अधिकारों का मजा, कर्तव्यों से बेरुखी

आलोक मेहता
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इंदिरा गाँधी ने बहुत पहले एक प्रसारण में कहा था- 'हमारा संविधान व्यक्तियों के विभिन्न अधिकारों का निर्देश तो करता है लेकिन दायित्वों का उल्लेख नहीं करता। कुछ दिनों पहले एक व्यक्ति ने मुझे किसी अन्य देश का संविधान दिखाया, जिसमें नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों की एक लंबी सूची थी।

हमें भी इसी दिशा में सोचना है, क्योंकि एकतरफा अधिकार के दावे से काम नहीं चलेगा। इंदिराजी से पहले महात्मा गाँधी ने सलाह दी थी कि कोई भी अधिकार जिसके साथ कर्तव्य नत्थी नहीं है, निरर्थक ही होगा।

कांग्रेस अब स्थापना की 125वीं वर्षगाँठ मनाने जा रही है और लोकतंत्र की स्थापना के भी 60 वर्ष हो गए हैं। फिर भी, क्या लोकतंत्र के स्तंभ कहे जाने वाले क्षेत्रों में कर्तव्य पालन की स्थिति दिख रही है?

सरकार में शीर्ष पर बैठे नेता हर अधिकार का उपयोग कर रहे हैं। उनके मातहत काम करने वाला प्रशासनिक तंत्र अपने अधिकारों का जमकर उपयोग ही नहीं, दुरुपयोग कर रहा है। न्यायपालिका के अधिकारों को कोई चुनौती देने की हालत में नहीं है।

मीडिया अभिव्यक्ति के अधिकारों का हरसंभव उपयोग कर रहा है, लेकिन अपने कर्तव्य निभाने की चिंता किसी को नहीं है। सरकार में बैठे एक मंत्री को संसद में यह कहते हुए कोई हिचकिचाहट नहीं होती कि उसके मंत्रालय का दायित्व निर्यात बढ़ाकर अधिकाधिक विदेशी पूँजी का लाभ अर्जित करना है। अब इसकी वजह से प्याज, दाल, चावल, गेहूँ के दाम बढ़ते हैं तो इसका उत्तरदायित्व बगल की सीट पर बैठे नागरिक आपूर्ति मंत्री का है।

संवैधानिक ढंग से केंद्रीय मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी होती है। ऐसी स्थिति में यह बेहद हास्यास्पद तर्क है। बढ़ती महँगाई से बड़ी संख्या में कांग्रेस के पार्षद, विधायक, जिला से राष्ट्रीय स्तर तक के पदाधिकारी और सांसद भी परेशान हैं, लेकिन यह कहकर अपनी बेबसी जाहिर कर देते हैं कि महँगाई-नियंत्रण का दायित्व सरकार का है।

सरकार में भी आर्थिक मामलों के सर्वाधिक जानकार और प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति शामिल हैं, लेकिन वे अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और निचले स्तर पर आर्थिक प्रबंधन और वितरण की स्थिति में गड़बड़ी का उल्लेख कर पल्ला झाड़ लेते हैं।

लोकतंत्र में शासन व्यवस्था के विभिन्न स्तर हैं और सत्ता का विकेंद्रीकरण आवश्यक है। लेकिन शीर्ष सत्ता में बैठे व्यक्तियों का उत्तरदायित्व यही तो है कि मुद्रास्फीति पर काबू पाए, राजनीतिक-सामाजिक असंतोष को उग्र होने से रोकें।

आखिरकार, नेहरू, इंदिरा, राजीव राज में भी राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियाँ कम नहीं थीं। भयावह सूखा पड़ा, पड़ोसी देशों के साथ युद्ध हुए, प्रदेशों के बँटवारे की माँगें उठीं, सांप्रदायिक उपद्रव हुए और आतंकवादी गतिविधियों की गंभीर चुनौती भी आई लेकिन सरकार ने कभी यह नहीं कहा कि वह बेबस है।

एक बार फिर इंदिरा गाँधी द्वारा दिसंबर 1974 में कही गई बात का उल्लेख करने की जरूरत है। उन्होंने कहा था-जब कभी कुछ क्षेत्रों में मूल्य गिरते हैं तब उत्पादन में कमी कर दी जाती है या केवल उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है जो मोटा मुनाफा देने वाली होती हैं, न कि उनका, जिनकी अधिकांश लोगों को जरूरत होती है।

अगर हमने खरीफ के लिए बनाए गए विभिन्न कार्यक्रमों को लागू नहीं किया होता तो अनिश्चित मानसून और विशेषतः अनाज की उपज वाले क्षेत्रों में वर्षा के अभाव के कारण हमारे उत्पादन पर गंभीर असर पड़ता तथा सामान्य जनता को कष्ट होता।

