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मजदूरों के पलायन पर ‘गुलजार’ का दर्द… ‘ख़ुदा जाने, ये बंटवारा बड़ा है, या वो बंटवारा बड़ा था’

नवीन रांगियाल
गुलजार गीतकार हैं। शायर हैं और फ‍िल्‍मकार भी। अपनी आवाज, अदायगी और अंदाज के ल‍िए वे दुन‍िया में गुलजार हैं। क‍ि‍सी भी और क‍िसी के भी दर्द को शि‍द्दत से महसूस करने की ताकत उनके पास है। वो द‍िल है उनके पास और वो जहन है ज‍ि‍ससे दर्द खुद ब खुद बयां हो उठता है। फ‍िर चाहे वो क‍िसी भी शक्‍ल में हो।

उन्‍होंने भारत के बंटवारे के दर्द को सहा था। फि‍र उस पर लि‍खा था। गाहे-बगाहे अब भी उनके कहन में बंटवारे की त्रासदी का दर्द छलक आता है।

एक बार फि‍र से उनका वही दर्द मौजूं हो उठा है। प्रवासी मजदूरों के पलायन का दर्द। घर नहीं पहुंच पाने का दर्द। तपती हुई सड़क पर नंगे पैर चलने का दर्द। भूख और प्‍यास से रास्‍ते में दम तोड़ देने का दर्द।

ख्‍यात गीतकार गुलजार ने उसी दर्द को अपने कहन में एक कागज पर उतारा है जो द‍िल में उतर रहा है। आत्‍मा में उतर रहा है। आप इसे यहां पढ़ सकते हैं और अपने द‍िल में सहेज सकते हैं क्‍योंक‍ि इस कव‍िता को पढ़ने के बाद कहने और सुनने के ल‍िए कुछ नहीं बचेगा। आइए पढ़ते हैं गुलजार की यह कव‍िता।

मज़दूर, महामारी– II

कुछ ऐसे कारवां देखे हैं सैंतालिस में भी मैंने
ये गांव भाग रहे हैं अपने वतन में
हम अपने गांव से भागे थे, जब निकले थे वतन को
हमें शरणार्थी कह के वतन ने रख लिया था
शरण दी थी
इन्हें इनकी रियासत की हदों पे रोक देते हैं
शरण देने में ख़तरा है
हमारे आगे-पीछे, तब भी एक क़ातिल अजल थी
वो मजहब पूछती थी
हमारे आगे-पीछे, अब भी एक क़ातिल अजल है
ना मजहब, नाम, जात, कुछ पूछती है
मार देती है

ख़ुदा जाने, ये बटवारा बड़ा है
या वो बटवारा बड़ा था

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