अभी तक सियासी लिफाफे में मजहब बेचते रहे दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी ने आदतन एक नया बखेड़ा खड़ा कर दिया है। वैसे तो किसी भी जलसे में मेहमान कौन होंगे, किसकी मेहमान नवाजी होगी यह फैसला करने का हक मेजबान को होता है। लेकिन अगर मेजबान मजहबी दुहाई देकर मुल्क की अजमत को सियासी लिफाफे में बंद कर दावतनामे की शक्ल देने लगे तो 'नीति और नीयत’ पर सवाल उठना लाजिमी है।
मसला दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी के बेटे की नायब इमाम की ताजपोशी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नहीं बुलाए जाने और पाक के वजीर-ए-आजम नवाज शरीफ को दावत देने से जुड़ा है। शाही इमाम द्बारा अपने बेटे की नायब इमाम की ताजपोशी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नहीं बुलाए जाने और पाक के वजीर-ए-आजम नवाज शरीफ को दावत देने पर देश भर में बहस छिड़ गई है। वैसे तो दस्तारबंदी किसी इदारे का निजी कार्यक्रम है, लेकिन सवाल उठता है कि अगर वह पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को बुला ही रहे थे तो फिर उन्हें भारत के प्रधानमंत्री को भी बुलाना चाहिए था।उनका यह कहना कि नरेंद्र मोदी मुसलमानों को पसंद नहीं करते हैं और मैं मुसलमानों का नुमांइदा हूं, रही सही कसर भी पूरी कर गया।
यह ठीक है कि मौलाना मजहबी बुखार में रहते हैं और फिरकापरस्ती का सामान बेचते हैं। चुनाव में ऐसा धंधा अच्छा चलता है। लेकिन बुखारी ने भारत के मुसलमानों की तरफ से मोदी को चुनौती देने की गरज से पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को बुलाने का ऐलान कर मजहब बनाम मुल्क, सियासत बनाम इमामत पर एक नया विमर्श खड़ा कर दिया है। अगर यह विमर्श तर्क की कसौटी पर संतुष्ट नहीं हुआ तो भविष्य में एक नए साम्प्रदायिक विवाद को उत्पन्न करने का कारक हो सकता है। बतौर मौलाना यह कहना कि मोदी ने भी शपथ ग्रहण में नवाज शरीफ को बुलाया था तो अगर बुखारी देशद्रोही हैं तो मोदी भी देशद्रोही हैं। इस मासूमियत पर कौन न कुर्बान हो जाए! उत्तराधिकार भारत में और दावत वजीरे आजम पाकिस्तान को। सवाल अनेक हैं और जवाब सिर्फ एक कि मुसलमान ने मोदी को वोट नहीं दिया। वोट का दावत से क्या ताल्लुक? शाही इमाम साहब अगर दावत में आने की सबसे बड़ी योग्यता मुसलमानों की पसंद होना है तो सवाल उठता है कि क्या नवाज शरीफ को भारतीय मुसलमान अपना मानते हैं?
आज सवाल इस बात का है कि किस हैसियत से इमाम साहब पाकिस्तान के वजीरे आजम को दावत दे सकते हैं और ऐलान कर सकते हैं उनका एतमाद भारत के वजीरे आजम पर नहीं है। यह सरासर मुल्क के साथ गद्दारी के तेवर दिखाने की बात है। इमाम बुखारी ने जिस तरह अपने इस इरादे का एलान किया, उससे ही जाहिर है कि उन्होंने इस मौके का इस्तेमाल सियासी पैगाम देने के लिए किया है। ये संदेश न सिर्फ आपत्तिजनक, बल्कि एक नजरिए से खतरनाक भी है। क्या उनके लिए ये बात कोई मायने नहीं रखती कि शरीफ उस देश के प्रधानमंत्री हैं, जो सीमा पर लगातार संघर्ष विराम का उल्लंघन कर रहा है, भारत में अस्थिरता फैलाने में लगा हुआ है और जिसने देश-विभाजन के कथित अधूरे एजेंडे को पूरा करने के प्रयास में जम्मू-कश्मीर की समस्या को अंतरराष्ट्रीय रूप देने में अपनी ताकत झोंक रखी है?
