ट्रंप की यात्रा से बदली है मध्य-पूर्व की राजनीतिक फिजा

शरद सिंगी
रविवार, 28 मई 2017 (14:02 IST)
मध्य-पूर्व की राजनीति ने एक बार पुन: करवट ली है। पिछले कुछ वर्षों में अरब देशों और  अमेरिका के रिश्तों के बीच आई कड़वाहट कुछ कम होती दिखी, जब अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप  ने अपनी पहली विदेश यात्रा का प्रथम पड़ाव सऊदी अरब को चुना। 
 
स्मरण रहे कि सऊदी अरब ही वह राष्ट्र है जिसने अमेरिकी चुनावों में ट्रंप की उम्मीदवारी  का विरोध किया था। इस राष्ट्र पर यह भी आरोप है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में हिलेरी  को बड़ी रकम चंदे के रूप में दी थी। किसी भी राष्ट्र का किसी अन्य देश के अंदरुनी मामलों  में ऐसा सीधा हस्तक्षेप बहुत आपत्तिजनक माना जाता है। 
 
ट्रंप के मुस्लिम विरोधी विवादित बयानों के पश्चात अरब राष्ट्रों में जो ट्रंप-विरोधी माहौल बन  गया था वह ट्रंप की इस यात्रा के बाद इतिहास हो गया लगता है। ट्रंप की यह यात्रा बहुत  महत्वपूर्ण इसलिए भी थी कि इस यात्रा में द्विपक्षीय समझौते तो हुए ही, एक विशाल  अरब-मुस्लिम-अमेरिकी शिखर सम्मेलन हुआ जिसमें 55 इस्लामिक देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने  भाग लिया। 
 
यहां पाठकों को यह स्मरण दिलाना आवश्यक है कि ओबामा के कार्यकाल में अरब देशों की  यह धारणा बनने लगी थी कि अमेरिका, ईरान की ओर झुक रहा है। ईरान से परमाणु संधि  होने के पश्चात जब अमेरिका, ईरान के आर्थिक प्रतिबंधों में कुछ ढील देने लगा तो अरब  देशों की बौखलाहट और बढ़ गई थी। 
 
अरब देश, पश्चिमी देशों और ईरान के बीच हुए परमाणु समझौते को अरब विरोधी मानते हैं।  राष्ट्रपति बनने से पूर्व ट्रंप भी इस समझौते की कड़ी आलोचना कर चुके थे। हुआ भी कुछ  ऐसा कि ईरान ने अपने ऊपर से प्रतिबंधों का थोड़ा शिकंजा हटते ही यमन, सीरिया और  इराक में अरब देशों के विरुद्ध मोर्चे खोल लिए। 
 
अरब और मुस्लिम देशों के इस शिखर सम्मेलन में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ  को भी आमंत्रित किया गया था। शरीफ अपनी पूरी टीम के साथ सऊदी अरब पहुंच गए।  सम्मेलन के अंत में उन्हें मालूम पड़ा कि वे तो केवल तमाशबीन के तौर पर बुलाए गए थे।  न तो ट्रंप ने उनसे कोई बात की और न ही उन्हें सम्मेलन में अपनी बात रखने का मौका  दिया गया। 
 
इमरान खान की मानें तो नवाज शरीफ एक लंबा भाषण तैयार करके गए थे और उसमें  कश्मीर का राग पीटने का भी उनका इरादा था किंतु वे बेरंग लौटा दिए गए। अपने आपको  आतंकवाद का शिकार और आतंकवाद की लड़ाई में अमेरिका का प्रमुख सहयोगी बतलाने वाले  देश का ट्रंप ने अपने भाषण में कोई जिक्र भी नहीं किया। पाकिस्तानी मीडिया ने इसे  फरामोशी तथा नवाज शरीफ के साथ-साथ पाकिस्तान का अपमान भी बताया। 
 
पहली बात तो पाकिस्तान को यह समझना चाहिए था कि वह अरब मुल्क नहीं है। अरब  मुल्कों के सम्मेलन में उसका क्या काम? पाकिस्तान ने अपने आपको अरबों की संतान  बतलाने और उनके साथ निष्ठा जोड़ने में 70 वर्ष जाया कर दिए किंतु अरबों ने आज तक  उसे अपनी बिरादरी में शामिल नहीं किया। इतनी ठोकरें खाने का पश्चात भी पाकिस्तान को  कोई अक्ल आती नहीं दिखती। 
 
स्पष्टत: कौआ हंस की चाल चलकर हंसों की बिरादरी में शामिल नहीं हो सकता। दूसरी  महत्वपूर्ण बात इस शिखर सम्मेलन की यह थी कि यह शिखर सम्मेलन पूर्णत: ईरान के  विरुद्ध अरब देशों को लामबंद करने का प्रयास था। पाकिस्तान की न तो हैसियत है और न  ही उसके हित में है कि वह अपने पड़ोसी मुल्क ईरान के विरुद्ध खड़ा हो। इस तरह कुल  मिलाकर वह अपनी दुर्गति करवाकर वापस लौटा।
 
अपने आपको इस्लामिक झंडाबरदार समझने वाले का सच तो यह है कि अरब समुदाय  पाकिस्तान को मूल इस्लामिक देश मानता ही नहीं और उसके नागरिकों को कन्वर्ट  (धर्मांतरित) दोयम दर्जे का मुस्लिम मानकर हेय दर्जा देता रहा है।
 
यदि हम तटस्थ दृष्टि से भी देखें तो मध्य-पूर्व के इस राजनीतिक दांव-पेंच में एक आशा की  किरण भी है। जिस दिन ट्रंप सऊदी अरब पहुंचे थे उसी दिन ईरान में राष्ट्रपति चुनावों के  नतीजे घोषित हुए थे। जैसा कि हमने अपने पिछले लेख में आशा जताई थी, इन चुनावों में  ईरान के उदारवादी नेता हसन रौहानी पुन: निर्वाचित हुए। इस जीत के बाद ईरान के  कट्टरवादी थोड़े कमजोर होंगे और ईरान राजनीतिक सुधारों की ओर उन्मुख होगा। हसन  रोहानी इस स्थिति का लाभ लेकर यदि अरब देशों से अपने बिगड़े रिश्तों को सुधारने की ओर  अग्रसर होते हैं तो फिर मध्य-पूर्व में शांति का वसंत आने से कोई नहीं रोक सकेगा।
 
विश्व, भारत और मानवता के हित में यही श्रेयस्कर है कि मध्य-पूर्व शीघ्र ही वर्तमान धार्मिक  कट्टरवाद एवं आतंकवादजनित आपदाओं और विपत्तियों से बाहर निकले ताकि विश्व पुन:  विश्व-शांति और विकास के मार्ग पर आगे बढ़ सके।  ईरान के हसन रौहानी और सऊदी अरब के शासक इसमें सकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं।  हमारी शुभकामनाएं!
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