अरुण जेटली और स्मृति ईरानी के ज़रिए मोदी ने दिया संदेश

जयदीप कर्णिक
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मंत्रिमंडल में मंगलवार देर रात हुए परिवर्तन ने कई लोगों को चौंकाया है। जो भी उलटफेर हुआ, जिस तरह से मंत्रालय बदले गए और नए मंत्रियों को एडजस्ट किया गया उससे एक संदेश साफ है– मोदी ग़लती सुधारने में बहुत ज़्यादा देर नहीं लगाते। हालाँकि कुछ परिवर्तन ऐसे हैं जो बहुत पहले ही हो जाने थे पर जो हुए हैं वो भी देर आयद दुरुस्त आयद ही कहे जाएँगे। 
सबसे ज़्यादा चर्चा स्मृति ज़ुबिन ईरानी से शिक्षा मंत्रालय छीन लिए जाने की हो रही है। उन्हें अब कपड़ा मंत्रालय दिया गया है। ये फिर भी एक ऐसा बदलाव है जो बहु-अपेक्षित था। जिस तरह के विवादों में वो पहले दिन से ही घिर गईं थी, ये देर-सवेर होना ही था। नहीं होता तो ये सरकार से ज़्यादा ख़ुद नरेन्द्र मोदी की छवि को धक्का पहुँचाने वाला होता। इसमें कोई शक नहीं है कि इन तमाम विवादों के बाद भी स्मृति ईरानी किसी योद्धा की ही तरह अपने काम में डटी रहीं। इसका श्रेय और अपने आपको साबित करने का उनका जीवट कोई उनसे छीन नहीं सकता। पर वो कुल मिलाकर इस मंत्रालय के लिए मिसफिट ही नज़र आईं। मानव संसाधन मंत्रालय बहुत संज़ीदा, देश का भविष्य तैयार करने वाला मंत्रालय है।
 
जिस पार्टी के पास मुरली मनोहर जैसा अनुभवी नेता और पूर्व मानव संसाधन मंत्री हो वो स्मृति ईरानी जैसी नई नेता पर ऐसे बड़े मंत्रालय के लिए भरोसा करे तो इसे साहस से ज़्यादा दुस्साहस ही कहा जाएगा। और अगर दुस्साहस किया ही था तो उसके साथ कुछ समय टिके रहना भी ज़रूरी था। सो पहला मौका मिलते ही भूल सुधार ली। डिग्री विवाद और ‘आंटी नेशनल’ जैसी सुर्खियों ने इस परिवर्तन की नींव रख दी थी। प्रकाश जावड़ेकर की छवि उस लिहाज़ से काफी बेहतर है। स्वतंत्र प्रभार वाले पर्यावरण राज्यमंत्री के रूप में उन्होंने काफी बेहतर काम किया है। उनकी छवि अपने काम पर ध्यान देने वाले मंत्री की है। वो ऐसे समय शिक्षा मंत्रालय संभालने आए हैं जब नई शिक्षा नीति का प्रारूप जारी किया जा चुका है और जनता से 31 जुलाई तक राय माँगी गई है। प्रकाश जावडेकर की पहली चुनौती भी यही होगी। उनका पर्यावरण वाला काम अब मध्यप्रदेश से राज्यसभा सांसद और ताज़ा-ताज़ा मंत्री बने अनिल माधव दवे के पास आ गया है। उन्हें विश्व हिन्दी सम्मेलन और सिंहस्थ के दौरान वैचारिक महाकुंभ के आयोजन का उचित ही पुरस्कार मिला है।
 
बहरहाल जो बड़ी चर्चा छूट गई और जो ज़्यादा बड़ी है वो है वित्तमंत्री अरुण जेटली से सूचना प्रसारण मंत्रालय छीन लिया जाना। ये भी बहुत बड़ा और चौंकाने वाला परिवर्तन है। वो वित्तमंत्री के साथ-साथ इस मंत्रालय में अजेय नज़र आ रहे थे। सरकार की शुरुआत के बाद ही राजनाथसिंह और सुषमा स्वराज जैसे कद्दावर नेता, उनके पास गृह और विदेश मंत्रालय जैसे बड़े और भारी मंत्रालय होने के बाद भी हाशिए पर ही नज़र आ रहे थे।
 
