जी-20 सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी की पहली शिरकत

शरद सिंगी
मोदीजी की वर्तमान विदेश यात्रा प्रथमतः जी-20 (समूह-20) देशों के सम्मेलन में शिरकत करने के लिए हो रही है, जो 15 नवंबर से ऑस्ट्रेलिया के ब्रिस्बेन शहर में आरंभ हो चुका है। आप को याद दिलाएं कि यद्यपि मोदीजी ने संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच से विभिन्न देशों को अलग अलग समूहों में बंटने पर अपनी नाखुशी एवं असहमति प्रकट की थी,‍ किंतु चूंकि भारत इस समूह का सदस्य है अतः मोदीजी को इस समूह की सालाना बैठक में भाग लेना ही था।
 
स्वाभाविक है कि हम सब के मन में जी-20 के इस सम्मेलन की रचना और उपलब्धियों पर जिज्ञासा होगी।  जी-20 विश्व के बीस सबसे बड़े, उन्नत और उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों का समूह है जो दुनिया की दो-तिहाई आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनका सम्मिलित सकल उत्पाद (जीडीपी) वैश्विक सकल उत्पाद का 85 प्रतिशत तथा विश्व व्यापार का 75 प्रतिशत हिस्सा इनके पास है। अर्थात यह समूह दुनिया के बीस सबसे महत्वपूर्ण देशों का समूह है। 
 
इस समूह की स्थापना का उद्देश्य पूर्ण रूप से आर्थिक था। वैश्विक आर्थिक स्थिरता, विभिन्न देशों के बीच में समन्वयकारी आर्थिक नीतियां, भविष्य में आने वाले किसी वित्तीय संकट की रोकथाम तथा अंतराष्ट्रीय वित्तीय ढांचे का आधुनिकीकरण आदि इस समूह के प्रमुख उद्देश्य थे। 1999 से आरंभ हुए इस मंच को 15 वर्ष पूरे हो चुके हैं। समय है एक आकलन का कि इन उद्देश्यों की पूर्ति में यह समूह कितना सफल हुआ है? आर्थिक उद्देश्यों के लिए बनाया गया यह मंच क्या सही मायनों में आर्थिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयासरत है या यह भी अन्य मंचों की तरह एक राजनीतिक अखाड़ा बनकर रह गया है?
 
पिछले पंद्रह वर्षों का इतिहास देखें तो इस समूह के वार्षिक सम्मेलनों की उपलब्धि सम्मेलन में शामिल राष्ट्राध्यक्षों के ग्रुप फोटो खिंचवाने का आलावा कुछ नहीं रही। गत वर्ष के सम्मेलन को ही लें। आर्थिक कार्यसूची तो हाशिए में चली गई थी और मुख्य मुद्दा सीरिया की राजनीति पर केंद्रित हो गया था जहां राष्ट्रपति ओबामा सीरिया के राष्ट्रपति बशार के विरुद्ध कार्रवाही करने के पक्ष मे थे तो रूसी राष्ट्रपति पुतिन, बशार का साथ देने के पक्ष में। 
 
इस तरह यह सम्मेलन बिना किसी नतीजे पर पहुंचे समाप्त हो गया था। इससे पूर्व सन् 2008 में फैली व्यापक मंदी पर भी ए शीर्ष नेता किसी नतीजे और निर्णय पर एकमत  नहीं हो पाए थे। मुश्किल यह है कि किसी एक देश द्वारा अपनी अर्थव्यवस्था के बचाव में उठाए कदम दूसरे देश का अहित करते हैं। 
 
