भीषण गर्मी का प्रकोप दुनिया को ले डूबेगा

राजकुमार कुम्भज
औसत वैश्विक तापमान का रिकॉर्ड रखने की आधुनिक व्यवस्था प्रारंभ किए जाने के बाद से पिछले 137 बरसों में यह मई का महीना दूसरी बार सर्वाधिक गर्म रहा। सबसे ज्यादा तापमान के संदर्भ में इससे पहले सर्वाधिक गर्म मई माह वर्ष 2016 में रहा था। वर्ष 2016 और वर्ष 2017 में निरंतर मई माह का सर्वाधिक तापमान चिंता का विषय बनता जा रहा है।
 
नासा स्थित 'गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज' अर्थात 'जीआईएसएस' के वैज्ञानिकों ने दुनियाभर के तकरीबन 6,300 मौसम विज्ञान केंद्रों, समुद्र की सतह नापने वाले उपकरणों और अंटार्कटिक अनुसंधान केंद्रों द्वारा सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध करवाए गए आंकड़ों का सूक्ष्म अध्ययन करने के बाद ही इस चिंता का खुलासा किया है। वैसे तो नासा द्वारा किया गया यह एक मासिक मौसम विश्लेषण है किंतु वैश्विक तापमान में निरंतर वृद्धि होते जाना बेहद खतरनाक संकेत हैं। भीषण गर्मी का भीषण प्रकोप दुनिया को ले डुबेगा।
 
स्मरण रखा जा सकता है कि वैश्विक तापमान का रिकॉर्ड रखने की आधुनिक व्यवस्था वर्ष 1880 के आसपास शुरू हुई थी, क्योंकि इसके पहले के सर्वेक्षणों में पृथ्वी के पर्याप्त भाग का पर्याप्त सर्वेक्षण संभव नहीं हो पाता था। इस आधुनिक पद्धति से ही अब दुनिया समझ पा रही है कि हम किस तरह कितनी भीषण गर्मी की चपेट में आते जा रहे हैं और यह पृथ्वी धीरे-धीरे कैसे ग्लोबल वॉर्मिंग की गिरफ्त में फंसती जा रही है?
 
पिछले बरस अर्थात वर्ष 2016 के मई माह में विशेष सांख्यिकी गणना के मुताबिक औसत तापमान 0.93 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया था जबकि इस बरस अर्थात वर्ष 2017 का मई माह गत वर्ष की तुलना में 0.88 डिग्री सेल्सियस ही अधिक रहा, जो कि पिछली मई के मुकाबले 0.05 डिग्री कम रहा किंतु सबसे ज्यादा तापमान के मामले में तीसरे क्रम पर रहने वाले वर्ष 2014 की तुलना में इस वर्ष का तापमान 0.01 डिग्री अधिक रहा अर्थात वर्ष 2014 के मई माह में तापमान 0.87 डिग्री सेल्सियस आंका गया था। वह मई माह भी कोई कम गर्म नहीं कहा गया था। 
 
वर्ष 1951 से वर्ष 1980 तक के मई माह के तुलनात्मक तापमान अध्ययन में यही बात सामने आई है। इस सबकी वजह ग्लोबल वॉर्मिंग ही बताई गई है, जो कि भीषण गर्मी के भीषण प्रकोप का बेहद जिम्मेदार घटक है। ऐसे में तय है कि भीषण गर्मी का भीषण प्रकोप दुनिया को ले डूबेगा। ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से भारत का तापमान भी तेजी से प्रभावित हो रहा है। देश का वार्षिक औसत तापमान 20वीं सदी की तुलना में 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है।
 
पर्यावरण से जुड़ी संस्था 'सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट' अर्थात 'सीएसई' ने भी वर्ष 1901 से अभी तक के सभी वर्षों के तापमान अध्ययन का विश्लेषण करते हुए पाया है कि हमारे देश में जिस तेजी से तापमान वृद्धि देखी जा रही है, उससे तो यही प्रतीत होता है कि अगले 2 दशक में ही देश का तापमान 1.5 डिग्री के स्तर को पार कर जाएगा।
 
पेरिस जलवायु समझौते के तहत भी तापमान वृद्धि का यही स्तर लक्ष्य आंका गया है। वैश्विक तापमान की यह वृद्धिदर न तो सामान्य है और न ही अनुकूल। यह स्थिति पर्यावरण प्रतिकूल तो है ही, बल्कि अर्थव्यवस्था और समाज के लिए भी अनुकूल नहीं है। देश, दुनिया, समाज और प्राणीमात्र पर्यावरण परिवर्तन की अनर्थकारी प्रतिकूलताओं के दुष्चक्र का सामना करने को अभिशप्त हो गए हैं।
 
अन्यथा नहीं है कि इन पर्यावरणीय प्रतिकूलताओं के लिए हम, हमारी आधुनिकता और सुविधाभोगी जीवनशैली ही पर्याप्त जिम्मेदार है। इसी वजह से दुनिया की तमाम अर्थव्यवस्थाएं प्रभावित हो रही हैं और हमारी सामाजिकता में भी दरारें आती जा रही हैं। क्या यह अन्यथा है कि बढ़ती गर्मियों की वजह से पारिवारिकताएं घटती जा रही हैं?
 
कदाचित यह विस्मय का विषय हो सकता है कि पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वॉर्मिंग सहित प्री-मानसून और पोस्ट-मानसून के कारण हमें अकस्मात ही हो रहे मौसम परिवर्तन का सामना करना पड़ रहा है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ गर्मियों का ही तापमान बढ़ रहा है, बल्कि असामान्यत: सर्दियों के भी औसत तापमान में वृद्धि देखी जा रही है।
 
सीएसई की रिपोर्ट की अनुसंधान रिपोर्ट के मुताबिक सर्दियों का औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से कहीं ज्यादा बढ़ चुका है। इधर की सर्दियों में औसत तापमान 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा हुआ देखा जा चुका है, जबकि वर्ष 2017 जनवरी-फरवरी की सर्दियां अब तक के इतिहास की सबसे गर्म सर्दियां रही हैं। 
 
वर्ष 1901 से 1930 के बेसलाइन तापमान की तुलना में इस बरस जनवरी-फरवरी की सर्दियों का तापमान औसत तकरीबन 3 डिग्री तक अधिक देखा गया। वर्ष 2016 में ही भारत ने 4-4 साइक्लोन तूफान भी देखे हैं, जबकि वर्ष 2010 में बेसलाइन के मुकाबले तापमान तकरीबन 2 डिग्री अधिक था। 2010 का वर्ष भारत में लू के कारण 300 से ज्यादा लोगों की हुई असामयिक मौतों के लिए भी जाना जाता है। 
 
सीएसई के अनुसार वर्ष 1995 पहला-पहला सबसे गर्म वर्ष और वर्ष 2016 दूसरा सबसे गर्म वर्ष रहा किंतु 116 वर्षों के इतिहास में 15 सबसे गर्म वर्षों में से कुल जमा 13 बरस 2002 से 2016-17 के दौरान रहे। वर्ष 2016-17 में ही दक्षिण भारत के चारों राज्यों ने सर्दी के सबसे भयंकर सूखे का सामना किया। यहां तक कि इसकी जद में केरल, कर्नाटक, आंध्र और तमिलनाडु के तकरीबन 33 करोड़ लोग आए। अब यह अप्रत्याशित नहीं है कि पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका के अलग हो जाने के बाद वैश्विक तापमान में आ रहे परिवर्तनों को नियंत्रित करना एक बड़ी व गंभीर चुनौती बन गई है।
 
दूरविन स्थित 'यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया' के अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि भारत में इस सदी के अंत तक तापमान में 2.2 से लेकर 5.5 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो सकती है, जो कि बेहद प्राणघातक साबित होगी। इस कारण भारत सहित अन्य एशियाई देशों में भी लू से मरने वालों की संख्या अच्छी-खासी बढ़ेगी। यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि तापमान में मामूली बढ़ोतरी से भी लू और लू से मरने वालों की तादाद बढ़ने की आशंका बढ़ जाती है।
 
भारत में पिछले 50 वर्षों के दौरान मात्र आधा फीसदी तापमान वृद्धि देखी गई है, लेकिन लू से मरने वालों की संख्या औसत संभावना से अधिक ही रही। आशंका व्यक्त की गई थी कि इस दौरान लू से 13 फीसदी जनहानि होगी, लेकिन तब लू से मरने वालों की संख्या बढ़कर 32 फीसदी तक पहुंच गई।
 
अनुसंधानकर्ताओं ने आगाह किया है कि बरस-दर-बरस बढ़ती जा रही गर्मी आगे और अधिक भीषण आकार ले सकती है। आने वाले वर्षों में बढ़ते तापमान से स्थितियां और अधिक खराब होने वाली हैं। इस दौरान चिलचिलाती धूप और लू की वजह से मरने वालों का आंकड़ा आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ सकता है।
 
