फ्रांस की कार्टून मैगजीन 'शार्ली एब्दो' के कार्टून विवाद का जिन्न एक बार फिर उठ खड़ा हुआ है। फ्रांस के नीस स्थित चर्च में एक कट्टरपंथी ने तीन लोगों की हत्या कर दी। इब्राहिम नामक यह हमलावर ट्यूनीशिया का रहने वाला है। इस घटना के बाद पूरी दुनिया में इस्लामी कट्टरपंथ को लेकर एक बार फिर से बहस शुरू हो गई है। वहीं, इस्लामी देशों में कार्टून को लेकर फ्रांस एवं राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रों के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। भारत में भी कई स्थानों पर इस तरह के प्रदर्शन हुए हैं।
वर्ष 2015 में जब 'शार्ली एब्दो' के दफ्तर पर हमला हुआ था तब यूरोपीय मामलों के जानकार एवं वरिष्ठ लेखक राम यादव ने वेबदुनिया के लिए एक विस्तृत आलेख लिखा था। वर्तमान में हम इसे हम जस का तस प्रस्तुत कर रहे हैं।
रविवार, 11 जनवरी 2015 का दिन फ्रांस, सारे यूरोप और संभवतः समूचे विश्व के लिए एक अपूर्व पीड़ा का दिन था। चार ही दिन पहले 12 पत्रकार व चित्रकार इस्लामी आतंकवाद की बलि चढ़ गए थे। उनकी याद में सरकार ने पेरिस में एकजुटता-रैली का आह्वान किया था। अपार जनसागर के बीच से बाँहों में बाँहें डाले विश्वभर से आए 44 नेताओं के साथ राष्ट्रपति फ्रोंस्वा ओलांद का पैदल मार्च कुछ ऐसा ही था, मानो वे देश की जनता से धार्मिक सहिष्णुता बनाए रखने की भीख माँग रहे हों। सरकार का ढाँढस बंधाने की अपील कर रहे हों।
व्यंग्यचित्र साप्ताहिक 'शार्ली एब्दो' के सहकर्मियों की सामूहिक हत्या को लोकतंत्र में अभिव्यक्ति और प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला बताकर एकजुटता प्रदर्शन का आह्वान करना सरल और स्वाभाविक है, किंतु इस स्वतंत्रता की अक्षुण्णता बनाए रखना उतनी ही दुरूह और दुष्कर।
प्रदर्शन सरकारी था। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के फ्रांस में सबसे बड़ा प्रदर्शन था। सुनियोजित और सुरक्षित था। एक लाख से अधिक सुरक्षाबल और सैनिक उसे सुरक्षा कवच प्रदान कर रहे थे। पर, क्या यही सुरक्षा हर दिन, हर किसी को हर जगह दी जा सकती है?
विभिन्न धर्मों के लोगों के इस ऐतिहासिक जमघट की मीडिया में प्रशंसा के जो पुल बाँधे जा रहे हैं, क्या वे तब भी नहीं टूटेंगे, जब अगले दिनों में ऐसे ही कुछ और आतंकवादी हमले होंगे? हमले तो होंगे। पेरिस में 'शार्ली एब्दो' के कार्यालय और बाद में एक यहूदी सुपर बाज़ार पर हुए हमले की ज़िम्मेदारी क्रमशः अल कायदा और आईएस (इस्लामी ख़लीफ़त) ने ली है। उनका तो काम ही है हमले करना। मरना और मारना।
डर तो यह है कि अब प्रतिशोधी हमलों की भी झड़ी लग जाएगी। मुसलमानों ही नहीं, उनसे मिलते-जुलते दिखने वाले सभी विदेशियों की भी शामत आ जाएगी। फ्रांस के साथ बिरादराना एकजुटता दिखा रहे दूसरे देश भी अछूते नहीं रह पाएंगे।
