बहुत पेंच हैं अमेरिका-तालिबान समझौते के बीच

शरद सिंगी
पिछले सप्ताह 29 फरवरी को कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका और अफगानिस्तान के संगठन तालिबान के बीच एक ऐतिहासिक समझौता हुआ और उम्मीद की जा रही है कि लगभग 2 दशकों से चला आ रहा अमेरिका और तालिबान के बीच युद्ध अब समाप्त हो जाएगा, जिसमें एक लाख से अधिक नागरिक अपनी जान से हाथ धो चुके हैं। यद्यपि तालिबान के इतिहास से सभी पाठक परिचित हैं। यह वही संगठन है जिसे अफगानिस्तान में रूस के विरुद्ध अमेरिका ने खड़ा किया था और अमेरिका के ही कहने पर पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई ने इसे पोषित किया था और ट्रेनिंग दी थी।

रूस के आधिपत्य के विरुद्ध अफगानिस्तान में इन्होंने वर्षों तक लड़ाई लड़ी और अंत में रूस को अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा था। इसी तरह अमेरिका, जब अलकायदा को नष्ट करने अफगानिस्तान में घुसा तो उसे तालिबान के विरुद्ध भी लड़ना पड़ा, क्योंकि तालिबान और अलकायदा दोस्त बन चुके थे। अलकायदा तो लगभग साफ हो गया, किंतु अमेरिका तालिबान को समाप्त नहीं कर पाया। विशेषकर पाकिस्तान के अंदरुनी समर्थन की वजह से।

इतने बम झेलने के पश्चात् भी अफगानिस्तान का चालीस प्रतिशत भाग आज भी तालिबान के कब्जे में है। शांति समझौते के अनुसार, अमेरिका की सेना 18 महीने में अफगानिस्तान से निकल जाएगी। तालिबान ने वादा किया कि उनके लड़ाके, अमेरिकी और उसके सहयोगी देशों की सेना पर हमला नहीं करेंगे, किन्तु इस समझौते में अफगनिस्तान की सरकार को पार्टी नहीं बनाया गया था।

अब अगला समझौता अफगानिस्तान की सरकार और तालिबान के बीच होगा जिसमें सत्ता का बंटवारा होना है। इस बीच यदि तालिबान ने कोई हिंसक हमला किया तो समझौता समाप्त हो जाएगा। अफगानिस्तान की सरकार और जनता को तालिबान के रुढ़िवादी रवैए से अब चुनौती मिलेगी। तालिबान का रुढ़िवादी और अतिवादी समाज प्रगतिशील समाज के लिए एक समस्या है। दूसरी तरफ रूस से लगे उत्तरी अफगानिस्तान के लोगों की सोच तो बहुत आधुनिक है।

इसलिए यद्यपि अमेरिका ने बाहर निकलने की गली तो ढूंढ ली है किन्तु अफगानिस्तान का मुख्य धड़ा जो विशेषकर भारत का मित्र है उनके साथ तालिबान का क्या रवैया होगा यह चिंता का विषय है। इस समझौते के बावजूद शांति स्थापित होना आसान नहीं होगा क्योंकि इस खेल में खिलाड़ी बहुत सारे हैं। कुछ धर्म के नाम पर लड़ रहे हैं तो कुछ अपने स्वार्थ के लिए और कुछ को मालूम नहीं है कि वे क्यों अपनी जान दे रहे हैं।

पाकिस्तान की सरकार और उसकी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई का क्या रुख रहता है वह भी बहुत महत्वपूर्ण है।
 पश्तूनों का एक बहुत बड़ा धड़ा पाकिस्तान को बिलकुल पसंद नहीं करता। अफगानिस्तान-पाकिस्तान की सीमा पर शांति होना पाकिस्तानी सेना की निरंतर होने वाली आमदनी के लिए भी खतरा है। अमेरिका के बाहर निकलने के बाद, उसे धन मिलना बंद हो जाएगा। इसके अतिरिक्त और भी कई पेंच हैं इस समझौते में।

देखना अब ये है कि क्या अफगानिस्तान आधुनिकीकरण की तरफ जाएगा या फिर कट्टरपंथ की दिशा में, जहां नेल पोलिश लगाने पर महिलाओं के नाखून खींच लिए जाते थे। संगीत सुनने पर मनाही थी। लड़कियां स्कूल नहीं जा सकती थीं। अमेरिका और पश्चिमी देश अफगानिस्तान में अपना लहू बहुत बहा चुके हैं इसलिए उनसे और उम्मीद करना तो बेकार है, किन्तु अफगानिस्तान में विभिन्न पक्षों के बीच उलझी हुई स्थितियों को देखते हुए अमेरिका का बाहर निकलना इतना आसान भी नहीं दिख रहा है। 

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