॥ अघनाशकगायत्रीस्तोत्र ॥

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आदिशक्ते जगन्मातर्भक्तानुग्रहकारिणि।
सर्वत्र व्यापिकेऽनन्ते श्रीसंध्ये ते नमोऽस्तु ते॥

त्वमेव संध्या गायत्री सावित्रि च सरस्वती।
ब्राह्मी च वैष्णवी रौद्री रक्ता श्वेता सितेतरा॥

प्रातर्बाला च मध्याह्ने यौवनस्था भवेत्पुनः।
वृद्धा सायं भगवती चिन्त्यते मुनिभिः सदा॥

हंसस्था गरुडारूढ़ा तथा वृषभवाहिनी।
ऋग्वेदाध्यायिनी भूमौ दृश्यते या तपस्विभिः॥

यजुर्वेदं पठन्ती च अन्तरिक्षे विराजते।
सा सामगापि सर्वेषु भ्राम्यमाणा तथा भुवि॥

रुद्रलोकं गता त्वं हि विष्णुलोकनिवासिनी।
त्वमेव ब्रह्मणो लोकेऽमर्त्यानुग्रहकारिणी॥

सप्तर्षिप्रीतिजननी माया बहुवरप्रदा।
शिवयोः करनेत्रोत्था ह्यश्रुस्वेदसमुद्भवा॥

आनन्दजननी दुर्गा दशधा परिपठ्यते।
वरेण्या वरदा चैव वरिष्ठा वरवर्णिनी॥

गरिष्ठा च वराही च वरारोहा च सप्तमी।
नीलगंगा तथा संध्या सर्वदा भोगमोक्षदा॥

भागीरथी मर्त्यलोके पाताले भोगवत्यपि॥
त्रिलोकवाहिनी देवी स्थानत्रयनिवासिनी॥

भूर्लोकस्था त्वमेवासि धरित्री शोकधारिणी।
भुवो लोके वायुशक्तिः स्वर्लोके तेजसां निधिः॥

महर्लोके महासिद्धिर्जनलोके जनेत्यपि।
तपस्विनी तपोलोके सत्यलोके तु सत्यवाक्‌॥

कमला विष्णुलोके च गायत्री ब्रह्मलोकगा।
रुद्रलोके स्थिता गौरी हरार्धांगीनिवासिनी॥

अहमो महतश्चैव प्रकृतिस्त्वं हि गीयसे।
साम्यावस्थात्मिका त्वं हि शबलब्रह्मरूपिणी॥

ततः परापरा शक्तिः परमा त्वं हि गीयसे।
इच्छाशक्तिः क्रियाशक्तिर्ज्ञानशक्तिस्त्रिशक्तिदा॥

गंगा च यमुना चैव विपाशा च सरस्वती।
सरयूर्देविका सिन्धुर्नर्मदेरावती तथा॥

गोदावरी शतद्रुश्च कावेरी देवलोकगा।
कौशिकी चन्द्रभागा च वितस्ता च सरस्वती॥

गण्ड की तापिनी तोया गोमती वेत्रवत्यपि।
इडा च पिंगला चैव सुषुम्णा च तृतीयका॥

गांधारी हस्तिजिह्वा च पूषापूषा तथैव च।
अलम्बुषा कुहूश्चैव शंखिनी प्राणवाहिनी॥

नाडी च त्वं शरीरस्था गीयसे प्राक्तनैर्बुधैः।
हृतपद्मस्था प्राणशक्तिः कण्ठस्था स्वप्ननायिका॥

तालुस्था त्वं सदाधारा बिन्दुस्था बिन्दुमालिनी।
मूले तु कुण्डली शक्तिर्व्यापिनी केशमूलगा॥

शिखामध्यासना त्वं हि शिखाग्रे तु मनोन्मनी।
किमन्यद् बहुनोक्तेन यत्किंचिज्जगतीत्रये॥

तत्सर्वं त्वं महादेवि श्रिये संध्ये नमोऽस्तु ते।
इतीदं कीर्तितं स्तोत्रं संध्यायां बहुपुण्यदम्‌॥

महापापप्रशमनं महासिद्धिविधायकम्‌।
य इदं कीर्तयेत्‌ स्तोत्रं संध्याकाले समाहितः॥

अपुत्रः प्राप्नुयात्‌ पुत्रं धनार्थी धनमाप्नुयात्‌।
सर्वतीर्थतपोदानयज्ञयोगफलं लभेत्‌॥

भोगान्‌ भुक्त्वा चिरं कालमन्ते मोक्षमवाप्नुयात्‌।
तपस्विभिः कृतं स्तोत्रं स्नानकाले तु यः पठेत्‌॥

यत्र कुत्र जले मग्नः संध्यामज्जनजं फलम्‌।
लभते नात्र संदेहः सत्यं च नारद॥

श्रृणुयाद्योऽपि तद्भक्त्या स तु पापात्‌ प्रमुच्यते।
पीयूषसदृशं वाक्यं संध्योक्तं नारदेरितम्‌॥

॥ इति श्रीअघनाशक गायत्री स्तोत्रं सम्पूर्णम्‌ ॥
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