क्रिया-प्रतिक्रिया लंबी चल सकती है : इस क्रिया-प्रतिक्रिया के कम से कम दो मुख्य कारण हैं। एक तो यह कि लगभग सभी प्रमुख पत्रकार और चित्रकार खो देने के बाद भी साप्ताहिक 'शार्ली एब्दो' का प्रकाशन, पहले की ही तरह पैने शब्द-बाणों और चुटीले चित्रों के साथ न केवल पूर्ववत जारी है, उसकी माँग रॉकेटी तेज़ी के साथ इतनी बढ़ गई है कि बुधवार, 14 मई को 16 भाषाओं में प्रकाशित नए अंक की 30 लाख प्रतियाँ देखते ही देखते बिक गईं।
उसके मुखपृष्ठ पर बने पैगंबर मुहम्मद के दो बूँद आँसू बहाते कार्टून पर लिखा है, 'सब माफ़ कर दिया' (तूत ए पार्दों) और नीचे 'मैं शार्ली हूँ' (जे स्युइ शार्ली)। तय हुआ है कि अगली बार 25 देशों में बिक्री के लिए अरबी भाषा सहित कई भाषाओं में 50 लाख प्रतियाँ छापी जाएंगी। एक डिजिटल संस्करण भी उपलब्ध किया जाएगा। इससे इस्लामी जगत में फैले रोष और क्रोध की आग में घी पड़ना अभी जारी रहेगा।
दूसरा मुख्य कारण यह है कि इस्लामी जगत के नेता, धर्माधिकारी और अधिकतर बुद्धिजीवी भी इस्लामवादी आतंकवादी गिरोहों और उनके आतंकी हमलों की दोटूक निंदा करने, फ़तवा जारी करने, उनका सामाजिक बहिष्कार करने या आतंकवादियों को दंडित करने के प्रश्न पर कुछ कहने-करने से कतराते रहे हैं।
यह कहकर हाथ झाड़ लेते रहे हैं कि 'आतंकवाद का इस्लाम से कोई संबंध ही नहीं है' या 'आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता।' उनकी यह तोतारटंत सुन-सुनकर जनसाधारण के कान पक गए हैं। यह संदेह पक्का होता लगने लगा है कि इस्लामी जगत मन ही मन आतंकवादियों के साथ है और शायद सोचता है कि वे यदि दुनिया का इस्लामीकरण करना चाहते हैं, तो कुरान के आदेश का ही तो पालन कर रहे हैं! इस्लामी जगत की सोच में हालांकि अब कुछ आत्मचिंतन भी जरूर आया है, किंतु पश्चिमी संवेदनाओं की दृष्टि से वह पर्याप्त नहीं है।
फतवा जारी करने में क्यों लगे 13 साल... पढ़ें अगले पेज पर....
फ़तवा जारी करने में लगे 13 साल : अमेरिका में यदि 9/11 वाले हवाई हमलों को पश्चिमी जगत में इस्लामी आतंकवाद का जन्मदिन माना जाए, तो इस्लाम के जन्म स्थान सऊदी अरब के सर्वोच्च धर्माधिकारियों को आतंकवाद के विरुद्ध फ़तवा जारी करने में पूरे 13 साल लग गए। 21 सदस्यों वाली वहाँ की इस्लामी विद्वत-परिषद ने इस्लाम के नाम पर अपूर्व मारकाट कर रहे आईएस (इस्लामी ख़लीफ़त) के नाम 17 सितंबर 2014 को पहली बार फ़तवा जारी करते हुए कहा कि 'आतंकवाद एक घृणित अपराध है' और इस्लाम की शिक्षाओं के विरुद्ध जाता है। सऊदी अरब की सरकार के आग्रह पर यह फ़तवा इसलिए जारी किया गया ताकि सऊदी वायुसेना आईएस के विरुद्ध बमबारी में अमेरिका का साथ दे सकें। कहा जाता है कि विद्वत-परिषद के अध्यक्ष महामुफ्ती शेख अब्देल अज़ीज अल शेख ऐसा कोई फ़तवा जारी करने से लगातार कतरा रहे थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि अनमने ढंग से जारी इस फ़तवे का प्रभाव भी अनमना ही रहेगा। उसे कोई पक्ष गंभीरता से लेता नहीं दिखता।