मैंने स्वयं कई राज्यों का दौरा करके क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं से सलाह-मशविरा किया तथा स्थानीय समस्याओं को समझने की कोशिश की। इससे स्थिति काबू में आई। अब अनेक विकसित देशों में उपभोग का स्तर आवश्यकता से कहीं ज्यादा ऊँचा हो गया है, जबकि तीन-चौथाई विश्व में अभाव की स्थिति पाई जाती है।

कथित प्रगति की इमारत इसी आधार पर खड़ी की गई थी कि कच्चा माल सस्ते दामों में लगातार मिलता रहेगा। अब यह आधार डगमगा गया है और विशेषज्ञ मान रहे हैं कि यह अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था चरमराकर ढह जाएगी।

भारत में हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम यह सोचना छोड़ दें कि बाहर सभी जगह सभी बातें हमारे यहाँ की अपेक्षा अधिक अच्छी हैं। हमारी तात्कालिक कठिनाइयों का तकाजा यह है कि हम उनकी ओर ध्यान दें, लेकिन हमें उनके और दूरगामी आर्थिक परिणामों का भी ध्यान रखना होगा।

इंदिरा गाँधी का यह बड़ा उद्धरण देना इसलिए जरूरी था, ताकि यह समझा जा सके कि आर्थिक कठिनाइयों से निकलने के रास्ते पहले भी राजनीतिक चातुर्य और दूरदर्शिता के साथ निकाले गए हैं। सत्ता की राजनीति में शीर्ष नेताओं का सामान्य कार्यकर्ताओं और लोगों के साथ संवाद जरूरी है।

यह काम फाइलों, कम्प्यूटर में भरे आँकड़ों और अफसरों की बैठक से नहीं हो सकता। फिर अन्य देशों के आर्थिक ढाँचे को मानदंड बनाना भी अनुचित है। यह इंदिरा गाँधी की दूरदर्शिता थी कि 1974 में उन्होंने उन बड़े देशों की अर्थव्यवस्था के बुरी तरह चरमराकर ढहने की बात समझ ली थी।

2008 में अमेरिका तथा योरप में ढही अर्थव्यवस्था इसका प्रमाण है। भारत में सरकार कांग्रेस नेतृत्व की हो अथवा भाजपा नेतृत्व की, जरूरत है स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप आर्थिक नीतियों के क्रियान्वयन की।

प्याज, आलू, दाल, चावल, गेहूँ के आयात-निर्यात और मूल्यों को लेकर समय रहते सरकार उचित फैसले क्यों नहीं ले सकती? सूखा या बाढ़ आने पर ही बचाव की तैयारी क्यों होती है?

इसी तरह तेलंगाना राज्य बनाए जाने पर लगी आग बुझाने के लिए उठाए गए राजनीतिक कदम पर कांग्रेस एक हद तक भ्रम में दिखाई दी। अकारण आग अन्य राज्यों में फैल गई। तेलंगाना की माँग कोई नई नहीं है। मुझे याद है 1973 में तेलंगाना को लेकर आंध्रप्रदेश में हिंसा भड़कने पर इंदिरा गाँधी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री पीवी नरसिंह राव को हटाकर दिल्ली बुला लिया था।

उचित समय पर कठोर निर्णय लेने में नेहरू, शास्त्री, इंदिरा, राजीव को कभी हिचकिचाहट नहीं हुई। इसीलिए उनकी लोकप्रियता अधिक थी।

राजनीतिक या आर्थिक मामलों पर कठोर निर्णय लेने से संभव है एक वर्ग नाराज हो, लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास रहने पर विरोध झेलने में कठिनाई नहीं आती। यह तर्क भी बेमानी है कि आज के समय में नेहरू और इंदिरा की तरह निर्णय लेना अंसभव है या वर्तमान नेताओं से ऐसी अपेक्षा ही नहीं की जाना चाहिए।

आखिरकार राम, कृष्ण, बुद्ध, महात्मा गाँधी के आदर्शों से प्रेरणा लेने की बात की जा सकती है और उनके बताए तरीकों पर चला जा सकता है तो नेहरू-इंदिरा की परंपरा निभाने में क्यों कठिनाई होना चाहिए? आखिरकार उनके नाम पर वोट तो आज भी माँगे जाते हैं।

जिस संगठन के बल पर सरकार बनती है, उनकी परवाह न कर जनसमर्थन को कैसे बरकरार रखा जा सकता है? इसी तरह संगठन को अपना दबाव बनाए रखने में क्यों हिचकना चाहिए?

याद कीजिए, एक बार तो राजीव गाँधी ने कांग्रेस मुख्यालय में बैठकर अपनी सरकार के निर्णय को अनुचित बता दिया था और फिर मंत्रिमंडल ने फैसला बदला। सरकार को जनहितकारी कदमों की जिम्मेदारी दी जाती है। सत्ता का मतबल केवल प्रशासनिक खानापूर्ति नहीं हो सकता। उसका कर्तव्य जनता के दुःख दर्द को समझकर उनका निदान निकालना भी है। (नईदुनिया)

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