कहर की घड़ी में...

Webdunia
शनिवार, 13 सितम्बर 2014 (13:55 IST)
-सतीश डोगरा
 
2004 में जब इंडोनेशिया में भूकम्प के बाद एशियाई सुनामी ने भारत के पूर्वी तट को ध्वस्त किया था, तब मैं तमिलनाडु में अग्निशमन विभाग का निदेशक था। मरीना बीच मेरे घर से लगभग एक फर्लांग की दूरी पर है। सुबह 6 बजे आए भूकम्प के धीमे झटकों को भूलकर ऑफिस के लिए तैयार होने की फिराक में था तभी घर के बाहर शोर सुनाई दिया। बालकनी से झांका तो लोग घबराहट में सड़क पर मरीना बीच के उलटी ओर भागते दिखाई दिए। बाहर जाकर उनसे उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि समुद्र धरती की ओर बढ़ रहा है। एक ही क्षण में सुनामी के बारे में पढ़े लेख आंखों के सामने तैर गए और मैं जान गया कि अब मेरे और मेरे विभाग के लिए गहन परीक्षा की घड़ी है। 
कुछ ही मिनटों में मरीना बीच पर शुरू हुआ मेरा और मेरे सहकर्मियों का वह बचाव कार्य कई दिनों तक लगातार चलता रहा। आज कश्मीर में बाढ़ के कहर की खबरें पढ़कर, वीडियो देखकर और सेनाकर्मियों को बचाव कार्य में संलग्न देखकर अपने उन दिनों के अनुभव के आधार पर यह सब कितना कठिन है, इसे समझ पाता हूं।
 
निराशा में आशा : मनुष्य जीवन की एक विशेषता है कि इसमें निराशाजनक स्थितियों में भी आशा के बीज छुपे रहते हैं। केवल उन्हें ढूंढकर अंकुरित करने-मात्र की आवश्यकता होती है। 
 
प्राकृतिक आपदाओं और उनसे जूझने की विधियों पर विवाद करते समय 2001 के गुजरात के भूकम्प का जिक्र अक्सर आता है। भूकम्प से ध्वस्त गुजरात को पुनर्निर्मित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले एक अधिकारी ने एक बार मुझे बताया कि भूकम्प के बाद तब के गुजरात के मुख्यमंत्री और आज के प्रधानमंत्री मोदीजी कहते थे कि 'ध्वस्त गुजरात का पुनर्निर्माण हमें एक आधुनिक गुजरात बनाने का अवसर प्रदान कर रहा है। आइए पुराने गुजरात के खंडहर पर एक नया गुजरात बनाएं'। आज सौभाग्यवश वही मोदीजी देश के प्रधानमंत्री हैं। कश्मीर की निराशा को आशा में परिवर्तित करने का अवसर देश का द्वार खटखटा रहा है।
 
सद्भावना स्रोत : 1984 में मैं तमिलनाडु के जिस जिले में काम करता था उसके तटवर्तीय इलाके में साइक्लोन के कारण बाढ़ आने की-सी स्थिति बनी। एक गांव में से लोगों को विस्थापित कर सुरक्षित स्थान पर ले जाने की आवश्यकता पड़ी। पड़ोस में एक गांव था जिनके साथ इस गांव वालों की तनातनी चलती थी। हमें लगा, दोनों गांवों के बीच सद्भावना बनाने का यह अच्छा अवसर है इसलिए विस्थापित लोगों को बाढ़ समाप्त होने तक उस गांव में ठहराने का निर्णय किया गया। विपत्ति के क्षण में की हुई उस सहायता ने दोनों गांवों के बीच की दूरियों को निकटता और प्रेम में बदल दिया। 
 
आज बिलकुल वैसी ही स्थिति कश्मीर की वादी में बनी हुई है। सेना के जवान जान जोखिम में डालकर लोगों को बाढ़ की चपेट में से बाहर निकाल रहे हैं। ऐसे में मोदीजी का 'देश के सवा करोड़ देशवासियों का नारा' याद आता है। टीवी के नवयुवक रिपोर्टरों ने कश्मीर में फंसे लोगों की समस्याओं को हमारी सब देशवासियों की भावनाओं का भाग बनाकर ऐसे तार जोड़े हैं, जो देश की एकता और अखंडता में अचूका योगदान देंगे।
 
दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि ऐसे में कुछ लोग मन को आहत करने वाली कुछ टिप्पणियां भी कर देते हैं। यह अत्यधिक दुर्भाग्यपूर्ण है। हमारे ऐसा करने से जान का जोखिम लेकर कश्मीर के लोगों का बचाव करने वाले सैनिकों द्वारा किए गए सद्भावना-कार्य पर पानी फिरता है। 
 
जिन सैनिकों ने बरसों से सीने पर गोली का प्रहार सहकर, उग्रवाद के विरुद्ध चल रहे युद्ध में अपने साथियों की आहुति देने के बाद भी उन सब बातों को एक ही क्षण में मन से दूर कर कश्मीरियों को केवल अपना देशवासी जानकर उनके बचाव के लिए अपने प्राण ताक पर लगाए हैं, क्या पिछले वर्षों में पाकिस्तानी घुसपैठियों से प्रेरित कुछ एक दिग्भ्रमित नवयुवकों के कार्यकलापों से उत्पन्न मन का क्षोभ घर की सुरक्षा में बैठे हम लोगों के लिए उन सैनिकों से अधिक है? 
भारतमाता के इन सपूतों ने उस कटु इतिहास को एक ही क्षण में मन से निकाल दिया और बचाव कार्य में जुट गए। हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी बेकार टिप्पणियों से उनके इस कार्य की गरिमा को न घटाएं।
 
पीटीएसडी : यहां एक और बात उल्लेखनीय है। किसी बड़ी विपदा से पीड़ित व्यक्ति या उसके दुख का भागीदार होने वाले व्यक्ति के एक प्रकार के मानसिक रोग का शिकार हो जाने की संभावना रहती है। इसे अंग्रेजी में Post-traumatic Stress Disorder (PTSD) कहते हैं। इस रोग से पीड़ित व्यक्ति अक्सर विषाद की मन:स्थिति में चला जाता है और कई बार आत्महत्या भी कर लेता है। सुनामी के बाद मेरे कई कर्मियों को मन:चिकित्सा की आवश्यकता पड़ी थी।
 
विपदा से लोगों को बचा निकालने में और गली-सड़ी लाशों को खींचकर निकालने में मानव-जीवन की क्षणभंगुरता व्यक्ति के मन को विचलित करती है और धीरे-धीरे यह भावना विषाद में बदल जाती है। इसी को PTSD कहते हैं। इसलिए विपदा की स्थिति में काम करने वालों को पर्याप्त आराम मिलना बहुत आवश्यक है। इसके अतिरिक्त उनके मन में भगवान पर आस्था और विश्वास बहुत आवश्यक है।
 
लेखक के बारे में : सतीश  डोगरा रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं। पंजाब में जन्मे डोगरा हिन्दी अंग्रेजी के अलावा तमिल भाषा के अच्छे जानकार हैं। वे इन सभी भाषाओं में कविताएं लिखते हैं। इन्होंने विधिवत संगीत भी सीखा है। उनकी कई रचनाएं प्रकाशित और प्रसारित हो चुकी हैं
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