'इस्लामी ख़लीफ़त' के विरुद्ध दूसरा उल्लेखनीय फ़तवा इस्लामी धर्मशास्त्र के कई देशों के 120 सुन्नी विद्वानों और इमामों ने 27 सितंबर 2014 को जारी किया। उस पर मिस्र के महामुफ्ती शेख शवकी अल्लाम, काहिरा के प्रसिद्ध अल अज़हर विश्वविद्यालय के कई विद्वानों, येरुसलम और फ़िलीस्तीन के मुफ़्ती, संयुक्त अरब अमीरात, मोरक्को, ट्यूनीशिया, चाड, भारत, पाकिस्तान, सूडान और इंडोनिशिया के धर्मशास्त्रियों तथा इमामों के हस्ताक्षर हैं। इस 24 सूत्री फ़तवे में कहा गया है कि फ़तवा कब, कौन और किन शर्तों पर जारी कर सकता है और इस्लाम किन-किन बातों को निषिद्ध मानता है।
स्वागतयोग्य, पर देर से जारी फ़तवे के अनुसार 'संदेशवाहकों, दूतों और राजनयिकों की हत्या इस्लाम में निषिद्ध है, अतः पत्रकारों और विकास सहायता कर्मियों की हत्या भी वर्जित है।' इसी प्रकार 'जिहाद इस्लाम में आत्मरक्षा का युद्ध है। बिना वैध कारण, वैध लक्ष्य और सही आचरण के वह निषिद्ध है।' फ़तवे के अन्य बिंदुओं के अनुसार 'ईसाइयों तथा हरसंभव ग्रंथ के अनुयायियों को कोई क्षति पहुँचाना या उनका दुरुपयोग करना,' 'दास-प्रथा को पुनः प्रचलित करना' या 'बलात धर्मांतरण' भी वर्जित है। यह बहुत ही स्पष्ट और विस्तृत फ़तवा जितना स्वागतयोग्य है, उतनी ही देर से आया है। यूरोपीय देशों के मुसलमानों के बीच भी वह सर्वथा अज्ञात है। जो लोग मुसलमान नहीं हैं, वे पूछते हैं कि यही बातें अमेरिका में 9/11 वाले हवाई हमलों के बाद डंके की चोट क्यों नहीं कही जा सकीं। आज भी क्या इस्लामी मस्जिदों के इमाम उन्हें अपने भक्त समाज के सामने रखते हैं? शायद नहीं, वर्ना यूरोप से चार हज़ार जिहादी 'इस्लामी ख़लीफ़त' के लिए खून बहाने सीरिया और इराक़ नहीं जाते।
कह सकते हैं कि 'इस्लामी ख़लीफ़त' को कुछ ही महीनों के भीतर एक-तिहाई सीरिया और इराक़ पर क़ब्ज़ा जमाने और वहाँ खून की नदियाँ बहाने में जो चमत्कारिक सफलता मिली और जिस पर मुग्ध होकर यूरोप के हज़ारों जिहादी वहाँ जा चुके हैं, उसके लिए पश्चिमी देश भी कुछ कम दोषी नहीं हैं। इस ख़लीफ़त का ख़लीफ़ा अबू बक़र अल बगदादी कभी अमेरिका का कृपापात्र हुआ करता था। उसने 2014 के ठीक उन्हीं दिनों में अपनी ख़लीफ़त का सबसे तूफ़ानी विस्तार किया, जब अमेरिका और उसके पिछलग्गू यूरोपीय देशों ने रूस को कमज़ोर करने की कुटिल चाल के अधीन उसका हिस्सा रह चुके यूक्रेन का यूरोपीय संघ और नाटो सैन्य गुट में 'अपहरण' कर लेने का तूफ़ानी अभियान छेड़ रखा था। सारी दुनिया का ध्यान उन दिनों इस अभियान ने ही बाँध रखा था। उसकी आड़ में 'इस्लामी ख़लीफ़त' ने वही किया, जो अमेरिका और रूस के टकराव वाले 1962 के क्यूबा संकट की आड़ में चीन ने किया था। चीन ने ठीक उन्हीं दिनों भारत पर आक्रमण कर दिया। क्यूबा संकट छंटते ही चीन ने अपने सैनिक वापस भी बुला लिए।
हो रही है बर्बरता की अनदेखी... पढ़ें अगले पेज पर...
