मजबूरी की शांतिवार्ता!

विभूति शर्मा
फिजां में एक बार फिर पाकिस्तान के साथ शांतिवार्ता के स्वर गूंजने लगे हैं। दो माह पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रूस यात्रा के दौरान पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मुलाकात, फिर दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैंकॉक में चर्चा और अब विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की पाकिस्तान यात्रा के बाद संसद के हाल में संपन्न शीतकालीन सत्र में दिए बयान से यह स्पष्ट हो गया है कि भारत एक बार फिर शांतिवार्ता के लिए तैयार हो गया है।

 
सुषमा ने कहा कि आतंकवाद से निबटने के लिए युद्ध एकलौता विकल्प नहीं है। पड़ोसी देश के साथ बातचीत के जरिये रास्ता निकाला जा सकता है। हमने पाकिस्तान के साथ बातचीत शुरू करके इस समस्या को सुलझाने की नई पहल की है। हम चाहते हैं कि बातचीत से ही रास्ता निकले और देश से आतंकवाद का साया हट जाए।
 
अब सवाल यह उठता है की नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने से लेकर अब तक माहौल में ऐसा क्या बदलाव आया है कि सरकार को पाकिस्तान के साथ बातचीत की टेबल पर लौटना पड़ रहा है। भारत का एक शीश कटने के जवाब में दुशमन के दस शीश काटने का दवा करने वाले मोदी को क्यों नरम रुख अपनाना पड़ रहा है? जवाब साफ है कि अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे मोदी नतमस्तक होने को मजबूर हो रहे हैं। दुनिया के दौरे के दौरान भले ही उन्होंने मोदी-मोदी के नारे लगवा लिए हों, लेकिन पाकिस्तान के मोर्चे पर वे भी पूर्ववर्ती सरकारों के समान ही चलने को मजबूर हैं।
 
पाकिस्तान के साथ बातचीत को अटलबिहारी सरकार ने जिस मुहाने पर छोड़ा था, मोदी सरकार यदि वहीं से आगे बढ़ती तो उन्हें देश का भी समर्थन हासिल होता। जनवरी 2004 में अटल सरकार बातचीत से यह कहते हुए हटी थी कि आतंकवाद और बातचीत साथ नहीं चल सकते। मुशर्रफ के साथ आगरा वार्ता के बाद जारी दस्तावेज में इसका स्पष्ट उल्लेख किया गया था। 
 
इस दस्तावेज के पूर्व अटलजी बस से लाहौर गए, जिसका जवाब कारगिल हमले के रूप में मिला। आगरा शिखर वार्ता के बाद संसद पर हमला हुआ और वार्ता के दरवाजे भारत ने बंद कर लिए। इसके बाद 2008 का मुंबई हमला हुआ और हमें वार्ता के बंद दरवाजों पर ताला डालना पड़ गया। अब फिर वह ताला खोलने की पहल हुई है।
 
इतिहास गवाह है की भारत ने जब-जब बातचीत के बंद दरवाजे खोले हैं सामने दैत्याकार में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद को सामने खड़ा पाया है। पहले पंजाब में खालिस्तान समर्थकों को पाक मदद मिल रही थी तो अब जम्मू-कश्मीर में आतंक को वह खुला समर्थन दे रहा है। सीनाजोरी देखिए, जब भी भारत के साथ बातचीत का रास्ता खुलने की सुगबुगाहट होती है पाकिस्तान पहले कश्मीर के अलगाववादियों से बात करता है।
 
मोदी सरकार के शुरूआती दिनों में भी ऐसा ही हुआ। शुक्र है तब सरकार ने इसके विरोध में वार्ता ठप कर दी। इसके पूर्व तक हुर्रियत नेताओं के साथ पाक दूतावास की बातचीत को अनदेखा किया जाता रहा था। हालांकि यह तो एक नगण्य पहलू है। मुख्य सवाल तो यही है की अभी वार्ता क्यों? क्या पाकिस्तान हमें दाऊद या हाफिज सईद को सौंपने पर सहमत हो गया है या मुंबई हमलों के पाकिस्तान में छिपे दोषियों को अंजाम तक पहुंचा दिया गया है? या फिर पाकिस्तान की आतंकगाहों को मिटाने की भारत को इजाजत मिल गई है? जब ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है तो हम क्यों वार्ता की टेबल पर लौटने को तैयार हो रहे हैं?
 
देश के जनमानस के सामने अमेरिका और फ्रांस की नजीर है। अमेरिका ने 9/11 के हमले का बदला पाकिस्तान में घुसकर ओसामा को मारकर लिया तो हाल में फ्रांस ने पेरिस में आईएसआईएस के हमले का मुंहतोड़ जवाब सीरिया में उसके ठिकानों पर भारी बमबारी करके दिया। इस बमबारी में दूसरे यूरोपीय देश उसका साथ दे रहे हैं। अगर ये देश आतंकवाद का इस तरह मुंहतोड़ जवाब दे सकते हैं तो हम क्यों नहीं! जनमानस में यह सवाल तभी से खदबदा रहा है जब से हमारी धरती पर आतंकवाद ने पैर पसारने शुरू किए थे।
 
हर आतंकवादी हमले के बाद भारत की सरकारें कहती हम मुंहतोड़ जवाब देंगे और आतंकवाद के साथ बातचीत नहीं चल सकती, लेकिन समय के साथ मुद्दा ठंडा पड़ता और सरकार बातचीत की राह पर चल पड़ती। इसका एक ही मतलब निकाला जा सकता है कि या तो हमारी विदेश नीति में कोई खामी है या फिर हम भीरु हैं। अगर विदेश नीति नरम रुख अपनाने पर मजबूर करती है, तो अब वक्त आ गया है कि कीहम इसमें बदलाव लाएं और वक्त के अनुसार चलने के बिंदु डालें।
 
वर्तमान युग गांधी की नीतियों के अनुसार चलने का नहीं है कि दूसरा गाल आगे करें। यह युग मुंहतोड़ जवाब देने का है, जैसा कि अमेरिका और फ्रांस जैसे देश कर रहे हैं। 
 
जहां तक भीरु होने का सवाल है तो कोई भी भारतीय यह कहलाना बर्दाश्त नहीं करेगा। हर भारतीय चाहता है की मोदी ने जिन जोशीले भाषणों के दम पर सत्ता हासिल की थी, उन्हीं की राह पर चलते हुए पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों के साथ व्यवहार करें। युद्ध को भारतीय जनता भी अंतिम विकल्प ही मानती है, लेकिन पाकिस्तान के साथ बातचीत के पूर्व आतंकवाद को नेस्तनाबूत होते देखना चाहती है। 
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