स्त्री.....एक देह,एक आत्मा, एक साथी.... पुरुष भी वही....इस धरा पर दो प्राणी साथ ही आए...उसे नर-मादा कहो या आदम और हव्वा....या फिर मनु और शतरूपा... लेकिन इनके जन्म के साथ ही कुछ नियम कुछ तरीके, कुछ सलीके साथ ही बंध गए कुछ देश, काल परिस्थिति में बदले और कुछ आज भी कायम है...
इतने युग बीत गए पर आज भी स्त्री क्या करती है, कैसे करती है,क्यों करती है,क्यों नहीं करती है उस पर एक अदृश्य सा पहरा है...मानों ड्रोन मंडरा रहे हैं चारों तरफ..... कब करना है,कितना करना है..हम जब कहें, जितना कहे उतना करना है....
हिज़ाब विवाद के संदर्भ में एक सवाल बार बार मेरे ज़हन में आ रहा है कि इस वक़्त सबसे जरूरी क्या है? एक स्त्री, एक स्वतंत्र स्त्री, उसका विकास, उसका रक्षण, उसका जीवन,उसकी इच्छाएं, उसके सपने??? या एक स्त्री के परिधान, उसका धर्म यह जरूरी है या फिर एक स्त्री की शिक्षा वह ज्यादा जरूरी है....???
वह कुछ पहनें, कुछ भी माने, कुछ भी कहे पर शिक्षा के मार्ग पर उसके चरण बढ़ते रहे.....लेकिन हो क्या रहा है शिक्षा और उससे मिले सबक सबसे पीछे हैं... स्त्री बहुत बहुत पीछे हैं, आगे है उसके पहने कपड़े, उसके द्वारा निभाए जाने वाला धर्म....
और उसे जज करने वाले कौन हैं? पुरुष(?), धर्म के रक्षक(?), समाज(?)....
फिर से सोचें....क्या इस समय इन सबसे ज्यादा जरूरी है नारे, उसके बदले में लगे नारे, चुनाव, चुनाव के साथ उठते मुद्दे और फिर स्त्री तो है ही इन सबके केंद्र में....
सवाल यह भी है कि अगर हिज़ाब ही पहनना हमारी प्राथमिकता है तो फिर समानता के नारे क्यों? एक अनुशासन, एक नियम,एकरूपता क्यों नहीं?? हिज़ाब हो या घूंघट,पर्दा हो या पल्लू... अगर यही धर्म और संस्कृति के वाहक हैं तो शिक्षा के साथ इनके कदमताल कैसे सम्भव है उसके रास्ते निकाले जाएं....
एक स्वतंत्र स्त्री अगर परिधान के मामले में स्वतंत्र होना चाहती है तो उसे धर्म और विचारों से भी स्वतंत्र होना चाहिए और होने के साथ उसे दिखना भी चाहिए कि वह सहज़ रूप से स्वतंत्र है....वह अपने आपको किसी भी कथित नियमों में बांधती है तो वह भी गलत है और अगर वह मान रही है और तथाकथित दूसरे नियम बनाने वाले उस पर सवाल उठाते हैं तो वह भी गलत है.... एक बार फिर से सोचें जरूरी क्या है एक स्त्री का सहज होना, रहना , उसकी शिक्षा या फिर उसकी देह पर धारण किए परिधान.....
वैसे एक बहुत बड़ी संख्या उन महिलाओं की भी है जो हिज़ाब से मुक्ति चाहती हैं....उनका दम घुटता है.... परेशानी होती है...गर्मियों में दिक्कत आती है काम करने में....एक खिलाफ अभियान चला भी था और अब हिज़ाब के समर्थन में तर्क-वितर्क और कुतर्क रखे जा रहे हैं.....सब कुछ सुनियोजित है कहीं और से.... स्त्री की इच्छा कहाँ शामिल है?
मेरे विचार से पूरी शिक्षा ले लेने दीजिए.....क्या और कब पहनना है वह खुद तय कर लेगी....