बर्बरता की अनदेखी : यूक्रेन के प्रसंग में पश्चिमी देशों की सरकारें और मीडिया एक ही थैली के चट्टे-बट्टे बन गए थे। 'इस्लामी ख़लीफ़त' में लोगों की मुसीबत की कोई चर्चा ही नहीं हो रही थी। यह हो नहीं सकता कि हर बरसाती मेंढक की टर्राहट तक पर कान लगाए अमेरिकी और ब्रिटिश गुप्तचर सेवाओं को पता न रहा हो कि 'ख़लीफ़त' की तोपें कहाँ दहाड़ रही हैं। ताकि यूक्रेन और रूस पर से विश्व का ध्यान हटे नहीं, ख़लीफ़त में चल रही बर्बरता की अनदेखी की जाती रही। उसकी चर्चा शुरू हुई तब, जब अगस्त 2014 में इराक़ी यज़ीदों का कत्लेआम होने के तुरंत बाद, सितंबर में, 'ख़लीफ़त' के लड़ाके नाटो गुट के सदस्य तुर्की की सीमा से सटे कोबानी शहर में कहर बरपाने लगे।
तुर्की के दर्जनों टैंक और सैनिक तब से सीमा पर खड़े तमाशा देख रहे हैं कि कोबानी किस तरह तहस-नहस हो रहा है। तुर्की कोई हस्तक्षेप नहीं कर रहा है और न ही नाटो का सदस्य होते हुए भी अपने यहाँ से अमेरिकी युद्धक विमानों को उड़ने दे रहा है, क्योंकि कोबानी कुर्दों का शहर है। कुर्द भी मुसलमान ही हैं, पर वे तुर्की, सीरिया और इराक़ के कुर्द बहुल अंचलों को मिलाकर कुर्दिस्तान बनाने का सपना देखते हैं। इसलिए तुर्की चाहता है कि 'इस्लामी ख़लीफ़त' यदि कुर्दों का सफ़ाया कर दे, तो उसकी अपनी कोई 'हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा ही चोखा रहे।' 'इस्लामी ख़लीफ़त' के लड़ाके और अधिकारी तुर्की में उसी तरह घूमते-फिरते और इलाज करवाते तथा हथियारों और तेल की कालाबाज़ारी करते हैं, जिस तरह अफ़ग़ानी तालिबान पाकिस्तान में यही गोरखधंधा करते रहे हैं।
धार्मिक पहचान की शुद्धता का भय : यह कहना कि फ्रांस जैसे यूरोपीय देशों में इस्लामी आतंकवाद एक समस्या इसलिए बन गया है, क्योंकि वहाँ के मुस्लिम आप्रवासियों को लिखने-पढ़ने, नौकरी-धंधे और सामाजिक मेलजोल में भेदभाव का सामना करना पड़ता है, केवल आधा-अधूरा सच है। स्थिति का दूसरा पक्ष यह है कि मुस्लिम आप्रवासी, अन्य समुदायों की अपेक्षा, अपनी अलग धार्मिक पहचान की शुद्धता को बनाए रखने के प्रति भयाक्रांत (पैरानोइड) सजगता दिखाते हैं। उन्हें डर लगा रहता है कि स्थानीय मूल निवासियों से वे यदि अधिक मेलजोल रखेंगे, अपने आप को समाहित करेंगे, तो धर्मभ्रष्ट हो सकते हैं। उनके बच्चे प्रेम इत्यादि के चक्कर में पड़कर परिवार और धर्म से परे जा सकते हैं। पशुओं का हलाल वध, महिलाओं के लिए बुर्का पहनने पर ज़ोर, माता-पिता द्वारा विशेषकर लड़कियों की ज़बरन शादी, पारिवारिक इज्ज़त के लिए हत्या की घटनाएँ, हर जगह मस्जिद और शरीयत की माँग स्थानीय मूल निवासियों को बेचैन करती है। उन्हें यह बिलकुल पसंद नहीं कि धर्म की आड़ लेकर उन के देशों में समानांतर समाज बनने लगें और दोहरे मानदंड चलने लगें।
