आग रोटियाँ सेंकने के लिए होती है जलने के लिए नहीं

-माहीमीत

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पिछले दिनों मुंबई में एक ऐसे अनोखे कवि से मुलाकात हुई, जो अपनी माटी, हवा, पानी और तहजीब की खुशबू से बेहद प्रेम करता है। इस प्रेम में इतना डूबा हुआ है कि उसे बाहरी महानगरी दुनिया से कोई वास्ता नहीं है। यह सुनकर एकबारगी तो थोड़ी हैरानी हो सकती है क्योंकि मुझे भी इस कवि ने इसी तरह हैरान किया था। हालांकि बाद में जब उनकी कविताओं पर नजर डाली तो खुदबखुद विश्वास होने लगा कि वाकई यह एक असाधारण प्रेम है। यह कौतुक कवि है, राजस्थान की ओजस्वी मिट्टी में पलकर बढ़े हुए ऋतुराज।

पिछले दिनों उन्हें मुंबई की एक साहित्यिक संस्था ने इस अलहदा कवि का सम्मान करने के लिए बुलाया था। इससे ज्यादा हैरानी तो तब हुई जब ऋतुराज ने बताया कि चलो सम्मान के बहाने कम से कम उन्होनें मुंबई को तो देख ली। यूं तो ऋतुराज चीन सहित कई जगह देश की सरहद से बाहर भी घूमने गए है।

मुंबई कैसे छूट गई यह एक अलग बात है, लेकिन वास्तव में देखा जाए विजयदान देथा के बाद वह एक ऐसे नायाब रचनाकार है, जिन्हें अपनी मिट्टी से बेहद लगाव है। यह दोनों ऐसे कवि है जो भी रचते है अपनी मिट्टी की गोद में बैठकर रचते है। शायद यही एक कारण रहा होगा कि है कि उन्हें कभी मायानगरी मुंबई देखने का मौका नहीं मिला हो। उनकी एक कविता मां का दुख में वह लिखते है कि-

माँ ने कहा पानी में झाँककर
अपने चेहरे पर मत रीझना
आग रोटियाँ सेंकने के लिए होती है
जलने के लिए नहीं
वस्त्राभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह
बंधन हैं जीवन के।

एक कारण है यह भी है कि वह कभी मायानगरी मुंबई के सौन्दर्य पर रीझे नहीं, कभी इस शहर ने उन्हें आकर्षित नहीं किया। फिर यह वाकई सच है कि जिस इंसान को जमीं पर लेटना पसंद हो उसे आरामदायक गद्दों पर कभी चैन की नींद नहीं आ सकती है। ऋतुराज के लिए फिर यह महज पुरजोर सुकूं की बात नहीं है। उन्हें सुकून महज एक भ्रम ही लगता है। खैर उनके यथार्थ व्यक्तित्व जितनी बात की जाए वह कम ही होगी है। उनसे मुझे बात करके यही लगा कि वह बेहद शांत स्वभाव के लेकिन आम आदमी के लिए एक मजबूत आधार देने वाले कवि है।

जब उनसे बातों बातों में पूछा गया कि उन्हें कभी छंदबद्ध कविता लिखने की इच्छा नहीं हुई तो उन्होंने बड़ी शालीनता से जवाब दिया कि आम आदमी का दुख-दर्द, उनकी समस्याएं और जीवन संघर्ष कविता के सौन्दर्य से कहीं अधिक प्रिय है। वह कहते है कि आम व्यक्ति जीवन का संघर्ष उन्हें बहुत कचोटता है। अंदर ही अंदर झकझोरता है। यही कारण है कि वह जब कविता लिखते है उनके दिलो दिमाग में दुख की भयावयता की लकीरें अपने अपने आप खिंचने लगती हैं। अगर चंद पंक्तियों में उनकी कविता पर बात की जाए तो कहा जा सकता है कि उनकी कविता अंदर ही अंदर घाव करने लगती है। पश्चिमी संस्कृति पर भी वह गहरा प्रहार करते है-

राजधानी में सब कुछ उपलब्ध है
बुढापे में सुंदरियाँ
होटलों की अंतर्महाद्वीपीय परोसदारियाँ

असल में देखा जाए तो ऋतुराज को महानगर की आबोहवा और संस्कृति कभी नहीं भायी। वह राजधानी कविता में यही सबकुछ लिखते हैं। अब देखिए इस कविता की कुछ पंक्तियां जो आपको अंदर-अंदर ही कचोटती हैं। ऋतुराज की कलम से अभी तक कई कविता संग्रह आ चुके हैं। उनकी कुछ प्रमुख कृतियों मैं आंगिरस, पुल पर पानी, सुरत निरत, एक मरणधर्मा और अन्य, कितना थोड़ा वक्त, अबेकस, आशा नाम नदी है। उन्हें पहल सम्मान, बिहारी सम्मान, सहित कई सम्मान मिल चुके है। उनकी रचनाओं का अनुवाद अंग्रेजी और रूसी भाषा में हो चुका है।


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