इमामत पूरी तरह धार्मिक मसला है और इसे इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए। इसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए। अभी लोग वह वक्त भूले नहीं हैं कि एक समय यही बुखारी मुसलमानों से भाजपा को वोट देने की अपील कर के भाजपा के चुनावी पोस्टर पर भी छप चुके हैं। यह वही बुखारी हैं जो कभी अफगानिस्तान के तालिबानों के आतंकवादी जेहाद के समर्थन में अपने समर्थन का ऐलान कर चुके हैं। इमाम साहब की रगों में सियासत इस कदर घुसी हुई है कि वह लोकसभा चुनावों से पहले कांग्रेस पार्टी के हक में मुसलमानों से वोट डालने की अपील करते हैं और कभी समाजवादी दल से अपने पूरे कुनबे के लिए लाल बत्ती की मांग। आजम खान से उनका छत्तीस का रिश्ता जगजाहिर है।
दीगर है कि नरेंद्र मोदी को न बुलाने के पीछे गुजरात दंगों को लेकर मुसलमानों की कथित शिकायत को उन्होंने बहाना बनाया है। कोशिश खुद को सभी भारतीय मुसलमानों का खैरख्वाह बताने की है। जबकि इस हकीकत से वे नावाकिफ नहीं होंगे कि जामा मस्जिद परिसर के बाहर उनकी बात सुनने वाला कोई नहीं मिलता। इसके बावजूद वे खुद को उसी रूप में शाही मानते हैं, जैसा मुगलों के जमाने में था। अपनी औकात में रहो, अभी सर कलम करा दूंगा, जैसी सतही बातें करना उनका अंदाज-ए-गुफ्तगू है। उनसे किसी संजीदा बात की उम्मीद करना खुद को धोखा देना है। बुखारी की इस मूर्खता और अहंकार के चलते दिल्ली विधानसभा चुनाव में अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा को बढ़त और आम आदमी पार्टी तथा कांग्रेस का नुकसान भी तय हो गया है। इस बहाने हिंदू वोट गोलबंद करने में नरेंद्र मोदी और अमित शाह कोई कसर छोड़ेंगे इसमें संदेह है। लेकिन मोदी को बुखारी द्वारा न बुलाने को लेकर जिस तरह मुस्लिम मौलाना लोग रिएक्ट कर रहे हैं वह भी देश के लिए शुभ नहीं है। इससे इस बात की तस्दीक भी होती है कि जाने-अनजाने देश की मुख्य धारा से मुसलमान अपने को काटकर अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान परस्ती नहीं छोड़ सकते।
इन मुसलमानों को समझना चाहिए कि यह देश किसी एक मोदी, किसी एक सोनिया, किसी एक राहुल गांधी भर का नहीं है। किसी एक भाजपा, किसी एक कांग्रेस का नहीं है। यह देश सवा सौ करोड़ लोगों का है और इस सवा सौ करोड़ लोगों में देश के सारे मुसलमान भी शुमार होते हैं। और नरेंद मोदी इसी सवा सौ करोड़ लोगों द्वारा चुने गए बहुमत के प्रधानमंत्री हैं और यह तथ्य किसी मौलाना बुखारी या किसी राजनेता के खारिज कर देने से खारिज नहीं हो जाता। भारत का मुसलमान कभी सांप्रदायिक नहीं रहा लेकिन एक समुदाय विशेष को 'मतपेटी’ का दर्जा देने वाली सियासी तंजीमों ने उसका सांप्रदायीकरण कर दिया।
देश के मुसलमान किसी मुस्लिम लीग के पीछे जाकर नहीं खड़े हुए। भारत का मुसलमान वतनपरस्त है, वक्त आने पर वह मुल्क के लिए जान देने से कभी पीछे नहीं रहा है यह अखंड भारत का इतिहास हमें बताता है और वक्त आने पर कभी पीछे नहीं रहेगा ऐसा विश्वास देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी अमेरिका यात्रा के पूर्व एक विदेशी समाचार चैनल को साक्षात्कार देते समय एक सवाल के जवाब में मुखर रूप से व्यक्त किया था। यह विश्वास किसी एक व्यक्ति का नहीं वरन् सवा अरब हिंदुस्तानियों का समेकित विश्वास है जो एक नुमाइंदे के मार्फत पूरी दुनिया के समाने बयान हुआ।
भारत में जन्म लेने वाली प्रत्येक कौम मुल्क की वफादार है।
स्वाधीनता की लड़ाई में हजारों मुसलमानों ने इसलिए शहादत दी क्योंकि उन्हें इस देश से प्यार था। इसीलिए विभाजन के वक्त वे पाकिस्तान नहीं गए। जिन्होंने पाकिस्तान मांगा होगा, वे चले गए लेकिन जिन्होंने नहीं मांगा वो नहीं गए और ऐसे लोगों की तादाद ज्यादा थी और है। काबिले गौर है कि पड़ोस में अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अलकायदा का खासा असर है। भारत में करीब 17 करोड़ मुसलमान हैं, लेकिन उनमें से अलकायदा के सदस्य न के बराबर हैं। किंतु देश को मजहबी दंगे में झोंकने की तमाम कोशिशें जारी हैं। इन हालात का फायदा बुखारी और अकबरुद्दीन ओवैसी जैसे लोग उठा रहे हैं। ये दोनों शख्सियतें जिस खतरनाक रास्ते पर बढ़ रही हैं वो बहुत डरावना है।
महाराष्ट्र में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के बाद अब ओवैसी की पार्टी एमआईएम उत्तर भारत में पार्टी विस्तार की योजना बना रही है। बुखारी मुसलमानों को दिशाहीन पाकर उसका नेता बनने को आतुर हो गए हैं। दरअसल मौलाना ईरान के खुमैनी बनने का ललक में यह भूल गए कि वह जिस वतन में रहते हैं वह ईरान न होकर भारत है और यहां मजहब की बुनियाद पर वतन की इमारत तामील नहीं हुआ है। हां इतना अवश्य हुआ है कि कुछ जुबान-ए-खंजर जो अभी तक खामोश थीं उन्हें मौलाना ने धार का मौका जरूर बख्श दिया है।
ओवैसी, आजम खान, तोगड़िया के बाद थमा शोर फिर उठ खड़ा हुआ है। अब भारत सरकार समेत सूबे की सरकारों को भी इमाम के उस कृत्य पर गंभीरता से विचार करना चाहिए ताकि देशद्रोह और धर्मनिरपेक्षता, निजी और सार्वजनिक जैसे शब्दों की परिधियां पुन: तय की जा सकें। फिलहाल तो स्पष्ट हो गया है कि इबादत में सियासत का दखल इमामत को तिजारत करने पर मजबूर कर देता है। तभी शायर कहता है कि-