देश में कृषि भूमि के वितरण की विषमता कम करने व ग्रामीण भूमिहीनों को कृषि भूमि उपलब्ध कराने संबंधी प्रगति बहुत ही निराशाजनक रही है। आज भी भूमि-सुधार के एजेंडे अधूरे पड़े हैं। जहां एक ओर भूमिहीनों के लिए भूमि-अधिकार प्राप्त करना जरूरी है, वहीं छोटे और मध्यम किसानों के भूमि अधिकारों के लिए बढ़ते संकट को रोकना भी जरूरी है। समय रहते यदि उचित कदम नहीं उठाए गए, तो विस्थापन और किसान संकट के इस दौर में किसान और तेज गति से भूमिहीन बनते जाएंगे और भूमि-सुधार का पूरा मकसद ही खतरे में पड़ जाएगा। भूमि सुधार की जरूरतों और चुनौतियों को उजागर करता यह महत्वपूर्ण आलेख।
गरीबी दूर करने में भूमि-सुधारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। भारतीय योजना आयोग ने एक दस्तावेज में लिखा है, ''भूमि के एक छोटे प्लाट के स्वामित्व से भी किसी परिवार को आय बढ़ाने, पोषण की स्थिति सुधारने, क्रेडिट प्राप्त करने व अधिक गरिमामयी जीवन जीने की क्षमता प्राप्त होती है। अतः खेतिहर मजदूरों को अपनी आर्थिक-सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए भूमि मिलनी चाहिए।''
खाद्य व कृषि संगठन (संयुक्त राष्ट्र संघ) ने अपने एक अध्ययन में लिखा है कि यदि भारत में 5 प्रतिशत और कृषि भूमि का पुनर्वितरण भी किया जाए व लाभार्थियों को कुछ सिंचाई भी मिले, तो ग्रामीण निर्धनता इस एक कदम से 30 प्रतिषत कम हो सकती है। आजादी के बाद के लगभग 45 वर्षों तक हमारे देश में कम से कम विचार के स्तर पर इस बारे में व्यापक सहमति रही, कि गांवों के भूमिहीन (या लगभग भूमिहीन) परिवारों में भूमि वितरण कर उन्हें किसान बनने का अवसर दिया जाएगा। यह सच है कि इस दिशा में प्रगति संतोषजनक नहीं रही, पर कृषि व ग्रामीण विकास के एक अभिन्न अंग के रूप में इस भूमि सुधार कार्यक्रम को कम से कम नीतिगत तौर पर स्वीकार तो किया जाता था। पर पिछले लगभग 25 वर्षों में तो भूमि सुधार कार्यक्रम से केन्द्र व राज्य सरकारें निरंतर पीछे हट रही हैं।
यह कड़वी हकीकत कई सरकारी दस्तावेजों में भी स्वीकार की जा रही है। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में योजना आयोग ने कहा कि भूमि पुनर्वितरण के संदर्भ में नवीं योजना के अंत में स्थिति वही थी, जो योजना के आरंभ में थी। दूसरे शब्दों में नवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान इस क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई। यह दस्तावेज स्पष्ट कहता है, ''छिपाई गई भूमि का पता लगाने व उसे ग्रामीण भूमिहीन निर्धन परिवारों में वितरण करने में कोई प्रगति नहीं हुई।'' इतना ही नहीं, आगे यह दस्तावेज स्वीकार करता है, ''1990 के दषक के मध्य में लगता है कि भूमि-सुधारों को पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया। हाल के समय में राज्य सरकारों की पहल इससे संबंधित रही है कि भूमि कानूनों का उदारीकरण हो ताकि बड़े पैमाने की कॉपर् कॉर्पोरेट कृषि को बढ़ावा मिल सके।''
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में भूमि संबंधों के मुद्दों का आधार तैयार करने के लिए योजना आयोग ने एक वर्किंग ग्रुप नियुक्त किया था। इस वर्किंग ग्रुप ने स्पष्ट कहा है, ''लगता है आर्थिक उदारीकरण शुरू होने के बाद सरकार की भूमि-सुधार में रुचि लुप्त हो गई।'' इतना ही नहीं, स्पष्ट शब्दों में वर्किंग ग्रुप ने अपनी रिपोर्ट में कहा है- भूमि हदबंदी (लैंड सीलिंग) की सीमा को बढ़ाने या इस कानून को समाप्त ही करने के लिए एक मजबूत लॉबी सक्रिय है।'' आगे यह रिपोर्ट कहती है- ''1980 के दषक के मध्य में जब भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारीकरण का प्रवेश पहले गुपचुप होने लगा व वर्ष 1991 से तो एक तूफान की तरह, भारतीय नीति निर्धारण के रडार स्क्रीन से भूमि सुधार गायब हो गए। भूमि सुधार भुला दिया गया एजेंडा बन गया। सरकार में बाजारवाद की वकालत करने वाले इन भूमि सुधारों के बारे में बात भी नहीं करना चाहते हैं ताकि कहीं भूमि के सौदागर इस क्षेत्र में सरकार की भूमिका से घबरा न जाएं। सत्तर के दषक में केंद्रीय निर्देषों पर आधारित जो भूमि-सुधार लाए गए थे, वे इन बाजारवादियों को न केवल अनचाहे अवरोध लग रहे हैं बल्कि भूमि के बाजार में पूंजी के खुले खेल के लिए एक मुसीबत लग रहे हैं।''
