता के शलीगंज के पास आदिकाली मंदिर को भी शक्तिपीठ बताते हैं। युगाद्या शक्तिपीठ - बंगाल के ही वर्धमान जिले के उत्तर की ओर क्षीर ग्राम में यह शक्तिपीठ है। यहाँ सती के दाहिने पैर का अंगूठा गिरा। इस पीठ के शक्ति भू धात्री एवं भैरव क्षीर कष्टक हैं। त्रिस्रोता शक्तिपीठ - बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के बोदा क्षेत्र में शालवाड़ी गाँव में तीस्ता नदी के तट पर सती की छाया देह का बायां चरण गिरा, इनकी शक्ति भ्रामरी एवं भैरव ईश्वर हैं।

बहुला शक्तिपीठ - यहाँ शक्ति की बाईं भुजा गिरी थी। यह पीठ हावड़ा के कटवा जंक्शन से पश्चिम में ब्रह्मकेतु गाँव में स्थित है यहाँ बहुला शक्ति एवं भीरुक भैरव के रूप में पूजी जाती हैं।

इसी प्रकार अन्य पीठों का क्रम इस प्रकार है - वक्त्रेश्वर शक्तिपीठ, नलहरी शक्तिपीठ, नंदीपुर शक्तिपीठ, अट्टहास शक्तिपीठ, किरीट शक्तिपीठ, यशोर शक्तिपीठ, चट्टल शक्तिपीठ, करतोया शक्तिपीठ, सुगंधा शक्तिपीठ, विभाष शक्तिपीठ, भैरव पर्वत शक्तिपीठ, रामगिरि शक्तिपीठ, (मैहरवाली शरदा) उज्जयिनी की हर सिद्धि शक्तिपीठ, शोष शक्तिपीठ, शुचीन्द्रम शक्तिपीठ, रत्नावली शक्तिपीठ, कण्यकाचक्र, काच्ची शक्तिपीठ, मिथिला शक्तिपीठ, वाराणासी विशालाक्षी शक्तिपीठ, प्रयाग ललिता शक्तिपीठ, पुष्कर गायत्री शक्तिपीठ, बैराट अम्बिका शक्तिपीठ, गिरनार अम्बा शक्तिपीठ, कुबबूर कोटितीर्थ विश्वेशी शक्तिपीठ, श्रीशैल भ्रमरम्बा शक्तिपीठ, कोल्हापुर करवीर शक्तिपीठ, नासिक पंचवटी भद्रकाली शक्तिपीठ, कश्मीर श्री पर्वत शक्तिपीठ, अमरनाथ कंठपीठ, जालंधर पीठ, उत्कल विमला शक्तिपीठ, हिमाचल ज्वालामुखी शक्तिपीठ, असम कमरूप (कामाख्या) शक्तिपीठ, जयंती शक्तिपीठ, मेघालय, त्रिपुर सुंदरी शक्तिपीठ त्रिपुरा, कुक्षेत्र सावित्री शक्तिपीठ, कालमाधव शक्तिपीठ, गंडकी शक्तिपीठ नेपाल, गुहोश्वरी शक्तिपीठ पशुपतिनाथ नेपाल, हिंगलाज शक्तिपीठ, बलूचिस्तान, लंका इंद्राक्षी शक्तिपीठ, मानस कुमुदा शक्तिपीठ मानसरोवर तिब्बत, पंचसार शक्तिपीठ।

शक्तिपीठों के रहस्य अराधना, साधना एवं दर्शन के बारे में देवी भागवत, अह्मपुराण, पद्म पुराण, मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण, तंत्रचूडामणि शिव चरित्र इत्यादि ग्रंथों में विस्तार से बताया गया है।

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