अपनों की उपेक्षा, उदासीनता का परिणाम

विवेक त्रिपाठी
पराजय निराशाजनक होती है। भाजपा के जमीनी कार्यकर्ता व समर्थक भी गोरखपुर और फूलपुर चुनाव परिणामों से कुछ उदास हुए, लेकिन उपेक्षा का दर्द छलक ही गया। सरकार बनी, अनेक लोग सत्ता के गलियारे में दाखिल हुए। भाजपा का प्रदेश कार्यालय भी कॉपोरेट जगत की मानिंद हो गया।


गार्ड रास्ता रोकने लगे। एक वर्ष बाद भी निगम के पद भरे नहीं जा सके। हिंदी साहित्य भवन, गौ सेवा आयोग में जिन्हें कमान सौंपी गई, उनका अतीत निराश करने वाला है। अधिकारियों की मनमानी अपनी जगह है। ऐसे में शर्मनाक पराजय के बावजूद कार्यकर्ता इसे अपरिहार्य बता रहे हैं। समर्थकों की उदासी के कारण ही मतदान का प्रतिशत इतना कम था।

अनेक मंत्रियों का अहंकार कार्यकर्ताओं को चिढ़ाता है। मतगणना के समय यह सच्‍चाई सबके सामने थी। विधानसभा के अन्दर ग्यारह बजे के हालत में बीजेपी के विधायक खुशनुमा महौल में कह रहे थे जो भी हो रहा है ठीक है। यही होना चाहिए। कार्यकर्ताओं की उपेक्षा अधिकारियों को बढ़ावा देने के लिए सरकार जिम्मेदार और यह हार जरूरी है, लेकिन यह कारवां यही नहीं रूका, भाजपा कार्यालय पहुंचने पर लगातार सिलसिला जारी रहा, एक से बढ़कर एक चटक भगवा कलर के कुर्ते वाले लोग चेहरे से दुखी थे, पर मन से खुशी से थे, वह भी कह रहे थे जो हुआ ठीक यही होना चाहिए।

जब अहंकार बढ़ जाए, कार्यकर्ताओं को सिर्फ झंडा ढोने वाला समझा जाए, बाहर से आयातित व्यक्तियों को सर माथे बिठाया जाए तो हमारी कद्र कौन करेगा। यह सब सुनते-सुनाते लगभग 2 बज गए। ऐसा लग रहा था मानों कोई भी नहीं चाहता कि सरकार यह सीटें जीते। लोग भले ही आत्ममंथन वाली मुद्रा में नजर आ रहे हों, पर वह आत्मखुश थे। उनका तर्क भी था सिद्धांत और विचार सत्ता के साथ भाजपाई भूल जाते हैं। सरकार में आते ही बहुत सौम्य और संस्कारित हो जाते है।

कोई भी सबसे ऊपर अपने को समझने लगते हैं। एक चाचा मिले, बोले, सालभर होने को है, सारे निगम पद खाली हैं। अभी दर्जे वाले पद भी इक्का-दुक्का ही भरे। कार्यालय के ऊपर चढ़ने पर गार्ड रास्ता रोकते हैं। जो हमने अपने खून-पसीने से बनाया, वहां पर अहंकार रहने लगता है। कोई नेता धरातल पर नहीं है। जो पद पर हैं, वह महापुरुषों के नाम पर उन्हीं के रास्ते पर चलने का पाठ पढ़ाते हैं। खुद वैभव और भोग-विलास में हैं, काम बता दो तो सौ बहाने बनाकर टाला जाता है। तो क्या हम सिर्फ झंडा ढोने के लिए बने हैं, यह सिर्फ बूथ संभालने के लिए।

बढ़ते गए तरह-तरह के लोग मिलते रहे, उनमें से एक मिले, जिन्होंने कहा कि दोनों सीटों पर भाजपा के अहंकार और कार्यकर्ता की निराशा के कारण यह लोग हारे। इन्होंने अगर आगे चलकर अपने में सुधार नहीं किया तो और भी हारते रहेंगे। कार्यकर्ता को उचित सम्मान मिले। बाहर से आयातित और फर्जी लोगों को बढ़ावा देना अब नहीं चलेगा। यह जनता-जनार्दन है, पलभर में रंक बना देती है।

इसी बात पर एक शेर, 'हमें तो अपनों ने लूटा गैरों में कहां दम था, मेरी कश्ती भी वहां डूबी जहां पानी कम था।' मात्र दो सीटें जिताने से विपक्ष को तकनीकी रूप से कोई लाभ नहीं होगा। करीब एक वर्ष बाद इन सीटों पर पुनः चुनाव होंगे, लेकिन इस जीत ने सपा-बसपा का मनोबल बहुत बड़ा दिया है। दूसरी ओर भाजपा के समर्थक व कार्यकर्ता उदासीन हैं। सरकार और संगठन दोनों को इस ओर ध्यान देना होगा अन्यथा आम चुनाव का परिणाम भी ऐसे ही निराशाजनक हो सकता है।

सम्बंधित जानकारी

Show comments

अभिजीत गंगोपाध्याय के राजनीति में उतरने पर क्यों छिड़ी बहस

दुनिया में हर आठवां इंसान मोटापे की चपेट में

कुशल कामगारों के लिए जर्मनी आना हुआ और आसान

पुतिन ने पश्चिमी देशों को दी परमाणु युद्ध की चेतावनी

जब सर्वशक्तिमान स्टालिन तिल-तिल कर मरा

Lok Sabha Elections : मतदान के आंकड़े 48 घंटे के भीतर जारी करने की मांग, Supreme Court ने चुनाव आयोग से मांगा जवाब

प्रधानमंत्री मोदी लोकतंत्र खत्म करना चाहते हैं : अरविंद केजरीवाल

कांग्रेस का माओवादी घोषणा पत्र लागू हुआ तो भारत दिवालिया हो जाएगा : प्रधानमंत्री मोदी

अगला लेख