'आत्मघाती राजनीति' से ग्रस्त दो राष्ट्रों की कहानी

शरद सिंगी
विगत सप्ताह दो प्रमुख घटनाएँ हुईँ, जिनमें एक रोचक विरोधाभास था। तुर्की में सेना के एक धड़े ने चुनी हुई एरडोगन सरकार का तख्ता पलट करने की कोशिश की जिसे सरकार समर्थक सेना और जनता ने कुछ ही घंटों में विफल कर दिया। इसके विपरीत  पाकिस्तान में जनता ने ही सेना को न्यौता दे दिया चुनी हुई सरकार का तख्ता पलट करने के लिए। सेना को आमंत्रित करने के लिए विभिन्न शहरों में पोस्टर भी लगा दिए गए। प्रसिद्ध क्रिकेटर एवं विपक्षी नेता इमरान खान से पूछे जाने पर उनका जवाब था कि यदि सेना नवाज़ शरीफ सरकार का तख्ता पलट करती है तो अवाम में जश्न मनेगा और मिठाइयाँ बंट जाएँगी परन्तु फ़िलहाल दोनों ही देशों में चुनी हुई सरकार बची हुई है। इन घटनाओं से यदि विश्व  निष्कर्ष निकाले  कि दोनों ही राष्ट्रों में प्रजातंत्र विजयी रहा तो शायद गलत होगा क्योंकि दोनों ही राष्ट्रों में प्रजातंत्र तो पहले ही पराजित होकर बैठा हुआ है। इसी विश्लेषण पर आधारित है यह लेख... 
पहले तुर्की को लें। तुर्की के वर्तमान राष्ट्रपति एरडोगन सन् 2003 से तुर्की की सत्ता में हैं। धीरे-धीरे अधिकारों को  अपने हाथों में केंद्रित करते रहे और अब लगभग सर्वेसर्वा हो चुके हैं। एक अंतिम कानून बनना लंबित है, जिसमें प्रधानमंत्री के भी सारे अधिकार राष्ट्रपति के पास चले जाएंगे। यदि यह अध्यादेश संसद में पास हो जाता है तो सारे अधिकार राष्ट्रपति के पद में सिमट जाएंगे और वे तानाशाह की श्रेणी में आ जाएंगे। 
 
तुर्की के आर्थिक विकास का श्रेय तो एरडोगन को जाता है किन्तु प्रजातंत्र का गला घोंटने का श्रेय भी उन्हीं के खाते में हैं। विपक्ष की सारी आवाज़ों को दबा दिया गया है। ऐसे में इस तख्ता पलट की विफल कोशिश ने उनको और मज़बूत कर दिया है। तीन दिनों के भीतर ही हजारों लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया है बिना किसी आरोप के। इन लोगों में सैन्य एवं पुलिस अधिकारियों के अतिरिक्त महाविद्यालय के कुलपति, न्यायाधीश और सरकारी कार्यालयों के अनेक अधिकारी शामिल हैं। साथ ही हज़ारों लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया है।  
 
पश्चिमी देशों के नेताओं का आरोप है की जिस तरह गिरफ्तारियाँ  हो रहीं हैं उससे दाल में कुछ काला नज़र आता है क्योंकि इतनी गिरफ्तारियां तब ही संभव है जब प्रशासन के पास पहले से ही कोई सूची हो। तख्ता पलट प्रकरण की आड़ में सभी भिन्न सोच वाले लोगों को बंद कर दिया गया है। यूरोपीय संघ में शामिल होने की इच्छा रखने वाले  तुर्की ने, मृत्यदण्ड का प्रावधान अपने संविधान में से निकाल दिया था जो यूरोपीय संघ में शामिल होने की पहली शर्त थी किन्तु तख्ता पलट के इस प्रयास के बाद एरडोगन मृत्युदंड  को पुनः बहाल करना चाहते है। 
 
तानाशाह के लिए मृत्यदंड एक प्रमुख हथियार होता है अपनी सत्ता बचाये रखने के लिए। यदि मृत्यदंड बहाल होता है तो तुर्की यूरोपीय संघ की सदस्यता से दूर हो चुका होगा। मजेदार बात है यह कि तुर्की की यूरोपीय संघ में सदस्यता के डर से  ब्रिटेन के मतसंग्रह में जनता ने ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से अलग रखने का निर्णय लिया था और अब तुर्की स्वयं ही दूर जाता दिख रहा है। आज के राजनैतिक उथल पुथल जगत में कब क्या हो जाये कुछ कहा नहीं जा सकता सकारात्मक भी और नकारात्मक भी।    
 
अब पाकिस्तान की बात लें। दुनिया में पाकिस्तान के प्रजातंत्र को कोई मान्यता नहीं है क्योकि विश्व जानता है कि पाकिस्तान की नागरिक सरकार तो मात्र एक छलावा है। शासन की डोर तो पूरी सेना के हाथ में हैं। दुनिया को दिखाने के लिए एक कठपुतली नागरिक सरकार रखनी जरुरी है अन्यथा कई प्रकार के प्रतिबन्ध  लग जाते हैं। सेना भी जानती है कि असली सत्ता उसके पास है तो तख्ता पलटने से क्या लाभ और उलटे ऐसा करने से विभिन्न देशों से आने वाली सहायता राशि बंद हो जाएगी। 
 
पाकिस्तान की जनता सिविल सरकार के भ्रष्टाचार से त्रस्त है और प्रधानमंत्री को गाली देना फैशन बन चुका  है किन्तु सेना में भी भ्रष्टाचार कम नही है। सच तो यह है कि सैनिक  एवं असैनिक प्रशासन दोनों ही ने  जनता का ध्यान बंटा रखा है कभी  अफगानिस्तान तो कभी कश्मीर के हवाले से। पाकिस्तान की अवाम को इतना कुशिक्षित कर दिया गया है कि वे अपने घर में हो रही हत्याओं से अधिक अफगानिस्तान एवं कश्मीर को लेकर दुखी रहते हैं। 
 
दोनों ही देशों की कहानी सुनकर लगता तो यही है कि तुर्की में एरडोगन हों या न हों, उसी तरह पाकिस्तान में नवाज़ शरीफ हों या न हों, जनता और प्रजातंत्र तो दोनों ही दोनों देशों में पराजित हो चुके हैं। अवाम,  तुर्की की  भी दुविधा में है और पाकिस्तान की भी। प्रजातंत्र में संविधान सर्वोपरि होता है। इसे जनता का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि  तुर्की में एरडोगन तो पाकिस्तान में सेनाध्यक्ष सर्वोपरी बन गए हैं। 
 
समस्या पाकिस्तान की अधिक नहीं क्योकि यहाँ तो अभी कोई संविधान है ही नहीं। बड़ी समस्या तुर्की की है जो एक पुराना संसदीय जनतंत्र है और मुस्लिमबहुल  राष्ट्र होने के बावजूद भी संविधान के अनुसार धर्मनिरपेक्ष है उसका इस तरह  पीछे लौटना अशुभ  है। इन घटनाओं का सारतत्व यह है कि इन देशों का वर्तमान तो संकट में है ही, इनके  दुर्भाग्य की काली छाया भविष्य पर भी मंडरा रही है और यह दुर्भाग्य इन्हें कहाँ ले जाकर छोड़ेगा, इसकी कल्पना करना कठिन है।  
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