दुष्यंत कुमार ने यह पंक्तियां देश में आपातकाल लगने से पूर्व लिखी थीं। आपातकाल देश में अचानक नहीं लग गया था। उसके पहले देश और दुनिया में बहुत कुछ घटित हुआ था। सन 1967 में पूरे विश्व में युवाओं का आंदोलन हुआ था। चीन में माओ के नेतृत्व में सांस्कृतिक क्रांति हुई थी। भारत में उससे प्रेरित होकर नक्सली आंदोलन हुआ था। उसकी कड़ी में युवाओं ने बिहार और गुजरात में आंदोलन शुरू किया और उसकी कमान लोकनायक जयप्रकाश नारायण के हाथों में गई।
आज पूरे देश में संविधान की रक्षा के लिए युवा खड़ा हो गया है। उसका तात्कालिक कारण सीएए और एनआरसी का विरोध है लेकिन दीर्घकालिक उद्देश्य संविधान के मूल्यों को स्थापित करना है। युवाओँ और देश के नागरिकों के इसी आंदोलन और जागरूकता अभियान में महत्त्वपूर्ण आहुति के रूप में देश के जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता सचिन कुमार जैन ने भारतीय संविधान की विकास गाथा के नाम से संविधान की जीवनी लिखी है। इसमें संविधान के पूर्व जन्म की कथा है, उसके वर्तमान की कहानी है और उसके भविष्य में झांकने का प्रयास है। यह प्रयास एक वैश्विक दृष्टि के साथ किया गया है। पूर्व जन्म की कथा लिखना भारतीय वांग्मय की परंपरा है। यूरोप में उसी को इतिहास के रूप में लिखा जाता है।
इतिहास और वांग्मय की इसी कड़ी में अपने को रखने का प्रयास करने वाली यह पुस्तक बताती है कि किस तरह 1950 में संविधान आने से पहले उसके जन्म के कई प्रयास हुए हैं। लेकिन वे सारे प्रयास औपनिवेशिक काल के थे इसलिए अधूरे थे। वे सांगोपांग नहीं थे।
उनमें उतनी कलाएं नहीं थीं जितनी 1950 के बाद प्रकट हुईं। यह कुछ उसी प्रकार से है जैसे कहा जाए कि राम और कृष्ण के अवतार से पहले और भी कई अवतार हुए थे या मोहम्मद साहेब के आने से पहले और भी कई पैगंबर हुए थे। मोहम्मद साहेब आखिरी पैगंबर थे? जैसे कहा जाता है कि अष्टाध्यायी लिखे जाने से पहले और भी कई व्याकरण लिखे गए और तमाम वैयाकरण हुए लेकिन पाणिनि संस्कृत के सबसे प्रामाणिक वैयाकरण थे।
सचिन जैन भारतीय संविधान की सभ्यतामूलक उत्पत्ति को रेखांकित करते हुए यह बताते हैं कि किस तरह अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन से लंबा संघर्ष करते हुए और विश्व युद्ध की चुनौतियों और विभाजन के दावानल का सामना करते हुए भारतीय संविधान का प्राकट्य हुआ। एक प्रकार से भारतीय संविधान घृणा और हिंसा के अग्निकुंड से समता, स्वतंत्रता और प्रेम का संदेश लेकर निकला।
वे मानते हैं कि संविधान के निर्माता भले ही डा भीमराव आंबेडकर कहे जाते हैं लेकिन इस पर महात्मा गांधी का भी कम प्रभाव नहीं है। महात्मा गांधी के साथी श्रीमन नारायण अग्रवाल ने `द गांधीयन कांस्टीट्यूशन आफ फ्री इंडिया’ शीर्षक से 22 अध्यायों में विभाजित 60 पृष्ठों का एक दस्तावेज तैयार किया था। इस दस्तावेज में पंचायती राज और गांव को महत्त्व देते हुए एक खाका तैयार किया गया था। लेकिन संविधान सभा ने इस संविधान के मसविदे को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि गांव अज्ञानता और अन्याय के केंद्र हैं। लेकिन इसका अहिंसक दर्शन आज भी प्रासंगिक लगता है जिसमें कहा गया था कि भारतीय संविधान का उद्देश्य विश्व शांति की स्थापना होना चाहिए। इस राष्ट्र की पुलिस का अहिंसा में विश्वास होगा। वह समाज की सेवक होगी मालिक नहीं।
हमारा कानून अपराधी के प्रति निष्ठुर नहीं होगा। वह उसे कड़ी से कड़ी सजा देने की बजाय उसमें सुधार करेगा और समाज के भीतर से गरीबी, बेरोजगारी और असमानता मिटाएगा।
