ऐसी क्या जल्दबाजी थी रावत जी

उमेश चतुर्वेदी
न्यायिक प्रक्रिया का तकाजा है कि अगर जब तक न्याय की गुंजाइश है, दोनों पक्षों को उसका इंतजार करना चाहिए। अगर मामला राजनीति से जुड़ा हो तो उससे इस इंतजार की उम्मीद कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है। आम जनता से सीधे जुड़ी होने की वजह से राजनीति से मर्यादाओं की अपेक्षा ज्यादा ही की जाती है। लेकिन उत्तराखंड में हरीश रावत ने इसका ध्यान नहीं रखा।
 
हाईकोर्ट ने राज्य में राष्ट्रपति शासन को खारिज किया तो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही और उसके आदेशों की प्रतीक्षा नहीं की और आनन-फानन में गुरुवार को अपनी कैबिनेट की ना सिर्फ बैठक बुला ली, बल्कि आनन-फानन में 11 फैसले ले लिए। कैबिनेट चाहे किसी राज्य की हो या फिर केंद्र की, वह हर फैसले जनहित में ही लेती है। इसलिए हरीश रावत अपने फैसले के लिए जनहित का तर्क देने से नहीं बच सकते। क्योंकि उनके फैसले लागू करने की प्रक्रिया शुरू होती कि राज्य में राष्ट्रपति शासन को 27 अप्रैल तक के लिए सुप्रीम कोर्ट ने ना सिर्फ बढ़ा दिया है, बल्कि हाईकोर्ट के आदेश पर रोक भी लगा दी है। 
 
हरीश रावत की इस जल्दीबाजी पर सियासी सवाल उठने लगे हैं। अगर केंद्र सरकार हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती नहीं भी देती तो हरीश रावत की सरकार तभी बहाल होती, जब वह राज्य में राष्ट्रपति शासन हटाने की अधिसूचना जारी करती।
 
संविधान और कानून के जानकारों के मुताबिक हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद राष्ट्रपति शासन तब तक प्रभावी माना जाएगा, जब तक कि केंद्र सरकार अधिसूचना के जरिए इसे हटा न दे। हरीश रावत कोई नौसिखिए राजनेता नहीं हैं। केंद्र सरकार में भी मंत्री रह चुके हैं और लंबे अरसे तक वे सांसद भी रहे हैं। इसलिए यह मान लेना कि उन्होंने कैबिनेट की बैठक नासमझी में बुलाई, सही नहीं होगा।
 
शीर्ष स्तर पर भाजपा और कांग्रेस के नेतृत्व में जिस तरह के रिश्ते हैं और दोनों में जिस तरह की खींचतान लगातार जारी है, उससे माना जा सकता है कि रावत ने कैबिनेट की बैठक बुलाने से पहले अपने केंद्रीय नेतृत्व से सलाह जरूर ली होगी। अगर ऐसा है तो माना जा सकता है कि कांग्रेस नेतृत्व ने भाजपा और केंद्र सरकार को कम से कम अपने फैसले से जनता की अदालत में नई पटखनी देने की कोशिश में कैबिनेट की बैठक बुलाई हो।
 
चूंकि इस बैठक में पेयजल और दूसरे मामलों पर फैसले लिए गए हैं। चूंकि राज्य में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को कम से कम 27 अप्रैल तक के लिए बढ़ा दिया है, लिहाजा हरीश रावत कैबिनेट के फैसले खुद-ब-खुद अवैध हो गए। वैसे राज्यपाल केके पाल ने भी रावत की जल्दबाजी पर सवाल उठाया था। हालांकि रावत ने इसे दरकिनार कर दिया था।
 
जाहिर है कि रावत कैबिनेट के फैसलों को अब राज्य की नौकरशाही देखना भी पसंद नहीं करेगी। जाहिर है कि देर-सवेर इसे कांग्रेस मुद्दा भी बनाएगी। चूंकि राज्य के अगले विधानसभा चुनावों में महज एक साल का ही वक्त बाकी रह गया है। लिहाजा कांग्रेस इन फैसलों को रोकने को भी बाद में जनविरोधी बता सकती है। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी रावत पर सत्ता से चिपकने का आरोप लगा सकती है। तब सवाल यह है कि रावत की जल्दबाजी के लिए कांग्रेस क्या जवाब देगी। 
 
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