जहाँ तक बेरोज़गारी और नस्लवादी भेदभाव का प्रश्न है, तो इस प्रसंग में सारे यूरोप में रोमा और सिंती अल्पसंख्यकों के साथ सदियों से चल रहे अमानुषिक भेदभाव से भी अधिक पीड़ित होने का दावा कोई दूसरा अल्पसंख्यक समुदाय नहीं कर सकता। यूरोप के सभी देशों में सदियों से रहने वाले सवा करोड़ रोमा और सिंती वे भारतवंशी हैं, जिनके पूर्वज़ों को भारत पर इस्लामी आक्रमण शुरू होने के शुरू के वर्षों में भागना पड़ा था या गुलाम बनाकर जिन्हें दूर देशों में बेच दिया गया था। रोमा और सिंतीजनों को न तो कोई घर-द्वार मिलता है और न रोज़गार। वे भारत के दलितों से भी दलित हैं, तब भी न तो कभी हथियार उठाते हैं और न बम फोड़ते हैं। उनकी दीनहीनता और सहनशीलता पर किसी को तरस तक नहीं आता। अफ्रीका के अश्वेतों को या दोनों अमेरिकी महाद्वीपों के रेड इंडियनों को भी कुछ कम अत्याचार नहीं सहने पड़े हैं, पर फ़िलस्तीनियों के साथ कथित अत्याचार जैसा कोई बहाना बनाकर वे भी दुनिया को आतंकित नहीं करते।
आखिर कितनी है यूरोपीय संघ में मुसलमानों की संख्या... पढ़ें अगले पेज पर....
यूरोपीय संघ में दो करोड़ मुसलमान : वास्तव में 50-60 पहले तक मुसलमान, यूरोपियों से और यूरोपीय, मुसलमानों से सर्वथा अपरिचित थे। यूरोप के अधिकांश देशों में जनगणना के समय धर्म नहीं पूछा जाता। इसलिए कोई नहीं जानता कि आजकल के यूरोपीय संघ के देशों में मुस्लिम जनसंख्या कितनी है। अनुमान है कि वह दो करोड़ के आस-पास है। क़रीब एक करोड़ तुर्की से आए हैं और बाक़ी एक करोड़ एशिया और अफ्रीका के अरब तथा ग़ैर-अरब मुस्लिम देशों से आए आप्रवासी हैं। फ्रांस के लगभग 60 लाख मुस्लिम निवासी अल्जीरिया, ट्यूनीशिया और मोरक्को जैसे उसके भूतपूर्व उपनिवेशों से आए हैं, जबकि जर्मनी में रह रहे 41 लाख से अधिक मुसलमानों में से आधे से अधिक ऐसे तथाकथित 'अतिथि श्रमिक' और उनकी संतति हैं, जो तुर्की के साथ श्रम-समझौतों के अधीन 1961 से आने शुरू हुए। इन 5-6 दशकों में ही फ्रांस की कुल जनसंख्या में मुसलमानों का अनुपात लगभग 8 प्रतिशत, जर्मनी में 5 प्रतिशत, ब्रिटेन में 4.6 प्रतिशत और छोटे-से स्विट्ज़रलैंड में 5.7 प्रतिशत हो गया है।