ऐसी स्थिति में किसी निर्णय पर पहुंच पाना दुष्कर हो जाता है, जो प्रतिस्पर्धी हैं उनमें सहयोग और सहमति कैसे होगी ?  हर देश की अर्थव्यवस्था पर उस देश की राजनीतिक और सामजिक सोच की छाप होती है। ऐसे में आर्थिक उद्देश्यों पर सभी देशों की सहमति तो हो सकती है किन्तु उनको पाने के लिए किए जाने वाले निर्णयों पर नहीं। जी-20 में लिए गए निर्णयों को बलपूर्वक भी लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि क़ानूनी तौर पर कोई देश उन्हें मानने के लिए बाध्य नहीं है। मुश्किल  यह भी है कि  जी-20 के कई नेता ऐसे भी हैं जो गठजोड़ की राजनीति  से राष्ट्राध्यक्ष बने हुए हैं और उनके पास इन निर्णयों को लागू करवाने का बहुमत नहीं है।  
 
 
हर वर्ष की तरह इस वर्ष की विषयवस्तु भी आर्थिक विकास पर ही केंद्रित है। आर्थिक विकास को मजबूती देना, रोज़गार के अवसरों को बढ़ाना और अर्थव्यवस्था को भविष्य के झटकों से संवरक्षित करना, किंतु इस वर्ष के सम्मेलन से भी अधिक कुछ अपेक्षाएं नहीं है। रूस के क्रीमिया में घुस जाने के विरोध में कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष पुतिन को घेरने की मोर्चाबंदी कर रहे हैं। 
 
मेजबान देश ऑस्ट्रेलिया सबसे ज्यादा मुखर है क्योंकि जो यात्री जहाज एमएच 17  क्रीमिया में मार गिराया गया था उसमे ऑस्ट्रेलियाई नागरिक भी थे, इसलिए ऑस्ट्रेलिया के राष्ट्रपति, पुतिन से गिराने वालों के विरुद्ध जांच एवं न्याय की मांग करेंगे। 
 
मीडिया को उत्सुकता ज्यादा इस बात की रहेगी कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपने विरोधी देशों जैसे जापान के प्रधानमंत्री अबे से, दक्षिण कोरिया की राष्ट्रपति  पार्क गिउन हाई और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टोनी अबोट से  कैसे हाथ मिलाते हैं? ओबामा, पुतिन से कैसे मिलते हैं? इंग्लैंड के प्रधानमंत्री अर्जेन्टीना के प्रधानमंत्री से कैसे मिलते हैं? ये देश ऐसे हैं जिनमे कई मुद्दों पर आपस में टकराव है और दुश्मन देशों की तरह व्यवहार करते हैं।  ऐसी स्थिति में सहयोग और सहमति की कैसे आशा की जा सकती है?
 
जब कोई राजनेता वैश्विक जिम्मेदारियों को निभाने की कोशिश करता है तो स्वभावतः उनके अपने राष्ट्रीय हित आड़े आ जाते हैं। यह ऐसी स्थिति है जहाँ यदि किसी राष्ट्राध्यक्ष को विश्व में अपने आपका कद ऊँचा करना है तो स्वयं के वोटबैंक की हानि करनी पड़ती है। उदाहरण के लिए यदि अमेरिका विश्व के अन्य देशों के बेरोज़गारों को कार्य वीसा मुहैया करवाता है तो उसे अपने देश के बेरोज़गारों की बलि देनी पड़ती है। अतः देखा जाए तो  जी-20 का मंच फिलहाल तो एक राजनैतिक मंच से अधिक कुछ नहीं है। 
 
यदि विश्व के देश एवं नेता गरीबी, बेरोज़गारी, काले धन एवं अन्य समस्याओं को अपना प्रतिस्पर्धी मान लें तब तो सहयोग संभव है किन्तु यहाँ तो हर राष्ट्र दूसरे राष्ट्र से आगे निकलना चाहता है। अतः यह मंच प्रतिवर्षानुसार एक राष्ट्राध्यक्षों का ग्रुप फोटो खिंचवाने के अवसर से शायद ही कुछ बेहतर उपलब्ध करने में सफल होगा। कमी समझदारी की नहीं, कमी संकल्पों और संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर उठकर सचमुच विश्व कल्याण की सद्इच्छा की है। 
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