लिव-इन-रिलेशन कानून बहुविवाह प्रथा का अपग्रेडेड वर्जन?

Webdunia
सोमवार, 1 दिसंबर 2014 (16:01 IST)
-सोनाली बोस
लिव-इन-रिलेशनशिप पर आए न्यायपालिका के एक अहम फैसले ने एक बार फिर से महिलाओं के हक पर विचार और चर्चा के लिए मंच आमंत्रित कर दिया है। पर ये चर्चा दुनिया की आधी आबादी के पूरे हक में है, ऐसा भी नहीं है।
 
बहुविवाह प्रथा ने हजारों-लाखों सालों तक महिलाओं का शोषण किया। अब जब महिलाएं अपने हक की लड़ाई लड़ते-लड़ते किसी मुकाम पर पहुंचीं तो एक बार फिर से महिलाओं के सभी तरह के शोषण के साथ-साथ महिलाओं की सामाजिक स्थिरता को बिगाड़ने के लिए 'लिव-इन-रिलेशनशिप' का मार्ग बहुविवाह प्रथा के पालनहारों ने खोज ही लिया है। लिव-इन-रिलेशनशिप कानून भारतीय समाज के साथ-साथ महिलाओं का कितना मानसिक और शारीरिक शोषण करेगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
 
जब दुनिया में राजशाही का बोलबाला था, तब औरतों का सबसे ज्यादा शारीरिक और मानसिक शोषण हुआ। तब राजाओं और महाराजाओं के बाकायदा बड़े-बड़े हरम और ऐशगाह होती थी और इन हरम और ऐशगाहों में महिलाओं की स्थिति कितनी दयनीय थी, ये बातें पहले से ही जगजाहिर हैं। 
 
पुरुष-प्रधान व्यवस्था ने महिलाओं के शोषण में कभी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। यह महिलाओं के शोषण का सबसे दुखद पहलू रहा होगा, जब एक महिला का शोषण भगवान के नाम पर करने की प्रथा का जन्म पुरुष-प्रधान व्यवस्था ने कर दिया।
 
इस पुरुष-प्रधान व्यवस्था ने मंदिरों में देवदासी प्रथा का चलन शुरू करके महिलाओं का सामूहिक तौर पर शोषण करने का एक नया रास्ता खोज निकाला था और इन देवदासियों की समाज में स्थिति कैसी और कितनी बदतर रही होगी, इस बात का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। देवदासी प्रथा पर भी कई बार चर्चा हो चुकी है जिसका हल आज तक नहीं निकला।
 
पुरुषवादी व्यवस्था ने अपनी सुविधा के अनुसार अपने लिए कानून बनाए और मिटाए हैं। सती प्रथा भी इसी मानसिकता का जीता-जागता उदाहरण था। पुरुषवादी व्यवस्था ने अपनी सुविधा के लिए और महिलाओं के शोषण के लिए बहुविवाह प्रथा के चलन को पहले सामाजिक तौर पर बनाए रखा और इस आधी आबादी को कभी भी विरोध करने या अपनी बात रखने का न कभी कोई हक ही दिया था न ही अपनी समस्या, परेशानी, दुःख और तकलीफ रखने के लिए कोई मंच ही दिया था। पुरुषवादी व्यवस्था ने जैसे चाहा, वैसे महिलाओं को अपने हिसाब से इस्तेमाल किया।
 
बहुविवाह एक सामाजिक बीमारी है जिसका इलाज आज 21वीं सदी में भी संभव नहीं हो पाया है जबकि कानूनी तौर पर यह भी साफ है कि दूसरी पत्नी को भारतीय संविधान में कोई जगह नहीं है और न ही कोई कानूनी मान्यता ही है। फिर भी पुरुष बहुविवाह करता है और कानून व समाज के साथ-साथ पहली पत्नी तथा पुरुष का परिवार भी मूकदर्शक का अपना रोल अदा करते रह जाते
हैं।
 
धर्म-परिवर्तन और पहली पत्नी के रहते दूसरी शादी पर भी आज नहीं तो कल सरकार के साथ न्यायपालिका तथा मजहबी व धार्मिक गुरुओं को कोई न कोई फैसला लेना ही पडेगा, क्योंकि पुरुष अपनी लालसा और अभिलाषा को पूरा करने के लिए धर्म की आड़ भी लेने से नहीं चूकता है। जबकि यह बात भी जगजाहिर है कि दोनों महिला व पुरुष धर्म-परिवर्तन करके शादी तो कर लेते हैं, पर जिस धर्म की आड़ में इस कुप्रथा का पालन करते हैं उस धर्म को कभी नहीं अपनाते हैं, न ही उसका पालन करते हैं। सिर्फ और सिर्फ, धर्म का सहारा दूसरी शादी करने के लिए लिया जाता रहा है।
 
दूसरी शादी या बहूविवाह प्रथा पर फिर से समाज के साथ-साथ महिलाओं और न्यायपालिका को पुनर्विचार करने की जरूरत है। लिव-इन-रिलेशन पर न्यायपालिका को कोई न कोई ऐसा कदम उठाना चाहिए जिससे कम से कम यह सुनिश्चित हो जाए कि लिव-इन-रिलेशन में रहने वाला पुरुष या महिला पहले से विवाहित न हों और दोनों में से किसी के बच्चे तो कदापि न हों। दूसरी शादी और धर्म-परिवर्तन पर भी न्यायपालिका, समाज, मजहबी और धर्मगुरुओं को कोई न कोई सख्त कदम उठाना चाहिए।
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