आसान नहीं है लोकप्रियता के शिखर पर बने रहना

शरद सिंगी
लोकतंत्र में लोकप्रियता अर्जित करना जितना कठिन है उतना ही आसान है अर्जित लोकप्रियता को खो देना। शून्य से शिखर पर पहुँचने का मार्ग बहुत दुर्गम और लम्बा होता है किन्तु शिखर से शून्य पर लुढ़कने का मार्ग बहुत आसान और छोटा होता है। विश्व के प्रजातान्त्रिक देशों में अनेक ऐसे राजनेता हुए हैं जो अपने देश में हुए चुनावों के समय लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचे तथा चुनावों में भारी बहुमत से जीतकर राष्ट्राध्यक्ष भी बने किन्तु सत्ता में आते ही उनकी लोकप्रियता का ग्राफ बहुत तेजी से नीचे गिरा।
 
इस सम्बन्ध में ताजा उदाहरण है फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांकोइस होलांदे का जिन्होंने  पिछले चुनावों में  पूर्व राष्ट्रपति  निकोलस सरकोजी को भारी  बहुमत से परास्त किया था। दो वर्षों के भीतर ही वे  पूरी तरह जनता के नज़रों से उतर चुके है।  हाल ही में किये गए एक सर्वेक्षण में उन्हें केवल पंद्रह प्रतिशत लोगों ने पसंद किया। स्थिति यहाँ तक बिगड़ चुकी है कि न तो कोई उनपर ध्यान देता है और न ही कोई उन्हें गंभीरता से सुनता है।  वर्तमान नेताओं में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा और नवाज़ शरीफ का नाम भी इसी सूची में आता है। पूर्व राष्ट्राध्यक्षों में जॉर्ज बुश, इंग्लैंड के गॉर्डन ब्राउन, जापान के युकिओ हतोयामा, फिलीपींस की राष्ट्रपति ग्लोरिया जैसे अनेक नाम हैं जो बड़ी शीघ्रता से जनता की नज़रों से उतर गए। आइये, इन महारथियों के इस तरह धराशायी होने के कारणों को जानने की कोशिश करते हैं। 
 
 
किसी नाकाम सरकार के विरुद्ध कुशल वक्ता शीघ्र ही लोकप्रियता पा लेते है और सारे नकारात्मक वोट भी  इन नेताओं की झोली में आ जाते  हैं।  ओबामा को शायद सकारात्मक वोटों से ज्यादा नकारात्मक वोट मिले थे उन लोगों के जो उस समय जॉर्ज बुश के निर्णयों से सहमत नहीं थे। किन्तु सत्ता में आने के पश्चात  जनता की अपेक्षाओं को ओबामा पूरी नहीं कर सके और अब वे लोकप्रियता के  शिखर से उतर चुके हैं। मुश्किल तो ये है कि कुशल वक्ता अपनी वक्तृत्व शैली की वजह से जनता की अपेक्षाओं का स्तर तो बढ़ा देते हैं  किन्तु चुने जाने के बाद स्वयं अपने ही बुने जाल में फँस जाते हैं। तो क्या अच्छे वक्ता महान नेता नहीं बन सकते ? नहीं, महान नेता केवल अपने वक्तृत्व से महान नहीं बनते। महान वे बनते हैं जो बिना भय और पक्षपात के अपनी बात पर अडिग रहते हैं। जो सच्चे होते हैं और  पारदर्शी होते हैं।  सत्य को तोड़ मरोड़ कर पेश नहीं करते। सीधे जनता की भावनाओं के साथ जुड़ते हैं। 
 
जब कोई व्यक्ति शीर्ष पद को प्राप्त कर लेता है तब उसके पास और अधिक पाने के लिए कुछ नहीं होता।  ऐसी स्थिति में स्व प्रेरित होकर निरंतर उस पद  पर अपनी पकड़ बनाये रखना चुनौतीपूर्ण होता जाता है।  समय बीतने के साथ यह चुनौती और बड़ी होने लगती है। ऊपर से वादों को पूरा करने का  दबाव।  एक वादा पूरा करने के लिए किसी न किसी  पक्ष की हानि करनी होती है।  एक वर्ग का हित करने के  लिए दूसरे वर्ग का अहित करना पड़ता है। एक क्षेत्र के साथ न्याय करें तो दूसरे के साथ अन्याय होता है। याने वादे पूरे करें तो मुसीबत, न करें तो मुसीबत।  ऐसी परिस्थिति में अच्छे से अच्छे नेता भी निष्क्रिय हो जाते हैं और निर्णय लेने से कतराते हैं। ऐसे में उनकी लोकप्रियता को ग्रहण लगना स्वाभाविक है।  इसमें कोई शक नहीं कि नेताओं को कठिन विकल्पों में से एक को चुनना होता है। सच कहें तो महान नेता वे होते हैं जो अपनी लोकप्रियता खोने के डर से कभी अप्रिय निर्णय लेने में पीछे नहीं हटते।  
 
केवल  किसी पद को प्राप्त भर कर लेने का लक्ष्य रखने वाला नेता कभी महान नहीं बन सकता क्योंकि पद को पा लेने के बाद वह लक्ष्य रहित हो जाता है और उसे नियति नीचे धकेल देती है।  जो महान बनते हैं वे उद्देश्यों को अपना लक्ष्य रखते  हैं और हर उद्देश्य को पूर्ण करने के बाद और अधिक दुष्कर उद्देश्य को अपना लक्ष्य निर्धारित करते  हैं। इस तरह वे कभी लक्ष्य रहित नहीं होते और जनता एवं कार्यकर्ताओं के साथ जुड़े रहते हैं। अतः यदि अपनी लोकप्रियता बरक़रार रखनी है तो दुष्कर लक्ष्यों को पाने के लिए अविराम प्रयत्न करते रहना होगा।  
 
विश्व के राजनैतिक मंच पर राजनेताओं की अहमियत और शख्सियत इस बात पर निर्भर करती है कि उनके अपने देश में उनका जनाधार क्या है। स्वाभाविक है जिनका  जितना अधिक जनाधार  होगा वह उतना अधिक सम्मानीय होगा किन्तु अपने देश में उस राजनेता की गिरती छवि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी स्वयं के साथ उनके राष्ट्र की आवाज़ को भी कमज़ोर कर देती है। आलेख के प्रारम्भ में उल्लेख किये गए फ्रांस के राष्ट्रपति होलांदे के उदाहरण को पुनः इस सन्दर्भ में देखेंगें तो समझेंगें कि फ्रांस एक महाशक्ति होने के बावजूद भी वैश्विक मंच पर उसका प्रभाव क्षीण क्यों होता जा रहा है। भारत भी पिछले कई वर्षों से इस स्थिति से गुजर चुका है किन्तु अब हमारे प्रधानमंत्री विश्व मंच पर एक बहुमत की सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं। विश्वास तो यही करें कि वे अपने लोकप्रियता के ग्राफ को नीचे नहीं उतरने देंगें ताकि देश में दीर्घकालीन स्थिरता के साथ साथ भारत की आवाज़ विश्व में पुनः एक ताकत बन कर उभर सके।
 
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