ये सवाल बेमानी हैं

अवधेश कुमार
अनारक्षित सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए आर्थिक आधार पर आरक्षण साकार हो गया है। यह संदेह निराधार साबित हुआ कि लोकसभा में पारित होने के बावजूद राज्यसभा में यह लटक जाएगा। दोनों सदनों के उपस्थित सदस्यों में से दो-तिहाई से ज्यादा सदस्यों के समर्थन से पारित होना असाधारण है। नरेन्द्र मोदी सरकार के जिस कदम पर इतना राजनीतिक बावेला खड़ा हुआ, वह इसके पहले हंगामों और कार्रवाई में बाधाओं को रिकॉर्ड बनाने वाली संसद में लगभग सर्वानुमति से पारित हुआ।
 
 
एक दिन पहले मंत्रिमंडल ने विधेयक लाने का फैसला किया और दूसरे दिन लोकसभा तथा तीसरे दिन राज्यसभा में यह विधेयक पारित हो गया। क्या राजनीति में व्याप्त वर्तमान तीखेपन को देखते हुए इसकी कल्पना की जा सकती थी? एक भी संशोधन स्वीकार नहीं हुआ। इस दृष्टि से देखें तो न केवल आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था का इतिहास बना बल्कि संसद ने भी इतिहास बना दिया। हम इसके राजनीतिक मायने निकाल सकते हैं।

 
विश्लेषक इसे मोदी का ऐसा मास्टरस्ट्रोक कह रहे हैं जिसने सभी पार्टियों को भौंचक्क कर दिया तथा ज्यादातर के सामने इसका समर्थन करने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचा था। इस निष्कर्ष में सत्यता है। दोनों सदनों में नेताओं के भाषणों से उनकी लाचारी साफ झलक रही थी। हालांकि अभी यह आकलन करना मुश्किल है कि इसका राजनीतिक लाभ किसको मिलेगा? भाजपा नेताओं और समर्थकों की मानें तो अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण कानून को लेकर अगड़ी कही जाने वाली जातियों में जो नाराजगी पैदा हुई थी, वह इससे दूर हो जाएगी और 2019 के लोकसभा चुनाव में 'मध्यप्रदेश, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़' नहीं दोहराया जाएगा।

 
तो यह देखना होगा और 2019 का आम चुनाव होने दीजिए। किंतु इस आरक्षण को लेकर जिस तरह के प्रश्न उठाए गए जा रहे हैं, उन पर विचार करना जरूरी है। सामाजिक न्याय के तहत हमारे महान नेताओं ने अनसूचित जाति एवं जनजाति के लिए उनकी जनसंख्या के अनुसार आरक्षण दिया था। उस समय पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण पर बहस होने तथा बाद में काका साहेब कालेलकर समिति के बावजूद इसे उचित नहीं माना गया। किन परिस्थितियों में अन्य पिछड़ा वर्ग में जातियों की पहचान हुई तथा उनके लिए आरक्षण एवं अन्य रियायतें दी गईं, उनमें यहां जाने की आवश्यकता नहीं।

 
सामाजिक न्याय का तकाजा था कि अगर जाति के कारण पूरा समुदाय पीछे रह गया है तो उसे सामान्य स्थिति में लाने के लिए सरकार कदम उठाए। किंतु जिन जातियों को सुखी-संपन्न माना गया, उनमें ऐसा तो था नहीं कि उनमें वाकई सारे एक ही सामाजिक-आर्थिक श्रेणी के थे। तो क्या उनको हमेशा के लिए भगवान के भरोसे छोड़ दिया जाए? उनके अंदर जो अंसतोष पैदा हो रहा है, राज्य व्यवस्था से जिस तरह विश्वास घट रहा है उसके लिए कुछ कदम तो उठाना होगा। एक किशोर और नौजवान अगर देखता है कि हम ज्यादा नंबर लाकर भी संस्थान में नामांकन नहीं पा रहे, नौकरी से छंट जा रहे जबकि हमसे कम नंबर लाने वाला सफल हो रहा है तो उसकी मानसिकता पर इसका नकारात्मक असर होना स्वाभाविक है। इस दृष्टि से देखें तो आर्थिक आधार पर आरक्षण की सार्थकता साबित होती है।

