भारत का स्वाधीनता संग्राम और उसका परिणाम अनेक अर्थों में असाधारण है। विश्व में अनेक ऐसे राष्ट्र हैं जिनकी जनता ने देशी अथवा विदेशी क्रूर शासकों के उत्पीड़न से मुक्ति पाने के लिए जनविप्लव किया। इतिहास की जितनी प्रसिद्ध क्रांतियां हैं वे सभी रक्तरंजित और हिंसक रही हैं। कहीं हजारों तो कहीं लाखों लोग इन क्रांतियों की बलि चढ़ गए। अमेरिका की ब्रिटिश शासन के विरुद्ध और फ्रांस की जनता द्वारा राजशाही के विरुद्ध क्रांतियां सर्वाधिक चर्चित क्रांतियों में गिनी जाती हैं क्योंकि माना जाता है कि इन क्रांतियों ने आधुनिक युग के प्रजातंत्र की नींव रखी थी।
अठारहवीं शताब्दी की अमेरिकी क्रांति में लगभग 25 हजार सैनिक मारे गए थे और इतने ही घायल हुए थे। इसी के तुरंत बाद हुई फ़्रांस की क्रांति में चालीस हज़ार लोगों की बर्बर हत्या होने की बात है। यदि हम वर्तमान सदी में अरब देशों में हुई अधिनायकों एवं तानाशाहों के विरुद्ध क्रांतियों पर नज़र डालें तो पाएंगे कि अब तक लाखों लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। लाखों लोग बेघर हो चुके हैं। इसके पश्चात् भी इस विभीषिका का अभी तक कोई अंत नज़र नहीं आ रहा है। सीरिया, लीबिया तथा यमन जैसे देश आज भी जल रहे हैं।
अब यदि पिछली सदी की प्रसिद्ध क्रांतियों की बात करें तो चीन में माओ की क्रांति में 80 लाख से अधिक लोग मारे गए थे और उसी तरह रूस में लेनिन के नेतृत्व में हुई अक्टूबर क्रांति में लाखों लोग खप गए थे। जिन अन्य क्रांतियों ने इतिहास में अपना स्थान बनाया, उनमें मेक्सिको, क्यूबा, ताइवान इत्यादि की हिंसक क्रांतियां प्रमुख हैं। भारत का सौभाग्य रहा कि उसके स्वाधीनता संग्राम को उपरोक्त हिंसक क्रांतियों में स्थान नहीं मिला जिन देशों में हज़ारों से लाखों लोगों ने आहुति देकर अपनी स्वतंत्रता अर्जित की।
इसलिए यदि 20वीं सदी के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अनूठेपन को समझना है तो हमें देखना होगा कि अन्य देशों में इतने उग्र विप्लवों के बाद जनता ने परिणाम में क्या खोया और क्या पाया। कुछ क्रांतियों को छोड़ दें तो विप्लव के पश्चात् विकल्प के अभाव में पूरे के पूरे राष्ट्र बर्बाद हो गए। लीबिया, सीरिया, यमन जैसे राष्ट्र उनमें प्रमुख हैं। अधिकांश राष्ट्रों को एक निरंकुश शासन से निजात मिली तो बदले में आतताई शासक मिला। क्यूबा के ग़दर में फिदेल कास्त्रो का प्रादुर्भाव हुआ जो क्रांति के पश्चात् अधिनायक बन बैठा। माओ त्से तुंग की क्रांति से क्रूर शासन तो चला गया किंतु परिणाम में जनता को मिला कठोर वामपंथ जिसमें निर्मम हत्याएं जारी रहीं। लेनिन ने रूस को क्रांति के पश्चात् एक पार्टी तंत्र में बदल दिया। भारत का यह दूसरा बड़ा सौभाग्य था कि अहिंसक संग्राम के बाद भारत को नेक तथा विवेकशील जननायक मिले, जिन्होंने देश को सही दिशा दी।
जब कोई सशक्त विचार उठता है तो उसके अनुसरण करने वाले भी शीघ्र मिल जाते हैं और जन-विप्लव हो जाता है। वैचारिक क्रांतियों का जीवन बहुत अधिक नहीं होता, यदि विचारों के प्रवाह को बांध दिया गया हो। माओ का वामपंथ हो या लेनिन का साम्यवाद, शनै शनै ये पंथ अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे हैं क्योंकि ये वाद अपनी पुस्तकों से बंधे हुए हैं। नक्सलवाद भी वैचारिक क्रांति का परिणाम है।
भारत में अरविन्द केजरीवाल का प्रादुर्भाव एक सशक्त विचार की वजह से हुआ। जनता को भ्रांति हुई कि शायद विकल्प मिला। किंतु विकल्प में गहराई नहीं होने से जनता का यह प्रयोग कितना आगे बढ़ पाएगा देखने वाली बात होगी। वैचारिक स्वतंत्रता मनुष्य का मौलिक अधिकार है, किंतु इसका दायरा क्या होना चाहिए? विश्व में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हैं। नक्सलवाद, माओवाद जैसी विचारधाराएं सशक्त तो थीं ही इसीलिए तो उन्हें इतना समर्थन मिला, किंतु आधुनिक युग में उनके औचित्य पर प्रश्न चिन्ह लग रहे हैं।
तो अब यह सोचने वाली बात है कि भारतवर्ष में ऐसा अनूठा क्या था, जिससे क्रांति अहिंसक हो गर्इ? परिणाम भी यथेष्ट निकले। नेतृत्व भी विवेकशील मिला, जिसने देश को नाजुक मोड़ पर सही नेतृत्व दिया। लेखक का मानना है कि सौभाग्य से भारत बौद्धिक क्रांतियों का देश है, वैचारिक क्रांतियों का देश नहीं। वाम पंथ, दक्षिण पंथ, माओवाद, लेनिनवाद, पूंजीवाद, नक्सलवाद, समाजवाद आदि विदेशों की देन है। यह पवित्र धरा अनेक पैगम्बर, ऋषियों और मनीषियों की जन्मभूमि है जिन्होंने निरंतर बौद्धिक क्रांति की और बोध को प्राप्त हुए। विचार स्वस्थ एवं अस्वस्थ दोनों हो सकते हैं किंतु बोध ही परम सत्य होता है।
विचार विभिन्न मार्गों का विकल्प दे सकते हैं किंतुबोध सही मार्ग की पहचान करवाता है। इसलिए वैचारिक क्रांति का जीवनकाल लघु होता है, बौद्धिक क्रांति शाश्वत होती है। स्वतंत्रता के बाद हमारे पास अनेक विकल्प उपलब्ध थे किंतु सदियों से अर्जित देश के बोध ने राष्ट्र को सही मार्ग चुनने में मदद की। स्वतंत्रता संग्राम की हमारी यही उपलब्धि रही। इस स्वतंत्रता दिवस पर आज हम यही विश्वास करें कि यह देश बौद्धिक क्रांतियों का देश बना रहेगा और हमारे विचारों का दायरा हमारे युग युगीन बोध की सीमाओं का उल्लंघन नहीं करेगा। वर्तमान परिस्थितियां तो यही सुखद संकेत देती हैं। इसी विश्वास के साथ सभी पाठकों को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं।