सोनू निगम के ट्वीट पर हंगामा है क्यूं बरपा

सुशोभित सक्तावत
सोमवार, 17 अप्रैल 2017 (18:29 IST)
अव्वल तो यही कि जिस पेशे में सोनू निगम हैं और जितना बड़ा वर्ग उनके रिकॉर्ड्स ख़रीदता और गाने सुनता है, उसके मद्देनज़र सोनू निगम का बयान हिम्मत से अधिक हैरत वाला था। और अगर उन्होंने वे ट्वीट नींद में ख़लल पड़ने से हुई असुविधा के चलते नहीं और पूरे होशो-हवास में ही किए थे, तो यह भी उम्मीद की जानी चाहिए कि वे अपने ट्वीट्स को डिलीट नहीं करेंगे, जो कि वे कभी भी कर सकते हैं। 
 
दूसरी बात ये है कि इन दिनों बॉलीवुड का मंज़र ही बदला हुआ नज़र आ रहा है। इस बदले हुए तेवर को हमें मोदी युग की विरासत मान लेना चाहिए क्योंकि इससे पहले कभी बॉलीवुड से‍लेब्रिटीज़ इस तरह के बयान नहीं देते थे, जो या तो राजनीतिक महत्व के हों या अस्म‍िता की राजनीति में हस्तक्षेप करने वाले सिद्ध हो सकते हों। यह अकारण नहीं है कि जो अनुपम खेर दस साल पहले तक अपने अभिनय के लिए जाने जाते थे, वे ही आज अपने राजनीतिक विचारों के लिए पहचाने जाते हैं। 
 
और वे अकेले नहीं हैं। अभिजीत, अशोक पंडित, विवेक ओबेरॉय, मधुर भंडारकर, रवीना टंडन और अब सोनू निगम जैसों के नाम इसमें जोड़े जा सकते हैं, जो बॉलीवुड में निर्मित हुई अप्रत्याशित वैचारिक खाई में राइट विंग के प्रतिनिधि माने जाते हैं तो दूसरी तरफ़ लेफ़्ट या लिबरल विंग वालों की तो कोई गणना ही नहीं है। नंदिता दास, अनुराग कश्यप, नसीरुद्दीन शाह, सईद मिर्जा, आमिर ख़ान इनमें मुखर रहे हैं और शाहरुख़ ख़ान कभी भी अस्म‍िता की सूक्ष्म राजनीति से बाज़ नहीं आए।
 
लिहाज़ा, जब सोनू निगम ने कहा कि वे मुसलमान नहीं हैं तो उन्हें क्यों अज़ान की आवाज़ से उठने को मजबूर होना चाहिए, तो इसे बहुत ही भिन्न तरीक़े से लिया जाना अवश्यंभावी ही था। वैसे भी इन दिनों उत्तर प्रदेश में योगी सरकार की प्रतिष्ठा की बाद से सांप्रदायिक पहचान के टकरावों को कभी तीन तलाक़, कभी राम मंदिर, कभी गोमांस, कभी लव जेहाद, कभी कश्मीर के बहाने ख़बरों में स्थान मिलता रहा है और देखा जाए तो यह परिघटना वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में उभार के बाद से ही तीव्र हो चली थी। 
 
जब देश का प्रधानमंत्री ख़ुद यह कहता है कि पुरस्कार लौटाने वाले तीन तलाक़ पर चुप क्यों हैं, तो आप समझ जाते हैं कि अस्म‍िता की राजनीति पर सवाल एक ऐसे शीर्ष स्तर पर लगना शुरू हो गए हैं, जहां पहले पोलिटिकल करेक्टनेस का मौन हुआ करता था। इसे आप मोदी युग या योगी काल का प्रभाव मान सकते हैं कि जो बातें टैबू मानी जाती थीं, उन पर बात करने का साहस अब उन हलकों में भी पैदा हो गया है, जो इससे पहले हमेशा रोज़ी रोटी कमाने को ही प्राथमिकता देता रहा है और अमिताभ बच्चन, सचिन तेंडुलकर जैसे सितारे आज भी जिसके पर्याय बने हुए हैं।
 
कबीरदासजी ने अज़ान के संबंध में बहुत पहले ही कह दिया था कि “क्या बहरा भया खुदाय”। अलबत्ता कबीरदासजी ने हिन्दू धर्म की कुरीतियों पर भी बहुत प्रहार किए थे, लेकिन तथ्य तो यही है कि कबीर के बाद जहां हिंदू धर्म में एक सुधारवादी आंदोलन चला, वहीं इस्लाम में वैसा कोई सुधारवादी आंदोलन चला नहीं है। सोनू निगम की यह बात बहुत तार्किक है कि पुराने ज़माने में लोगों को नमाज़ के लिए बुलाने के लिए अज़ान देना पड़ती थी, लेकिन आज सूचना तकनीक के ज़माने में अज़ान की कोई तुक ही नहीं है। 
 
धर्म और समकाल का परस्पर द्वैत सभ्यताओं के ढांचे में अनेक बदलाव लाता है। कहीं कोई झुकता है, कहीं कोई नहीं झुकता है। समय के साथ ऐसे सवाल भी पूछे जाते हैं, जो पहले नहीं पूछे गए। जैसे इरफ़ान ख़ान ने ही पूछ लिया था कि ईद पर क़ुर्बानी देने की तुक क्या है। मोदी और योगी के भारत में ये सवाल और ज़्यादा आगे भी पूछे जाते रहेंगे। यह शुभ लक्षण ही माना जाना चाहिए। अगर अल्पसंख्यक समुदाय इससे अपने को दबाव में महसूस करता है तो यह भी बुरा नहीं। उसे मज़हब की जकड़बंदी तोड़कर नागरिकता में मुख्यधारा में आने की अधि‍क से अधि‍क कोशिश करना चाहिए। उन्हें याद रखना चाहिए कि वे एक सेकुलर भारत में रह रहे हैं, मध्य-पूर्व के किसी अरैबिक बीहड़ में नहीं।
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