एक तारीख़, जब इतिहास लुढ़क गया

सुशोभित सक्तावत
बुधवार, 9 नवंबर 2016 (16:16 IST)
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के बाद दुनिया को जिस सबसे बड़ी तात्कालिक समस्या का सामना करना पड़ा, उसका स्वरूप राजनीतिक से अधि‍क भाषाशास्त्रीय था। मसलन, यही कि इस पर किस तरह से प्रतिक्रिया की जाए। विभ्रम, अविश्वास, दुविधा और हैरत के हालात सब तरफ़ नज़र आ रहे थे, इसलिए भी कि अमेरिका में और अमेरिका के बाहर के बहुत से लोगों ने कभी भी ट्रंप को एक संभावना नहीं माना था। रिपब्लि‍कन पार्टी ने ट्रंप को उम्मीदवारी सौंपी, यह पार्टी की ऐतिहासिक भूल भले मानी जा रही थी, लेकिन ट्रंप राष्ट्रपति बन ही जाएंगे और अमेरिका को दुनिया के सामने अपने चयन को लेकर शर्मिंदा होना पड़ेगा, इसका गुमान भी किसी को नहीं था। सच तो यह है कि किसी ने भी यह कल्पना करने का प्रयास नहीं किया था कि अगर ट्रंप जीत गए तो क्या होगा। और यही कारण है कि जब ट्रंप की जीत की सूचना आई तो चुनावी विश्लेषकों से लेकर भू-राजनीति के जानकारों तक के सामने एक तर्कशास्त्रीय संकट मुंहबाए खड़ा था : यह कि इसको कैसे समझें और समझकर इसको दूसरों को कैसे बताएं।
यह संकट इसलिए भी विकट है, क्योंकि ये वही अमेरिका है, जिसने पिछले दो चुनावों में एक अश्वेत, उदारवादी राष्ट्रपति को चुनाव जिताया था। अमूमन, चुनावों में मतदाताओं द्वारा सत्ता में रद्दोबदल किया जाता रहा है, जिसे एंटी इंकंबेंसी भी कहा जाता है, लेकिन विचारधारागत आधार पर ऐसी पलटी अभूतपूर्व है। ट्रंप हर उस चीज़ का विपर्यय हैं, जो ना केवल बराक ओबामा की लगातार दो मर्तबा जीत में निहित प्रतीकात्मकता से उपजी थीं, बल्कि जो एक प्रगतिशील राष्ट्र के रूप में अमेरिका की विकास-यात्रा को भी परिभाषित करती रही हैं। उनमें एक ऐतिहासिक तारतम्य था। यह उचित ही था कि अश्वेतों को दास प्रथा से मुक्त करने वाला, महिलाओं को मताधि‍कार देने वाला और नागरिक स्वतंत्रता, मानवाधि‍कार और लोकतंत्र के स्वरूपों पर लंबी जिरह करने वाला अमेरिका 2008 में एक अश्वेत व्यक्त‍ि को अपना राष्ट्रपति चुनता, 2016 में एक महिला को और इसी तरह से यह विकास-क्रम गतिशील रहता, लेकिन 9 नवंबर 2016 के दिन अमेरिका के स्वयं के ऐतिहासिक बोध को छिन्न-भि‍न्न कर दिया है। वह इतिहास में पीछे लौट गया है, ठीक-ठीक कितना पीछे, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
 
उदारवादी चिंतक, प्रगतिशील विश्लेषक, चुनावी राजनीति के जानकार ज़मीनी हालात से कितने कटे हुए हैं, कितने अलग-थलग, ट्रंप की जीत इस बात की सबसे बड़ी मिसाल साबित होने जा रही है। किसी ने इसका पूर्वानुमान नहीं लगाया था। कुछ बहुत ज़रूरी बुनियादी सवाल ट्रंप के व्यक्त‍ित्व से जुड़े हुए थे। सीएनएन पर रूंधे गले से बोलते हुए एक अश्वेत अमेरिकी टिप्पणीकार ने कहा कि “यह अश्वेतों, अप्रवासियों, मुस्ल‍िमों के गाल पर करारा तमाचा है। अमेरिका ने यह जनादेश दिया है कि वह इन लोगों को एक सीमा के बाद बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। ये चुनाव एलीट क्लास के विरुद्ध थे, ये चुनाव लिबरल मूल्यों के विरुद्ध थे और ये चुनाव एक अश्वेत राष्ट्रपति के विरोध में लामंबद थे।“लगभग ऐसे ही नजारे पूरे अमेरिका में दिखाई दे रहे हैं। श्रेष्ठताबोध में आकंठ डूबे रहने वाले अमेरिकी अपने इस चयन के मायनों को समझने की कोशि‍श कर रहे हैं, वे लोकतांत्रिक निर्वाचन की प्रासंगिकता पर ही गहरी सोच में डूबे हुए हैं। वे पूछ रहे हैं कि अगर ट्रंप लोकतांत्रिक रूप से चुनकर आ सकते हैं तो लोकतंत्र के बारे में समझा जाए। निश्च‍ित ही, इसमें ट्रंप बनाम हिलेरी वाले द्वैत की अपनी भूमिका थी। दुनिया आज ख़ुद से पूछ रही है कि क्या हम सचमुच अमेरिका को समझते हैं और विडंबना यह कि ख़ुद अमेरिका भी आज ख़ुद से यही सवाल पूछ रहा है।
 
ट्रंप ने अमेरिकी यथास्थ‍िति को चुनौती दी थी, वे वहां के सत्ता-कुलीनों का हिस्सा नहीं थे, वे किसी गठजोड़ या क्रोनीज़्म या राजनीतिक वंशावली में शामिल नहीं थे। वे एक आउडसाइडर थे। उनकी भाषा-शैली गैर-परिष्कृत थी। उनके विचार अनगढ़ थे। वे पोलिटिकली इनकरेक्ट थे। क्या वे तमाम बातें, वे तमाम अशालीनताएं और अभद्रताएं, जो उनकी खामियां मानी जा रही थीं, आखि‍रकार उनके पक्ष में गई हैं? 2014 के भारतीय चुनाव याद आते हैं, जब भारत के मतदाताओं ने इसी तरह अप्रत्याशि‍त रूप से एक लगभग अस्वीकार्य, अस्पृश्य नरेंद्र मोदी को जीत दिलाई थी। अगर वह भारतीय राजनीति में पिछले 30 साल का सबसे बड़ा उलटफेर था तो यह विश्व राजनीति का अब तक का सबसे हैरतअंगेज़ लम्हा है। एक मतदाता का मानस इससे पहले इतनी बड़ी गुत्थी कभी नहीं था, जितनी कि वह आज बन गया है। और कौन जाने यह एक शुरुआत भर हो। दुनिया के अनेक देशों में रैडि‍कल दक्ष‍ि‍णपंथी आवाज़ें उभरकर सामने आ रही हैं, शरणार्थी संकट से जूझ रहे यूरोप के अनेक देशों सहित। कौन जाने, ट्रंप, मोदी, पुतिन के साथ मिलकर ये ताक़तें एक नई विश्व-स्थ‍ि‍ति को जन्म दें। इतना तो तय है कि दुनिया का इतिहास आज के बाद से वही नहीं रहने वाला है, जिस दिशा में जाता वह नज़र आ रहा था। जैसा कि शेक्सपीयर ने कहा था : “टाइम इज़ आउट ऑफ़ जाइंट।' इतिहास में एक बल पड़ गया है।

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