जर्मनी में बर्लिन स्थित समाजशास्त्रीय शोध के वैज्ञानिक केंद्र द्वारा 2013 में प्रकाशित एक अध्ययन का कहना है कि यूरोप के मुसलमानों के बीच 'इस्लामी कट्टरपंथ काफ़ी व्यापक' है। अधिकतर मुसलमानों का मानना है कि उनके लिए इस्लामी धार्मिक कानून-कायदे सरकारी नियमों-क़ानूनों से अधिक महत्वपूर्ण हैं। तीन-चौथाई मुसलमान तो इस्लाम के भीतर धार्मिक वैभिन्य को सरासर ठुकराते हैं।
यूरोप का इस्लामीकरण : इसी तरह नस्लवाद और विदेशी-भीति (ज़ेनोफ़ोबियो) के यूरोपीय अवलोकन केंद्र ने पाया कि मुसलमान पूरे यूरोप में 'इस्लामोफ़ोबिया' (इस्लाम-भीति) की ओर झुकाव महसूस करते हैं। जर्मनी की सर्वाधिक बिक्री वाली साप्ताहिक पत्रिका 'देयर श्पीगल' के दिसंबर 2014 के एक मत-सर्वेक्षण ने दिखाया कि देश के 34 प्रतिशत नागरिक मानते हैं कि जर्मनी का बड़े पैमाने पर इस्लामीकरण हो रहा है। पेरिस वाले आतंकवादी हमलों के दिनों में ही जर्मनी के एक सबसे बड़े मीडिया प्रतिष्ठान 'बेर्टेल्समान' ने धार्मिक भावनाओं के एक अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षण के परिणाम प्रकाशित किए। उससे पता चलता है कि जर्मनी के 57 प्रतिशत नागरिक इस्लाम को 'ख़तरनाक' मानते हैं और और दो-तिहाई का मत है कि वह पश्चिमी जगत में 'फ़िट नहीं बैठता।' पूर्वी जर्मनी के सैक्सनी राज्य के तो 78 प्रतिशत निवासियों का कहना है कि इस्लाम के नाम से उन्हें डर लगता है।
अक्टूबर 2014 में जर्मनी के इसी राज्य की राजधानी ड्रेस्डेन में 'पश्चिमी जगत के इस्लामीकरण के विरुद्ध देशभक्तिपूर्ण प्रदर्शन' (पेगिडा) की वह कड़ी शुरू हुई, जिसके अंतर्गत हर सोमवार की शाम हज़ारों लोग सड़कों पर उमड़ पड़ते हैं। सरकार और मीडिया द्वारा उसे एक स्वर से लताड़ने और नस्लवादी-नाज़ीवाद होने का लांछन लगाने को ठेंगा दिखाते हुए प्रदर्शनकारियों की संख्या अब तक हर बार बढ़ती ही गई है। 25 साल पूर्व बर्लिन दीवार गिरने वाले दिनों की ही तरह उनका नारा है 'हम ही जनता हैं' (वियर ज़िंड दास फ़ोल्क)। जर्मन मीडिया को वे बड़ी हिकारत से 'झुठबोला प्रेस' (ल्यूगेन प्रेसे) घोषित करते हैं। यह शब्द अन्यथा हिटलर के समय के झुठबोले प्रेस के लिए इस्तेमान होता रहा है। पेरिस-हत्याकांड के बाद वाले सोमवार के दिन 25 हज़ार से अधिक प्रदर्शनकारियों की रेकॉर्ड संख्या, बर्फीली ठंड और तूफ़ानी हवाओं को झुठलाते हुए ड्रेस्डेन की सड़कों पर उमड़ पड़ी। मीडिया के नाम पत्रों और ई-मेल लिखने वालों के बीच इस अपूर्व आंदोलन के प्रति समझ और एकजुटता भी तेज़ी से बढ़ रही है। लक्षण यही हैं कि पेरिस जैसा यदि यूरोप में कहीं कोई नया हत्याकांड हुआ, तो स्थिति बहुत ही भयावह मोड़ ले सकती है। आतंकवादी यही चाहते हैं।
अब टूट रहा है धीरज का बांध.... पढ़ें अगले पेज पर....
