viral memes on marriage : औरत का नाम प्रेम, ममता और भरोसे का पर्याय माना जाता है लेकिन हाल की कुछ घटनाओं ने नारी की छवि पर सवाल खड़े किए हैं। बीते दिनों उत्तराखंड के कोटद्वार, राजा और सोनम रघुवंशी, और मेरठ के मुस्कान, सौरभ और साहिल जैसे मामले ने सोशल मीडिया पर खूब हलचल मचाई है। इन घटनाओं ने समाज में एक नई बहस छेड़ दी है, जहां महिलाओं की वफादारी पर सवाल उठाए जा रहे हैं और शादी जैसे पवित्र रिश्ते को लेकर तरह-तरह के मजाक और ताने गढ़े जा रहे हैं। लेकिन क्या इन कुछ घटनाओं के आधार पर पूरे महिला समाज को कठघरे में खड़ा करना सही है? क्या यह सच में महिलाओं की स्वतंत्रता से जुड़ा मुद्दा है?
क्या कुछ घटनाओं से तय होती है पूरे माहिला समाज की छवि?
यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब भी कोई गंभीर अपराध सामने आता है, खासकर जिसमें महिला शामिल हो, तो समाज का एक बड़ा हिस्सा तुरंत महिलाओं की भूमिका पर सवाल उठाना शुरू कर देता है। अपराध की प्रकृति, उसके पीछे के कारण और मानवीय संवेदनाओं को तार-तार करने वाली क्रूरता पर बात करने की बजाय, पूरी महिला जाति को निशाने पर ले लिया जाता है। अपराध, आखिर अपराध होता है, चाहे वह किसी पुरुष, महिला, बच्चे या बुजुर्ग के साथ हो। उसे लिंग के आधार पर हल्का या गंभीर नहीं समझा जा सकता। फिर भी, सोशल मीडिया पर चल रहे शादी से जुड़े मीम्स और चुटकुले इस बात का संकेत देते हैं कि समाज में अभी भी महिलाओं को लेकर एक गहरी पूर्वाग्रह और रूढ़िवादिता मौजूद है।
क्या यह महिलाओं की स्वतंत्रता का गलत अर्थ है?
कुछ लोग इन घटनाओं को महिलाओं की बढ़ती स्वतंत्रता से जोड़कर देखने की कोशिश करते हैं। उनका मानना है कि महिलाओं को मिली आजादी ने उन्हें ऐसे अपराधों की ओर धकेला है। लेकिन यह सोचना पूरी तरह से गलत है। स्वतंत्रता का अर्थ किसी भी सूरत में अपराध करने की छूट नहीं है। वास्तविक स्वतंत्रता का मतलब है जिम्मेदारी, नैतिक मूल्य और समाज के प्रति सम्मान। अगर कुछ महिलाएं अपराध करती हैं, तो यह उनके व्यक्तिगत कृत्य हैं और उन्हें कानून के दायरे में देखा जाना चाहिए। इसके आधार पर पूरी महिला जाति की छवि को जज करना और उनकी स्वतंत्रता पर सवाल उठाना सरासर अन्याय है।
समाज की किस सोच की ओर कर रहा है इशारा?
सोशल मीडिया पर चल रहा यह मजाक और तानों का सिलसिला समाज की उस सोच की ओर इशारा करता है, जहां महिलाओं को अभी भी पुरुषों से कमतर या नियंत्रित किए जाने योग्य समझा जाता है। यह पितृसत्तात्मक सोच का ही एक विस्तार है, जहां महिलाओं के हर कदम को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। यह दिखाता है कि हम अभी भी महिलाओं को 'आदर्श' की कसौटी पर कसते हैं और किसी एक महिला से चूक होने पर हमारा समाज पूरी महिला जाति को सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करने और कोसने से नहीं हिचकता।
हमें यह समझना होगा कि हर समाज में अच्छे और बुरे लोग होते हैं। कुछ लोगों के अपराधों को पूरे वर्ग पर थोपना न सिर्फ गलत है, बल्कि समाज के ताने-बाने को भी कमजोर करता है। हमें इन घटनाओं पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और अपराध के मूल कारणों को समझना चाहिए।