आर्थिक समृद्धि के साथ बढ़ रही है कचरे से निकली मीथेन

उमाशंकर मिश्र
नई दिल्ली। जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण और आर्थिक विकास के साथ-साथ शहरों से निकलने वाले कचरे में भी बढ़ोतरी हो रही है। सही प्रबंधन नहीं होने से इस कचरे को सीधे लैंडफिल (कचरा भराव क्षेत्र) में फेंक दिया जाता है, जहां से उत्सर्जित होने वाली मीथेन गैस मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा बनकर उभर रही है।
 
भारतीय अध्ययनकर्ताओं ने पाया है कि कचरे का बेहतर प्रबंधन करके भराव क्षेत्रों से निकलने वाली मीथेन गैस का उपयोग हरित ऊर्जा का उत्पादन करने में हो सकता है जिससे पर्यावरण को ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव से बचाने में मदद मिल सकती है।
 
अध्ययन में शामिल नई दिल्ली स्थित टेरी स्कूल ऑफ एडवांस्ड स्टडीज के शोधकर्ता डॉ. चन्द्र कुमार सिंह ने 'इंडिया साइंस वायर' को बताया कि कचरा भराव क्षेत्रों से निकलने वाली ज्यादातर गैसों में बायोगैस के रूप में उपयोग किए जाने की क्षमता है, जो हरित एवं स्वच्छ ऊर्जा का बेहतर विकल्प बन सकती हैं।
 
अनुमान है कि कचरा भराव क्षेत्रों से निकली महज 20-25 प्रतिशत गैसें एकत्रित हो पाती हैं जबकि शेष वातावरण में विलीन हो जाती हैं। अगर व्यवस्थित रूप से डिजाइन किए गए नियंत्रित लैंडफिल बनाए जाएं तो 30-60 प्रतिशत गैसों का उपयोग किया जा सकता है। इस तरह प्राप्त गैसें ऊर्जा का सीधा स्रोत बन सकती हैं। इनका उपयोग बिजली उत्पादन और वाहनों के ईंधन के रूप में भी किया जा सकता है।
 
अध्ययनकर्ताओं ने पाया है कि भारत के कचरा भराव क्षेत्रों से मीथेन गैस का उत्सर्जन वर्ष 1999 में 404 गीगाग्राम था, जो वर्ष 2011 और वर्ष 2015 में बढ़कर क्रमश: 990 एवं 1,084 गीगाग्राम हो गया। 1 गीगाग्राम लगभग 1,000 टन के बराबर होता है। 
अध्ययन में अधिक जीडीपी वाले राज्यों में कचरे से उत्सर्जित होने वाली मीथेन गैस की मात्रा भी सबसे अधिक आंकी गई है।
 
महाराष्ट्र में वर्ष 1999-2000 में 70 गीगाग्राम मीथेन उत्सर्जित हो रही थी, जो वर्ष 2015 में बढ़कर 208 गीगाग्राम हो गई। उत्तरप्रदेश में 46 गीगाग्राम मीथेन वर्ष 1999 में कचरे से उत्सर्जित हुई, जो 2015 में बढ़कर 148 गीगाग्राम हो गई। इसी तरह 15 साल पूर्व तमिलनाडु में 41 गीगाग्राम और आंध्रप्रदेश में 34 गीगाग्राम मीथेन का उत्सर्जन कचरा भराव क्षेत्रों से हो रहा था, जो वर्ष 2015 में बढ़कर क्रमशः 112 गीगाग्राम, 89 गीगाग्राम हो गया।
 
भारत में कचरे का प्रबंधन उसे भराव क्षेत्रों में फेंक देने तक ही सीमित है। इससे वातावरण में मानवजनित मीथेन गैस का उत्सर्जन सबसे अधिक होता है। मीथेन ग्रीनहाउस गैसों का एक प्रमुख घटक है, जो 100 वर्षों के कालखंड में कार्बन डाई ऑक्साइड की अपेक्षा वैश्विक ताप को प्रभावित करने की 28 गुना अधिक क्षमता रखती है। कचरे का उचित प्रबंधन करें तो मीथेन गैस कई शहरों को रोशन करने का जरिया बन सकती है।
 
अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि शहरी अपशिष्टों में उच्च ऊष्मीय स्तर वाले जैव-अपघटित कचरे की मात्रा अधिक होती है जिसका उपयोग वर्मी-कम्पोस्ट तैयार करने और ऊर्जा उत्पादन में कर सकते हैं और इस तरह ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है।
 
शहरी कचरे के उचित प्रबंधन एवं इसके उपयोग को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2001 में शहरी कचरे से जुड़े कानून में बदलाव कर वर्ष 2016 में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के अंतर्गत एक नया कानून बनाया गया है। यह कानून जन-जागरूकता के प्रसार और उपयुक्त तकनीकों के उपयोग को सुनिश्चित करने में मददगार हो सकता है। अध्ययनकर्ताओं की टीम में डॉ. चन्द्र कुमार सिंह के अलावा आनंद कुमार और सौमेंदु शेखर शामिल थे। यह अध्ययन हाल में शोध पत्रिका 'साइंटिफिक रिपोर्ट्स' में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)
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