भूमि सुधारों का यह पक्ष सदा सबसे महत्वपूर्ण रहा है कि भूमिहीन ग्रामीण परिवारों विषेषकर खेत मजदूर परिवारों में भूमि वितरण किया जाए। यह उद्देष्य आज भी सबसे महत्वपूर्ण है कि भूमिहीन को किसान बनाया जाए। कुल मिलाकर लगभग 250 से 300 लाख या 2 से 3 करोड़ तक भूमिहीन व सीमांत किसान परिवारों को कृषि-भूमि व आवास-भूमि वितरण का समयबद्ध कार्यक्रम बनाना चाहिए। एक परिवार को औसतन कम से कम दो एकड़ भूमि अवश्य मिलनी चाहिए। इसके साथ ही लघु सिंचाई, मिट्टी व जल संरक्षण, भूमि समतलीकरण संबंधी सहयोग मिलना भी जरूरी है। तभी वे सफल किसान बन सकेंगे।
भूमि-सुधार एक ऐसा कार्यक्रम है जिसमें करोड़ों गांववासियों को स्थाई लाभ पहुंचाने की क्षमता है, पर इसका सरकारी बजट पर कोई भार नहीं है या अनेक अन्य कार्यक्रमों की तुलना में बहुत नगण्य भार है। वैसे तो इसे अच्छी तरह लागू करने के लिए प्रशासनिक तंत्र पहले से मौजूद है, बस उसे मुस्तैद करने की जरूरत है, फिर भी यदि कुछ अतिरिक्त प्रशासनिक व्यवस्था करनी भी पड़ी, तो इसमें सरकारी बजट का इतना कम हिस्सा खर्च होगा कि उसे नगण्य ही माना जाएगा।
भूमि-सुधारों को हमारे देश में अपेक्षित सफलता न मिलने का एक महत्वपूर्ण कारण यह रहा है कि जब भूमिहीन अपने हकों की आवाज उठाते हैं तो उन पर बड़े भूस्वामी वर्ग के साथ-साथ पुलिस-प्रशासन का रवैया भी प्रायः दमन-उत्पीड़न का ही रहता है। सरकार को इस बारे में राष्ट्रीय स्तर पर कड़े निर्देश जारी करने चाहिए कि भूमि सुधारों संबंधी या इससे मिलती-जुलती मांगों के लिए जो भी संगठन प्रयास या आंदोलन होते हैं, उनके प्रति दमन की नहीं अपितु प्रोत्साहन की नीति अपनानी चाहिए। क्योंकि जब तक भूमिहीनों या नई भूमि प्राप्त करने वाले परिवारों के मजबूत संगठन नहीं बनेंगे तब तक भूमि सुधार सफल नहीं होगा। आज स्थिति यह है कि वर्षों से पट्टा प्राप्त अनेक तथाकथित लाभार्थियों को भी अभी तक भूमि पर वास्तविक कब्जा नहीं मिल पाया है व वे भूमि नहीं जोत सके हैं। इस बारे में राष्ट्रीय स्तर पर अभियान चलना चाहिए कि पट्टा प्राप्त करने वाले परिवारों को वास्तविक कब्जा मिल सके व वे इस भूमि को जोत सकें।
सरकार के पास ऐसी रिपोर्टों व अध्ययनों की कमी नहीं है जो विस्तार से बताएं कि भूमि सुधार कानूनों व उन्हें क्रियान्वयन में कहां कमी रह गई। लाल बहादुर शास्त्री अकादमी, मसूरी में इस मुद्दे पर अच्छा अनुसंधान हुआ व कई सरकारी अधिकारियों ने भूमि सुधार को बेहतर करने व सब भूमिहीन (या लगभग भूमिहीन) परिवारों को कुछ भूमि उपलब्ध करवाने की राह बताई। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना तैयार करते समय भूमि संबंधों पर जो वर्किंग ग्रुप स्थापित किया गया था व उसकी रिपोर्ट में भी कई महत्वपूर्ण सुझाव हैं।
केन्द्रीय सरकार ग्रामीण व कृषि विकास की ऐसी महत्वपूर्ण स्कीमें शुरू कर सकती है जिनके अंतर्गत काफी बड़ी विकास राशि उपलब्ध हो, पर यह पूरी तरह भूमिहीनों में भूमि वितरण से जुड़ी हो। जिन राज्यों में भूमि वितरण का लाभ अधिक भूमिहीनों तक पंहुचा है, वहां इन नए किसानों की सफल खेती के लिए लघु सिंचाई, जल व मिट्टी संरक्षण, भूमि समतलीकरण आदि के लिए सहायता उदारता से उपलब्ध करवानी चाहिए। जो राज्य सरकार जितने अधिक भूमिहीनों को भूमि वितरण करेगी, उसे उतनी ही अधिक सहायता राशि मिलेगी। दूसरी ओर जो सरकारें इन मामलों में उदासीन हैं उन्हें इस सहायता के लाभ से वंचित रखा जाएगा। (सप्रेस)