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सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर कहीं लज़ीज़ और कहीं अज़ीब प्रतिक्रियाएं

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शरद सिंगी

भारत के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अयोध्या के दशकों से लंबित विवाद पर अंततः सर्वानुमति से फैसला सुना दिया और एक सदी से अधिक पुराने विवाद का पटाक्षेप कर दिया। कुछ अपवादों को छोड़कर फैसले का स्वागत याचिकाकर्ताओं के अतिरिक्त अधिकांश राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं द्वारा किया गया। अपवाद भी शायद वे रहे जिन्होंने पूरा फैसला पढ़ने के पहले ही अपने बयान दे दिए या फिर वे लोग थे जो पहले ही हार-जीत की मनःस्थिति में आ चुके थे।

कानून का जानकार न होने के बावजूद, कोर्ट के निर्णय के कई हिस्से इस लेखक ने भी पढ़े। निर्णय की सरल और स्पष्ट भाषा, हर मुद्दे और पक्षों की दलीलों का बारीकी के साथ विश्लेषण तथा इतिहास के अलग-अलग कालखंड में उपलब्ध तथ्यों के आधार पर निर्णय तक पहुंचने की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन होने के कारण इस निर्णय को भारत की न्यायपालिका द्वारा अभी तक दिए गए असामान्य और उत्कृष्ट निर्णयों की श्रेणी में रखा जा सकता है। जब विवाद न्यायालय में निर्णीत हों तो किसी पक्ष को अपनी जीत और किसी को हार लग सकती है, किंतु न्यायालय से बीच का मार्ग सुझाने की अपेक्षा करना गलत होगा, क्योंकि सुलह-सफाई न्यायालय के बाहर ही की जा सकती है।

न्यायालय के निर्णय तो तथ्यों, सबूतों और गवाहों के आधार पर ही होते हैं यद्यपि न्यायालय ने बार-बार मौके दिए समस्या को आपस में सुलझाने के लिए, किन्तु जोखिम उठाने का साहस किसी पक्ष को नहीं हुआ। फिर भी यदि इस निर्णय के किसी बिंदु पर भारत के किसी भी नागरिक को आपत्ति है तो न्यायालय के दरवाजे अभी भी बंद तो नहीं हुए हैं। अपनी राजनीतिक और धार्मिक रोटी सेंकने के लिए कुछ नेताओं ने सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय पर टीका-टिप्पणी की और अपने अनुयायियों को बहकाने की कोशिश भी की किन्तु अधिकांश लोगों को अब राजनीति की समझ हो गई है और कोई किसी के बहकावे में नहीं आया।

यह बात तो हुई हमारे सर्वोच्च न्यायालय की, उसकी निर्णय प्रक्रिया की और भारत की जनता में उसकी प्रतिक्रिया की। हमने अपनी संस्कृति और संस्कारों के अनुसार फैसले को बड़ी गरिमा से स्वीकार किया। अब बात करें उनकी जो बेगानी शादी में तमाशाई बने थे और जिन्हें हताशा हाथ लगी। सबसे पहले नाम आता है पाकिस्तान का। उसे तो  भारत की हर घटना में हिंदू-मुसलमान दिखता है।

उसकी मंशा है कि किसी भी तरह भारत में दोनों संप्रदायों के बीच टकराव हो। खून-ख़राबा हो ताकि वह अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी गोटियां खेल सके। किन्तु उसके सपने हर बार कुचल दिए जाते हैं। करतारपुर साहब कॉरिडोर को खोलने की पाकिस्तानी मंशा से भी भारत की जनता अवगत है। पाकिस्तान ही भारत की जनता की सोच से अवगत नहीं। तुम डाल-डाल तो हम पात-पात। सब जानते हैं कि पाकिस्तान की नकेल अतिवादियों के हाथों में है। वहां अतिवादियों की साजिशें राष्ट्रीय सोच बन चुकी है।

अब बात करें पश्चिमी देशों की। अयोध्या के निर्णय के पश्चात अमेरिका और ब्रिटेन के कुछ अख़बारों की सुर्खियां यदि आप देखें तो ऐसा लगेगा कि उन्हें भी निर्णय हजम नहीं हुआ। उन्हें लगता है कि निष्पक्ष निर्णय केवल पश्चिमी देशों की अदालतें ही दे सकती हैं। न्यायालय का जो विस्तृत निर्णय है उससे उनको दस्तें लगी हुई हैं। कारण, एक तो वे भारतीय न्यायालयों को अभी पश्चिम जितना विकसित और निष्पक्ष नहीं मानते। दूसरा, भारत की जनता को अनपढ़ समझते हैं। उनकी सोच के अनुसार, अभी भी भारत पाषाण काल में है, जहां न्याय प्रक्रिया विकसित नहीं है। इसलिए बिना विस्तार में जाए ही पत्रकारों ने अख़बारों में अपने शीर्षक बना दिए।

जिस निर्णय से भारत के प्रधानमंत्री को कोई लेना-देना नहीं उस निर्णय को लेकर वे भारतीय प्रधानमंत्री पर टीका-टिप्‍पणी करने से नहीं चूके। क्या इंग्लैंड या अमेरिका में कोर्ट के किसी निर्णय में वहां के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की जवाबदेही होती है? जाहिर है विदेशी प्रेस की हरक़त बचकानी थी और सुर्खियां बटोरने के लिए थीं। उन्हें समझना पड़ेगा कि भारत के कोर्ट, पाकिस्तानी कोर्ट की तरह नहीं होते जहां सेना का वर्चस्व होता है और कई बार सरकारी दबाव में निर्णय को लिया या बदला जाता है। हमारे देश का न्यायतंत्र न केवल स्वतंत्र है वरन अनेक बार सरकार की मंशा के विपरीत निर्णय देने के लिए जाना जाता है। शक्तिशाली न्यायपालिका में कोई दूसरी सरकारी एजेंसी अपना एजेंडा नहीं चला सकती। दूसरा, भारत में सेना और न्यायतंत्र का आपस में दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है।

इसके विपरीत, दुबई के अख़बारों ने संतुलित शीर्षक दिए। दोनों पक्षों की भावनाओं और तथ्यों के आधार पर हुए निर्णय का स्वागत किया गया। अन्य विविध आलेखों में भी दोनों संप्रदायों से इतिहास को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की बात कही गई। यह यूएई के परिपक्व चिंतन और भारत के प्रति उनकी सद्भावना का प्रतीक है। पिछले दिनों भारत में दो बड़े निर्णय लिए गए। एक, भारत की विधायिका यानी संसद ने आर्टिकल 370 को हटाकर, तो दूसरा भारत की न्याय पालिका ने राम मंदिर विवाद पर।

दोनों मुद्दे दशकों से चल रहे थे। दोनों ही निर्णय भारत की संस्थाओं की अद्भुत सामर्थ्य को दर्शाते हैं और उससे अधिक दर्शाते हैं भारतीय नागरिकों की परिपक्वता को, जिन्होंने इन निर्णयों को बिना किसी प्रतिकार या स्वागत के ऐसा दर्शाया कि जैसे ये कोई विवादित मुद्दे थे ही नहीं। लेखक का मत है कि भारत की जनता हो, विधायिका हो या न्याय पालिका, हमारी समझ और परिपक्वता किसी भी पश्चिमी देश से कमतर नहीं, अपितु बढ़कर ही है। सभी को साधुवाद।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है)

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