ओबामा यात्रा : एक कूटनीतिक सफलता

शरद सिंगी
राष्ट्रपति ओबामा की यात्रा ने पूरे देश में एक सकारात्मक लहर पैदा की। छ वर्ष पूर्व हुए परमाणु अनुबंध के क्रियान्वयन में  आये अवरोधों को दूर करने के लिए दोनों पक्षों ने बड़े साहसी कदम उठाये। भारत की मांग यह थी कि यदि भोपाल गैस कांड जैसा कोई औद्योगिक हादसा होता है तो उसकी जिम्मेवारी अमेरिकी नाभिकीय कच्चे माल के आपूर्तिकर्ता की होगी। जिसे अमेरिका को मंजूर नहीं था। उसी तरह कच्चे माल के उपयोग पर अमेरिकी नज़र भारत को स्वीकार्य नहीं थी। दोनों देशों के अपने अपने  नियम अनुबंध को आगे बढ़ाने में बाधा बन रहे थे।
 
ओबामा की इस यात्रा में उन नियमों को तोड़े बिना अनुबंध को जारी रखने का मार्ग खोज लिया गया और उस मार्ग पर दोनों देशों की सहमति हो गई। भारत को ऊर्जा की जरुरत है और  अमेरिकी कंपनियों को माल बेचने की, अतः रास्ते तो बनना ही थे। यह एक सीधा सीधा व्यावसायिक निर्णय था तो इस निर्णय पर पीठ थपथपाने वाली कौनसी बात है? बात इतनी सरल भी नहीं है क्योंकि यदि यह केवल एक व्यावसायिक निर्णय होता तो चीन की बैचैनी भरी और पाकिस्तान की तीखी प्रतिक्रिया नहीं होती।  
 
इन दोनों राष्ट्रों को तकलीफ होने का कारण अमेरिका द्वारा भारत की एनएसजी की सदस्यता का समर्थन करना है। एनएसजी परमाणु देशों का एक ऐसा समूह है जो नाभिकीय कच्चे माल की आपूर्ति को नियंत्रित करता है साथ ही परमाणु तकनीक के प्रसार पर भी नजर रखता है।
 
नाभिकीय ऊर्जा विकासशील देशों के लिए वरदान है किन्तु यदि परिष्कृत कच्चा माल गलत हाथों में चला गया तो विध्वंस की कल्पना भी भयवाह है। इस समूह की सदस्यता मिलना याने पुलिस की नौकरी मिल जाना है जहां पहले तो आपको एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र की मान्यता मिल जाती है साथ ही स्वयं के परमाणु कार्यक्रम पर अन्य राष्ट्रों का दबाव सीमित हो जाता है। इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्र परिषद की  स्थाई सुरक्षा समिति में अमेरिका द्वारा भारत की दावेदारी पर सहमति के संकेत हैं। इसके अतिरिक्त अमेरिका कुछ और महत्वपूर्ण तकनीकि समूहों में भी भारत को सदस्य के रूप में देखना चाहता है। निश्चित ही चीन और पाकिस्तान, भारत की इन दावेदारियों पर अमेरिका के रवैये से नाखुश हैं।
 
अमेरिका के इस तरह खुलकर साथ आने के क्या कोई आर्थिक कारण हैं? अमेरिका के कुल निर्यात का मात्र डेढ़ प्रतिशत भारत को निर्यात होता है और अमेरिका द्वारा भारत से आयात, अमेरिका के कुल आयात का 2 प्रतिशत से भी कम है। दूसरी ओर अमेरिका कुल निर्यात का आठ प्रतिशत चीन को निर्यात करता है एवं चीन से आयात, अमेरिका के कुल आयात का 20 प्रतिशत है। जाहिर है चीन के साथ अमेरिका के व्यापारिक सम्बन्ध भारत से कई गुना अधिक हैं। इसके बावजूद अमेरिका द्वारा चीन की चिंताओं की उपेक्षा कर  भारत के साथ आने के उसके संकेत अपने आप में एक बहुत बड़ी कूटनीतिक उपलब्धि  है। 
 
अनुबंध और एनएसजी की सदस्यता को लेकर चीन की प्रतिक्रिया बहुत ही सावधानीपूर्ण रही। उसने कहा कि भारत चीन के बीच बढ़ते सम्बन्ध अमेरिका को पसंद नहीं आ रहे हैं अतः वह भारत के साथ संबंधों को प्रगाढ़ करने की दिशा में कदम उठा रहा है। उसका आरोप है कि अमेरिका; जापान, दक्षिण कोरिया और भारत के साथ मिलकर एशिया में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकना चाहता है और एशिया में अपनी पैठ मज़बूत करना चाहता है।
 
पाकिस्तान की प्रतिक्रिया तीखी होना ही थी। उसने अमेरिका पर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने का आरोप लगाया। विशेषज्ञ मानते हैं कि पाकिस्तान के पास अमेरिका को देने के लिए कुछ नहीं है जबकि भारत के पास उपभोक्ताओं का बहुत बड़ा बाजार है जो देर सवेर अमेरिका को पूरी तरह भारत की झोली में डाल देगा। इसके आलावा विश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र भारत, विश्व के सबसे पुराने प्रजातंत्र अमेरिका के साथ एक कुदरती युति बनाता है। 
 
भारत आज एक ऐसी अनुकूल स्थिति में है जब उसे रूस का साथ तो है ही, अमेरिका का साथ भी मिलने के प्रबल संकेत हैं। चीन दुविधा में है। भारत के साथ मित्रता रखता है तो उसे भारत के विस्तृत उपभोक्ता बाजार में प्रवेश मिलता है किन्तु उसकी विस्तारवादी मंशा उसकी मित्रता में अवरोध है।
 
भारत की धड़कन युवा शक्ति की चेतना से स्पंदित है और वर्तमान विश्व परिदृश्य में इस युवा शक्ति की कामयाबी भारत के लिए अनेक नए अवसर पैदा कर रही है। यदि ऐसे  समय में भारत के पीछे दुनिया की दो महाशक्तियां खड़ी  हों तो फिर सफलता के कौनसे आयाम हमसे अछूते रह सकते हैं?
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