धीरज का बाँध भी टूट रहा है : यूरोप के बहुत-से बुद्धिजीवियों के धीरज का बाँध भी टूटता दिख रहा है। फ्रांस के जाने-माने दार्शनिक बेर्नां-अंरी लेवी ने पेरिस में सरकार द्वारा आयोजित रविवार 11 जनवरी के एकजुटता-प्रदर्शन के समय क्षुब्ध स्वर में देश के नेताओं से आग्रह किया कि 'इस्लामवाद को सामाजिक दरिद्रता का लक्षण बताकर इस्लाम को निरापद ठहराना अब बंद करो।' यह राग अब बहुत हो चुका। उन्होंने जोर देकर कहा कि इस्लाम (धर्म) को (राजनीतिक) इस्लामवाद के चंगुल से छुड़ाने के दृढ़संकल्प का यही सही समय है। जर्मनी के म्युंस्टर विश्वविद्यालय में इस्लामी शिक्षाशास्त्र के प्रोफ़ेसर और लेबनान में जन्मे स्वयं एक मुसलमान मौहनाद खोर्शीदी का भी मत है कि 'यह कहना वाहियात दावा है कि इस आतंकवाद का इस्लाम से कोई सरोकार नहीं है। आतंकवादी आखि़रक़ार मुसलमान ही तो हैं।'
42 वर्षीय इस्लाम विशेषज्ञ हामेद अब्देल समद मिस्र की राजधानी काहिरा के पास के पिरामिडों वाले गी़ज़ेह में जन्मे हैं। 19 वर्षों से वे जर्मनी मे रह रहे थे। जुलाई 2014 से ग़ायब हैं। अपनी विदाई से पहले फ़ेसबुक पर उन्होंने लिखा कि मैं जर्मनी छोड़ने जा रहा हूँ, 'जर्मनी मेरे जैसे लोगों के रहने के लिए लगातार कष्टदायक होता जा रहा है... मैं थक गया हूँ और अपने ऊपर और ज्यादा दबाव अब सह नहीं सकता।' उनके ऊपर क्या दबाव था? और कौन दबाव डाल रहा था, यह पता नहीं है। अटकल लगाई जाती है कि जर्मनी की इस्लामी संस्थाएं और उनके कहने पर संभवतः जर्मन सरकार उनका मुँह बंद करने का प्रयास कर रही थी।
पुस्तक प्रकाशन के बाद मौत का फ़तवा : अरबी और जर्मन भाषा के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, जापानी और फ्रेंच बोलने वाले और इस्लाम के अतिरिक्त ईसाई, बौद्ध, शिंतो तथा यहूदी धर्म का अध्ययन कर चुके समद जर्मनी के एयरफुर्ट विश्वविद्यालय में इस्लाम शास्त्र और म्युनिक विश्वविद्यालय में यहूदी धर्म का इतिहास पढ़ाया करते थे। 2013 में उनकी लिखी पुस्तक 'इस्लामी फ़ासिज्म- एक विश्लेषण' प्रकाशित होते ही उन्हें धमकियाँ मिलने लगीं। मिस्र में उन्हें मार डालने का एक फ़तवा भी एक टेलीविज़न चैनल पर पढ़कर सुनाया गया। जून 2013 में मिस्र की एक व्याख्यान यात्रा के समय में उनका अपहरण भी हुआ। जर्मनी के प्रयासों से उन्हें किसी तरह रिहाई मिली तो सही, पर धमकियों का ताँता लगा रहा।