अरुण जेटली एकदम से नंबर 2 की पोजीशन पर ही नज़र आने लगे। मोदी के बाद वो ही शक्तिमान थे, या ऐसा अभास तो दे ही रहे थे। ये संदेश भी आम था कि मोदी-शाह-जेटली की त्रयी ही सरकार और भाजपा को चला रही है। सब कुछ इस त्रयी के इर्द-गिर्द ही घूम रहा है। जो बहुत हद तक सच भी था। अरुण जेटली के प्रभाव और वित्त के साथ ही सूचना प्रसारण मंत्रालय के दबाव का अंदाज़ा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि वित्त मंत्री के रूप में उनकी काबिलियत को लेकर लिखे गए एक लेख के कारण एक संपादक को नौकरी गँवाने तक की नौबत आने की चर्चा बहुत आम रही। दिल्ली के न्यूज़ रूम्स पर उनका असर देखा और पढ़ा जा सकता था। इसमें भी कोई शक नहीं के ये सारी प्रतिक्रिया मोदी-शाह तक भी पहुँच रही थी और नागपुर तक भी।
 
इस तिलिस्म के टूटने का सिलसिला तब शुरू हुआ जब भाजपा के ही सांसद कीर्ति आज़ाद ने डीडीसीए के घोटाले जिन्न को बोतल से बाहर निकाल लिया। इस घोटाले को लेकर जिस कदर उन पर हमले हुए वो चौंकाने वाले थे। इस विवाद की मीडिया में जिस तरह से चर्चा हुई वो भी दिलचस्प है। फिर हाल ही में सुब्रमण्यम स्वामी ने जेटली पर सीधे और तीखे हमले किए। हालाँकि उन्हें चुप करा दिया गया। पर इसमें कोई शक नहीं कि जेटली के कद को कम करने की कोशिश हो रही थी।
 
जेटली मीडिया के कुछ बड़े नामों के बहुत करीबी माने जाते हैं। मीडिया से उनका पुराना और लंबा नाता रहा है। इसी के साथ उनके पास सूचना प्रसारण मंत्रालय भी आ जाने से कुछ समीकरण बने भी और कुछ बिगड़े भी। इस सरकार के मीडिया से संबंधों और नियंत्रण की कोशिशों पर भी सवाल उठते रहे हैं। ऐसे में अब सूचना प्रसारण मंत्रालय की ज़िम्मेदारी निभाने वाले वेंकैया नायडू क्या कमाल दिखा पाएँगे ये देखना अभी बाकी है। ये ज़रूर है कि मीडिया और सरकार के संबंधों को लेकर छवि सुधारने के प्रयत्न ज़रूरी हैं।
 
मोदी-शाह के लिए स्मृति ईरानी से मानव संसाधन मंत्रालय वापस लेने का निर्णय जितना आसान रहा होगा उतना ही कठिन अरुण जेटली से सूचना प्रसारण वापस लेना। इसके बाद भी उनके पास वित्त मंत्रालय जैसा अहम मंत्रालय अब भी बना हुआ है। दुनिया में चल रही उठापटक और ब्रेक्ज़िट के बीच देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर बनाए रखने और विकास दर को 8 के पार ले जाने की चुनौती उन्हीं के पास है। इसके लिए अब उन्हें ज़्यादा समय मिलेगा। त्रयी में भी वो बने रहेंगे, पर मोदी जो संदेश देना चाहते थे, दे चुके। ये भी स्पष्ट है कि स्मृति ईरानी और अरुण जेटली से मंत्रालय लिए जाने के फैसले पर अमित शाह के साथ ही नागपुर का भी असर है। 
 
इसके बाद जो बड़े बदलाव हैं वो हैं महेश शर्मा से नागरिक उड्डयन और सदानंद गौड़ा से कानून मंत्रालय लिया जाना शामिल हैं। ये दोनों ही अहम परिवर्तन है। सरकार और न्यायपालिका के बीच बीच भी रिश्ते बहुत मधुर नहीं हैं। अरुण जेटली, नितिन गड़करी और मुख्य न्यायाधीश एक दूसरे के बयानों पर तंज़ कस चुके हैं। ऐसे में अनुभवी मंत्री रविशंकर प्रसाद को लाया जाना इस रिश्ते को सुधारने की कोशिश कहा जा सकता है। हालाँकि संचार मंत्री के रूप में जो कदम वो उठा रहे थे उन्हें चलाए रखना भी चुनौती रहेगी। यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि रविशंकर को भाजपा सरकार के गठन के समय 2014 में भी कानून मंत्री का दायित्व सौंपा गया था। उस समय चर्चाएं ये भी थीं कि पिछली एनडीए सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री का जिम्मा संभालने वाले रविशंकर की पहली पसंद भी यही मंत्रालय था। 
 
कुल मिलाकर 19 नए मंत्रियों को शामिल कर मोदी जी ने जंबो मंत्रालय तो कर लिया है पर उसमें आने वाले राज्यों के चुनाव और 2019 की तैयारी भी साफ़ दिखाई दे रही है। 
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