 
संविधान में आर्थिक पिछड़ेपन का प्रावधान नहीं था तो यह संसद की जिम्मेवारी थी कि वह ऐसा करे और उसने किया है। इसे संविधान की मूल भावना के विरुद्ध बताने वाले भूल जाते हैं कि मूल संविधान में पिछड़ा वर्ग भी नहीं था। मौलिक अधिकार की धारा 15 और 16 में कई उपबंध धीरे-धीरे जोड़े गए। उसमें 5 तक उपबंध थे, अब 6 हो गए हैं, तो यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ कैसे हो गया? 1992 के इंदिरा साहनी फैसले को उद्धृत करने वाले एकपक्षीय चित्र प्रस्तुत कर रहे हैं। वह फैसला जिन परिस्थितियों और पृष्ठभूमि में दिया गया, उसमें और आज में काफी अंतर आ गया है।
 

यूपीए सरकार द्वारा जाटों को अन्य पिछड़ा वर्ग में डाले जाने के कदम को खारिज करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि केवल जाति पिछड़ेपन का आधार नहीं हो सकती। उसमें उसने आर्थिक पिछड़ेपन की भी बात कही है। वैसे भी आरक्षण सामाजिक न्याय का एक औजार अवश्य माना गया लेकिन व्यवहार में यह नौकरी एवं शिक्षा का आधार है जिससे व्यक्ति की आर्थिक स्थिति सुधरती है और उससे थोड़ी सामाजिक स्थिति भी। तो जो व्यवस्था केवल नौकरी और शिक्षा तक सिमटी हो, उससे दूसरे वंचित वर्गों को बाहर रखना सामाजिक अन्याय का पर्याय होगा।
 

दूसरा प्रश्न उच्चतम न्यायालय द्वारा लगाए गए 50 प्रतिशत की सीमा को लेकर है। इस पर एक मत यह है कि उच्चतम न्यायालय की सीमा सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ों के नाम पर मिलने वाले आरक्षण के संदर्भ में थी। इंदिरा साहनी फैसले में इसका उल्लेख है। हालांकि 124वें संविधान संशोधन में 50 प्रतिशत की सीमा को पार करने के कारण दे दिए जाते तथा इसे इसी मामले तक सीमित रखने की घोषणा होती तो ज्यादा पुख्ता होता। नहीं भी हुआ तो देखेंगे कि उच्चतम न्यायालय क्या रुख अपनाता है। उसके अनुसार संशोधन परिवर्तन किया जा सकता है। इसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी ही जाएगी या छद्म रूप से दिलवाई जाएगी।
 

एक बड़ा प्रश्न आरक्षण पाने वालों की आय एवं संपत्ति की सीमा पर भी उठाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि 8 लाख वार्षिक आय में तो देश के 95 प्रतिशत लोग आ जाएंगे। कुछ ऐसी ही बातें खेती की जमीन एवं शहरी प्लॉट के संदर्भ में है। नाबार्ड के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 1 प्रतिशत की आय 48 हजार 883 रुपए है। शीर्ष 5 प्रतिशत परिवार की आय 23 हजार 875 रुपए तथा 10 प्रतिशत की 17 हजार रुपए आंकी गई है। कृषि जनगणना 2015-16 का आंकड़ा सितंबर 2018 में जारी हुआ। इसके अनुसार 86 प्रतिशत लोग आरक्षण के दायरे में आ जाएंगे।
 

