उग्रवादियों की हठधर्मिता से उदारवादी पसोपेश में

शरद सिंगी
किसी भी देश, समाज, सभ्यता या धर्म को नुकसान सबसे अधिक कोई पहुंचा सकता है तो वे उसके अपने ही बाशिंदे, अपने ही सदस्य और उसके अपने ही अनुयायी होते हैं, जो बहुमत से जुदा अपनी एक पृथक विचारधारा को लेकर चलते हैं। समस्या यह है कि इनकी मान्यताएं इतनी तीव्र एवं चरमपंथी होती हैं कि उनमें फिर किन्हीं अन्य मान्यताओं को समायोजित करने की क्षमता ही नहीं होती। 
 
विश्व में इस्लाम इस समय इसी अंतरद्वंद्व के दौर से गुजर रहा है। उसके अतिवादी अनुयायी ही उस पर प्रहार कर रहे हैं। शांतिप्रिय और उदारवादी अनुयायी बहुमत में होने के बावजूद उनकी आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह दब गई है। आप कितनी ही दलीलें दें कि इस्लामिक कट्टरपंथियों को अमेरिका ने खड़ा किया है, अरब देशों ने पोषित किया है, ईरान ने हथियारों की आपूर्ति की है... इत्यादि-इत्यादि किंतु कोई जबरदस्ती न तो आपको किसी के विरुद्ध खड़ा कर सकता और न ही कोई हाथों में हथियार थमा सकता है। 
 
कुछ देशों ने भले ही अपने हितों के लिए कुछ समय तक इनका इस्तेमाल किया हो किंतु इनका वित्तपोषण तो जनता ही करती है, जो आतंकियों से डरती है और सार्वजनिक तौर पर इनकी भर्त्सना नहीं कर पाती है। पाकिस्तान में इस्लाम के नाम पर चंदा देने वाले परोक्ष रूप से इन्हीं आतंकियों को ही पोषित कर रहे हैं। 
 
धर्मनिरपेक्ष यूरोप में धर्म और जाति को देखे बिना सदियों से शरणार्थियों को शरण दी जाती रही है किंतु यूरोप में हो रहे निरंतर आतंकी हमलों से यूरोप का नागरिक सुधारवादी और नरमपंथी मुसलमानों को भी अब संदेह की दृष्टि से देखने लगा है, क्योंकि कट्टरपंथियों के विरोध दबे स्वर में करने के कारण उदारवादी मुसलमान अपनी पहचान को कट्टरपंथियों से अलग नहीं कर पाए हैं। 
 
यही वजह है कि यूरोप में दक्षिणपंथ और राष्ट्रवाद तेजी से अपने पैर पसार रहा है, जो अब किसी अन्य देश के नागरिकों या मुस्लिम धर्म के अनुयायियों को अब यूरोप में बसाने को तैयार नहीं है। यूरोप में राष्ट्रवादियों का उभरना इस्लामिक सुधारवादियों के लिए चुनौती है। सुधारवादी मुसलमान, जो शांति से अपने धर्म का पालन करना चाहते हैं और जो अन्य धर्मों को इस्लाम के लिए चुनौती नहीं मानते, वे बढ़ते राष्ट्रवाद से तो निराश ही होंगे। 
 
जर्मनी के ताज़ा चुनाव नतीजे बढ़ते राष्ट्रवाद का उदाहरण हैं। राष्ट्रवाद से हमारा तात्पर्य उस चिंतन धारा से है जिसमें लोग अपने जीवन के हित अपने राष्ट्र के भीतर ही सीमित रखना चाहते हैं और अपने राष्ट्रीय जीवन को अपने ही तरीके से जीना चाहते हैं। उन्हें किसी और देश के नागरिकों के हितों और परेशानियों से कोई सरोकार नहीं, भले ही इसे संकुचित स्वार्थी दृष्टिकोण कहा जाए। सच तो यह है कि यदि उदारवाद आत्मघाती सिद्ध होने लगे तो कौन शुद्ध राष्ट्रवादी नहीं होना चाहेगा?
 
रोहिंग्या मुसलमानों की समस्या के संदर्भ में भी भारत इसी अंतर्द्वंद्व से गुजर रहा है। कई संदर्भों में राष्ट्रपति ट्रंप के फैसले भी राष्ट्रवादी सोच की झलक लिए हुए होते हैं और उन्हें आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है। 
 
जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल ही यूरोप में अकेली ऐसी नेता बची हैं जिसने अपने राष्ट्रवादियों की आवाज़ को अनसुना कर रखा है और राष्ट्रवादियों के विरोध के बावजूद सीरिया के शरणार्थियों को निरंतर शरण देती आई हैं। यद्यपि चांसलर एंजेला मर्केल चौथे सत्र के लिए पुन: निर्वाचित हुईं और इन चुनावों में राष्ट्रवादी आंधी की रफ़्तार को धीमा करने में तो सफल रहीं किंतु उसे रोकने में वे असफल रहीं। 
 
अभी तक के चुनावों में एंजेला मर्केल का यह सबसे ख़राब प्रदर्शन रहा वहीं नाज़ी रुझान वाले दक्षिणपंथी दलों ने अपनी स्थिति को मज़बूत किया और वे 13.5 प्रतिशत मत पाकर तीसरे बड़े दल के रूप में उभरे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पहली बार जर्मनी के सदन में राष्ट्रवादी सांसदों को प्रवेश मिला है। 
 
अब एंजेला मर्केल को सरकार बनाने के लिए कई ऐसे छोटे दलों को साथ लेना होगा जिनसे वे दूर ही रहती आई हैं और समझौते में उन्हें कई ऐसी शर्तों को मानना पड़ेगा, जो अभी तक उन्हें स्वीकार नहीं थीं विशेषकर शरणार्थियों की संख्या का लेकर। इस तरह इन अनुशासनहीन शरणार्थियों और इस्लामिक कट्टरपंथियों ने ही एंजेला मर्केल को कमजोर किया है। 
 
जर्मनी के इस चुनाव के परिणाम से स्पष्ट है कि आतंकी घटनाओं से नुकसान इस्लाम और उनके अनुयायियों को ही उठाना पड़ रहा है। न केवल जर्मनी, बल्कि यूरोप के अन्य देशों में भी कट्टर राष्ट्रवादी अपनी पकड़ बढ़ाते दिख रहे हैं। दुनिया नहीं चाहेगी कि विश्व पुन: नाजी या स्टालिन युग में प्रवेश करे, जहां कि प्रजातंत्र के लिए जगह ही न हो। न तो धार्मिक, न राजनीतिक और न ही बोलने की आज़ादी हो। 
 
चीन भी अपने कुछ इस्लाम बहुल क्षेत्रों पर धार्मिक आज़ादी को नियंत्रित कर रहा है। उदारवादी निश्चित ही इस व्यवस्था से परेशान होंगे किंतु केवल परेशान होने से काम नहीं चलेगा, जब तक कि वे अपने तीखे तेवरों से कट्टरवादियों के विरुद्ध अपना रोष और विरोध प्रदर्शित नहीं कर सकें। 
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