अपनी पुस्तक में हामेद अब्देल समद का कहना है कि धार्मिक इस्लाम के धरातल पर एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में इस्लामवाद का अविर्भाव इतालवी फ़ासीवाद और जर्मन नाज़ीवाद के लगभग समानांतर 1920 वाले दशक में हुआ। उसकी जड़ें हालांकि आदिकालीन इस्लाम तक जाती हैं। कुरान शरीफ़ अल्लाह के प्रति जिस आजीवन, समग्र एवं संपूर्ण समर्पण की माँग करता है, समद के अनुसार, वह एक-ईश्वरवाद ही नहीं है, राजनीतिक संदर्भ में अपने नेता के प्रति फ़ासीवादीपूर्ण निष्ठा की अटल शपथ भी है। यही नहीं, कुरान अपने सार्वजनीन, विश्वव्यापी अनुपालन, इस्लाम धर्म को सर्वोपरि रखने और काफिरों से घृणा करने का जो आग्रह करता है, वह भी फ़ासीवादी तानाशाही जैसा ही है। स्वाभाविक है कि इस्लाम और इस्लामवाद की व्याख्या से हामेद अब्देल समद ने अपने लिए मुसीबतों को न्योता ही दिया है।
एक जर्मन पोर्टल के साथ मई 2014 में एक इंटरव्यू में समद ने जर्मन इतिहासकारों और राजनेताओं को भी यह कहकर अपना शत्रु बना लिया कि 'वे झूठ बोलते हैं, जब वे कहते हैं कि इस्लाम और इस्लामवाद का एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं है। वे जनता को गुमराह करते हैं, जब वे बार-बार दुहराते हैं कि इस्लाम और लोकतंत्र की एक-दूसरे के साथ संगति बैठ सकती है।' समद का कहना था कि जर्मन इस्लामशास्त्री देश के राजनेताओं को इस्लाम की वही व्याख्या परोसते हैं, जो राजनेता उनसे चाहते हैं। यह कहना कि अतिवादी या आतंकवादी तत्व इस्लाम का दुरुपयोग कर रहे हैं, राजनेताओं के लिए मनभावन ऐसी ही एक भ्रामक व्याख्या है। जर्मन जनता का बहुमत दक्षिणपंथी या अतिवादी नहीं, पूरी तरह सामान्य है। उसकी चिंताएँ पूरी तरह स्वाभाविक हैं। समद का मानना है कि 'इस्लामवाद जर्मनी के लिए भी बेहद ख़तरनाक है। ...यूरोप में उग्रवादी मुसलमानों की संख्या 2001 के बाद से 10 गुना बढ़ गई है। और भी ख़तरनाक बात यह है कि वे स्कूली बच्चों पर भी डोरे डालने और समाज में फूट पैदा करने लगे हैं।'
इन पंक्तियों को लिखने के साथ ही बेल्जियम से समाचार आया है कि वहाँ के वेविएर नामक स्थान पर सुरक्षाबलों के एक अभियान में दो संदिग्ध इस्लामी आतंकवादी मारे गए, एक तीसरा घायल हो गया व गिरफ्तार कर लिया गया। जर्मनी और फ्रांस के बीच स्थित बेल्जियम दोनों का सीमावर्ती पड़ोसी है। वहां के सरकारी अभियोक्ता का कहना है कि तीनों संदिग्ध सीरिया से वापस लौटे थे और भारी हथियारों से लैस थे। बेल्जियम में आज शाम (15 जनवरी) को एक देशव्यापी आतंकवाद निरोधक अभियान में एकसाथ एक दर्जन छापे मारे गए। कुछ कार्रवाइयां इन पंक्तियों को लिखने तक जारी थीं। कहा जा रहा है कि पुलिस को बेल्जियम में भी पेरिस जैसे आतंकवादी हमलों की तैयारी का सुराग मिला था। कहने की आवश्यकता नहीं कि नया साल यूरोप के लिए आतंकवादी हमलों का भयावह साल बन सकता है।
समाचार यह भी है कि फ्रांस ने अपना एकमात्र विमानवाही पोत 'शार्ल दे गॉल' मध्य-पूर्व की तरफ रवाना कर दिया है ताकि वहाँ 'तनाव बढ़ने की स्थिति में' समुचित कार्रवाई की जा सके।