इसी के साथ यह पुस्तक डा भीमराव आंबेडकर की पुस्तक `स्टेट एंड माइनारिटीज’ का जिक्र करती है जो 1945 में लिखी गई थी। यह पुस्तक भी अपने आप में एक लघु संविधान ही है। यह पुस्तक समाजवादी राज्य और आर्थिक प्रजातंत्र की अवधारणा प्रस्तुत करती है। इस पुस्तक में डा आंबेडकर सचेत करते हैं कि आप संविधान के माध्यम से लोगों को कितने भी अधिकार दे दो लेकिन उनका संरक्षण तो तभी हो सकेगा जब उनके प्रति एक प्रकार की सामाजिक चेतना रह्गी। यदि समाज स्वयं मौलिक अधिकारों के विरुद्ध होगा तो कोई राज्य उसकी हिफाजत कैसे कर सकेगा। कोई भी कानून या कोई भी संसद उन अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकती। वजह साफ है कि कानून समाज के उस व्यापक समूह पर कार्रवाई नहीं करता जो कानून के उल्लंघन के लिए प्रतिबद्ध है। कानून तो व्यक्ति पर कार्रवाई करता है। आंबेडकर ने यह भी कहा था कि सामाजिक लोकतंत्र जरूरी है और उसके लिए नागरिकों में एक दूसरे के समानता और गरिमा का भाव होना चाहिए। आज भारतीय समाज और संविधान के बारे में डा आंबेडकर की यह आशंकाएं सही साबित हो रही हैं। कहा जाता है कि डा आंबेडकर ने मौलिक अधिकारों और विशेषकर नीति निदेशक तत्वों में अपने इसी पुस्तक के दर्शन को उड़ेल दिया। वे चाहते थे कि देश को एक समाजवादी संविधान मिले लेकिन प्रत्यक्ष रूप से संविधान सभा इस नाम से भड़कती थी इसलिए उन्होंने खामोशी से यह काम किया।
पुस्तक आखिर में उस लड़ाई की ओर भी संकेत करती है जो भारत समेत दुनिया के अन्य हिस्सों में संविधान और धर्मग्रंथों के बीच छिड़ी रहती है लेकिन जिस भी समाज को आगे जाना है उसे संविधान को धर्मग्रंथों से ऊपर मानना ही होगा। ``संविधान हमारे धर्मग्रंथों से भिन्न एक सिद्धांत पुस्तक है। ऐसा नहीं है कि इसमें बदलाव नहीं किए जा सकते हैं। इसमें समय और जरूरत के मुताबिक संशोधन भी हुए हैं। इसे लागू करने की जिम्मेदारी केवल राज्य की नहीं है। इसका सही उपयोग तभी संभव है, जब हम भारत के लोग इसका सही तरीके से उपयोग करेंगे। जब भी अवसर मिले व्यक्तियों और व्यक्तियों के समूहों से इस पर चर्चा करें।’’ पुस्तक का यह सुझाव बहुत ही उचित है और संविधान का अब उसी तरह से पाठ करने की जरूरत है जिस तरह से धार्मिक ग्रंथों का श्रद्धा के साथ पाठ होता है। उसी तरह के भाष्यकारों की जरूरत है जो आमजन के बीच इसकी रोचक चर्चा कर सकें। इसी संदर्भ में यह पुस्तक संविधान सभा के अध्यक्ष डा राजेंद्र प्रसाद के उस वक्तव्य का स्मरण दिलाती है जो उन्होंने संविधान को पारित करते समय दिया था। `` आखिर संविधान एक निष्प्राण वस्तु ही तो है। उसके प्राण तो वे लोग हैं जो उस पर नियंत्रण रखते हैं और उसका प्रवर्तन करते हैं और देश को आज तक ऐसे ईमानदार लोगों के वर्ग से अधिक किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है जो अपने सामने देश के हित को रखें। ’’ पुस्तक संविधान सभा के एक सदस्य महावीर त्यागी के माध्यम से यह याद भी दिलाती है , `` इस संविधान में एक वर्ग उत्पन्न करने की प्रवृत्ति पाई जाती है--वह वर्ग जिसका लोकतंत्र ने सर्वत्र सृजन किया है ` वृत्ति भोगी राजनीतिज्ञ’ का वर्ग। सब लोकतंत्रों का संचालन वृत्ति भोगी वर्ग द्वारा किया जाता है और उनके असफल होने का यही मुख्य कारण है।’’
संविधान की कथा कहने वाली बहुत सारी पुस्तकें लिखी गई हैं उनमें अमेरिकी इतिहासकार ग्रेनविले आस्टिन की दो पुस्तकें महत्त्वपूर्ण हैः- द इंडियन कांस्टीट्यूशन-कारनर स्टोन आफ ए नेशन, वर्किंग आफ डेमोक्रेटिक कांस्टीट्यूशन। सचिन की किताब दूसरी वाली किताब की शैली में लिखी गई है। यह बताती है कि संविधान आज के संदर्भ में कैसे काम कर रहा है। संविधान के संदर्भ में रोहित डे की पुस्तक---`ए पीपुल्स कांस्टीट्यूशनः दे एवरीडे लाइफ आफ ला इन इंडियन रिपब्लिक’ भी महत्त्वपूर्ण है और तमाम मुकदमों के सहारे बताती है कि कैसे भारतीय जनता ने संविधान के माध्यम से अपने मौलिक अधिकारों को मूर्त रूप दिया है। इसी संदर्भ में गौतम भाटिया की किताब ` द ट्रांसफार्मेटिव कांस्टीट्यूशन’ भी अहम है जो बताती है कि किस तरह से संविधान ने हमें प्रजा से नागरिक बनाया।
सचिन अगर इस किताब में सुप्रीम कोर्ट के मुकदमों के हवाले से संविधान की कुछ और कहानी कहते तो किताब और समृद्ध बनती। फिर भी 23 अध्यायों और 344 पृष्ठों वाली इस को पुस्तक भारत के इस बेचैन समय में जरूर पढ़ा जाना चाहिए।