हालांकि कुशल अध्ययनकर्ताओं ने यह भी कहा है कि बिजली की बढ़ती पहुंच और खासकर एयर कंडीशनर की सहायता व सुविधा से इन होने वाली मौतों की संख्या को किसी एक हद तक सीमित किया जा सकता है किंतु वे गरीब और मजदूर वर्ग के लोग कहां व कैसे बच पाएंगे, जो आज भी बिजली की पहुंच में हैं ही नहीं? गरीबों के लिए एयर कंडीशनर का सुझाव सोचना तो बेहद बड़ी मूर्खता ही है।
 
कौन नहीं जानता है कि तकरीबन एक तिहाई भारतीय आज आजादी के 70 बरस बाद भी बिजली की पहुंच से दूर ही अपना जीवन-यापन कर रहे हैं। आंकड़ों में देखा जाए तो वर्ष 1975 और 1976 में लू लगने से भारत में क्रमश: 43 और 34 लोग मरे थे, जबकि आगे आने वाले वर्षों में लू में उछाल आने के साथ ही लू से मरने वालों की संख्या में भी भारी उछाल देखा गया। वर्ष 1998 और 2003 में भीषण गर्मी के दौरान लू लगने से क्रमश: 1,600 और 1,500 लोगों की मौतें हुई थीं। जाहिर है कि वे सभी मुट्ठीभर अनाज और मुट्ठीभर बिजली को तरसने वाले गरीब और मजदूर वर्ग के ही लोग थे।
 
किंतु भीषण गर्मी के प्रकोप अथवा लू से बचाव के लिए यहां जिस एयर कंडीशनर की सहायता व सुविधा के विकल्प की चर्चा की जा रही है, उसमें हाल-फिलहाल तक हाइड्रो क्लोरोफ्लोरो कार्बन और हाइड्रो क्लोरो कार्बन श्रेणी की गैसों का इस्तेमाल किया जा रहा है जिससे ओजोन परत को बहुत ज्यादा ही नुकसान पहुंच रहा है। देश में इसका प्रयोग वर्ष 2025 तक बंद किया जाना प्रस्तावित है। बाद उसके, हाइड्रो फ्लोरो ऑफिन्स श्रेणी की गैस इस्तेमाल करने की तैयारी है, जो न तो ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती है और न ही ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ाती है, लेकिन तब तक? तब तक तो क्या भीषण गर्मी का भीषण प्रकोप दुनिया के प्राण नहीं ले लेगा? प्राण बचाने के लिए पर्यावरण बचाना क्या जरूरी नहीं हो जाता है?
 
ओजोन परत का स्तर इसी वर्ष 2017 फरवरी के दौरान 12 फीसदी था। मार्च में 19, अप्रैल में 52 और मई माह में एक बेहद लंबी छलांग लगाते हुए 77 फीसदी पर पहुंच गया, जो कि मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है। यहां यह जान लेना भी बेहद जरूरी हो जाता है कि ओजोन के कारण समय पूर्व होने वाली मौतों के मामलों में हमारा देश भारत सबसे आगे है। 
 
ग्राउंड लेवल ओजोन किसी भी स्तोत्र से सीधे-सीधे नहीं निकलती है बल्कि यह तब बनती है, जब नाइट्रोजन के ऑक्साइड तथा खासतौर से मोटर वाहनों और अन्य स्तोत्रों से निकलने वाली विषैली गैसों की एक किस्म सूर्य प्रकाश में एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं। जाहिर है कि तब गर्म और स्थिर हवा में ओजोन निर्माण बढ़ जाता है। 
 
इस सबसे बचाव के लिए कुछ गंभीर और दीर्घकालीन नीतियों की जरूरत है, वर्ना बढ़ती गर्मी का बढ़ता प्रकोप दुनिया को ले डूबेगा। दमे और सांस संबंधित बीमारियों की जननी विषैली गैसें गर्म हो रहे तापमान में सूर्य किरणों से मिलकर जो कॉकटेल बना रही हैं, उस सबसे ओजोन गैस बनने में काफी मदद मिल रही है। ऐसे में भीषण गर्मी के भीषण प्रकोप से पृथ्वी को कौन बचाएगा?
 
विस्मय होता है कि हानिकारक गैसों का सर्वाधिक उत्सर्जन करने वाले अमेरिका ने पेरिस जलवायु समझौते से हटकर उन वैश्विक प्रयासों को एक बड़ा झटका दिया है जिनके लिए दुनियाभर के तकरीबन 200 देशों ने एक बेहतर, सेहतमंद और सुरक्षित दुनिया बनाने का संकल्प लिया है। शर्म है कि उन्हें आती नहीं है, जो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पेरिस जलवायु समझौते से वापसी पर गर्व करते हैं? 
 
भीषण गर्मी का भीषण प्रकोप किसी के भी प्राण नहीं छोड़ेगा!
 
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