जो भी हो, आर्थिक आधार पर आरक्षण देना है तो आय और संपत्ति की सीमा बनानी होगी। अन्य पिछड़ा वर्ग के क्रीमीलेयर की सीमा भी 8 लाख है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इसके दायरे में आएं और जितना प्रतिशत आरक्षण है उतने उम्मीदवार उस वर्ग के सफल हों। इसमें अनुभव के आधार पर बदलाव हो सकता है। इसके लिए संविधान संशोधन की आवश्यकता तो है नहीं। आर्थिक स्थिति और जमीनों के स्वामित्व के अध्ययन में सभी जातियां शामिल हैं।

 
यह ध्यान रखना होगा कि जिस तरह पिछड़े वर्ग में भी कुछ जातियों को आरक्षण का ज्यादा लाभ मिला है और जातियों का एक बड़ा समूह उससे वंचित है, वैसा नहीं हो। यह तभी होगा, जब समय-समय पर इसकी समीक्षा करने का साहस किया जाए। आज आरक्षण की समीक्षा की बात कहनेभर से हंगामा आरंभ हो जाता है। लेकिन पिछड़ों और अनुसूचित जाति-जनजाति आरक्षण की समीक्षा का भी समय आ गया है। यह देखना ही होगा कि वाकई जो हकदार हैं, उन तक आरक्षण का लाभ पहुंच भी रहा है या नहीं?

 
वास्तव में जो भी प्रश्न उठाए जा रहे हैं, वे एकपक्षीय आकलन पर आधारित हैं। ऐसे लोगों में ज्यादातर की अपनी विचारधारा है। वे प्रश्न उठाएंगे ही। जैसे ज्यादातर विरोधी नेताओं ने अपने भाषण में कहा कि जब सरकारी नौकरियां हैं ही नहीं तो आप आरक्षण देकर क्या करेंगे? आप तो ठग रहे हैं। अगर नौकरियां हैं ही नहीं तो पहले से कायम आरक्षणों की क्या उपयोगिता है? उनको भी खत्म कर देना चाहिए। यह तर्क तो कोई नहीं दे रहा। उल्टे नौकरियां नहीं होने का तर्क देने वाले पिछड़ा वर्ग के 27 प्रतिशत आरक्षण को दोगुना करने की मांग करते रहे। अपनी ही दलीलों को काटने वाली ऐसी बातों को कौन गंभीरता से लेगा?

 
बेशक, सरकारी नौकरियों की संख्या घटी है, किंतु जितनी हैं उसमें तो हिस्सेदारी होगी। आरक्षण शैक्षणिक संस्थानों के लिए भी है। इसमें सरकारी एवं निजी संस्थानों को उसी तरह शामिल किया गया है, जैसे अन्य श्रेणी के आरक्षित वर्गों के लिए, तो इसका भी लाभ मिलेगा। हम मानते हैं कि सामाजिक न्याय का उपयुक्त औजार आरक्षण साबित नहीं हो रहा है। आरक्षण का योगदान है किंतु इसके प्रतिउत्पाद उतने सकारात्मक नहीं हैं जितनी कल्पना की गई थीं और इससे जातिवाद खत्म होने की बजाय और बढ़ा है।

 
आरक्षण और जातियों के नाम पर नेता स्थापित हो गए हैं, जो इस पर हर तार्किक बात करने वालों को पिछड़ा और अनुसूचित जाति-जनजाति विरोधी करार देकर अपनी संकीर्ण राजनीति करते हैं। दूसरे, जीविकोपार्जन के लिए नौकरियों को प्राथमिकता की मानसिकता से बाहर निकलने की आवश्यकता है। धीरे-धीरे ऐसी स्थिति पैदा हो कि आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं रहे। किंतु जब तक यह व्यवस्था है, सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के साथ आर्थिक रूप से गरीबों के लिए आरक्षण की व्यवस्था शत-प्रतिशत न्यायसंगत मानी जाएगी। भय यही है कि इसका लाभ उठाकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए अदूरदर्शी नेता राज्यों में कुछ अनावश्यक फैसला आरंभ कर सकते हैं। 

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