काला धन : बैंक-गोपनीयता क़ानून से बंधा स्विट्ज़रलैंड

राम यादव
मंगलवार, 27 नवंबर 2012 (16:00 IST)
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नन्हा-सा स्विट्ज़रलैंड : जहाँ तक स्विट्ज़रलैंड की बात है, वह बित्ते-भर का एक ऐसा यूरोपीय देश है, जो भारतीय लद्दाख के अकेले उस भूभाग जितना ही बड़ा है, जिसे 1962 से चीन ने दबा रखा है। देश की मात्र 80 लाख (दिल्ली की आधी) जनसंख्या में 64 प्रतिशत जर्मनभाषी हैं, बाक़ी तीन अन्य भाषाएँ बोलते हैं।

वहाँ का बैंक-गोपनीयता क़ानून ऐसा है कि सरकार भी मोटे तौर पर इतना ही जानती है कि देश के सकल धनोपार्जन (वैल्यू क्रिएशन) में बैंकिंग सेक्टर का योगदान लगभग 7 प्रतिशत के बराबर है। देश के भीतर कुल एक लाख 35 हज़ार लोग बैंकों में काम करते हैं-- यानी हर 60 वाँ निवासी बैंक कर्मचारी है।

2009 में स्विस बैंकों में जमा कुल धनराशि 56 खरब स्विस फ्रांक के बराबर थी, जोकि 2011 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद 17 खरब डॉलर के तीन गुने से भी अधिक है (एक फ्रांक इस समय लगभग एक अमेरिकी डॉलर के बराबर है)। इस धनराशि का 55 प्रतिशत हिस्सा (30 खरब फ्रांक) विदेशी ग्रहकों की देन था। अकेले बैंकिग सेक्टर से ही सरकार को 18 प्रतिशत तक कर-राजस्व मिल रहा था।

कहने की आवश्यकता नहीं कि विदेशी धन स्विस बैंकिंग सेक्टर की और बैंकिंग सेक्टर स्विस अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। सरकार इस रीढ़ को भला कैसे टूटने दे सकती है? उस पर वर्षों से अमेरिका ही नहीं, पूरे यूरोपीय संघ और "आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन" ( OECD) का भी भारी दबाव है कि वह अपने बैंक-गोपनीयता क़ानून को ढीला करे, विदेशी काले धन की जमाख़ोरी और करचोरी को रोकने में हाथ बंटाए।

स्विस सरकार ने मनमार कर ओईसीडी और यूरोपीय संघ के साथ इस आशय के समझौते भी किये हैं। जर्मनी के साथ एक अलग समझौता इस समय अपने पुष्टीकरण की प्रतीक्षा कर रहा है। पर, इन सभी क़दमों का कोई उल्लेखनीय असर देखने में नहीं आया है।

जर्मनी का उदाहरण: जर्मनी को ही ले लें। जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड साझी सीमा, साझी भाषा और रोटी-बेटी के संबंधों वाले पड़ोसी देश हैं। दोनों देशों के निवासी जब चाहें तब, बिना वीसा पैदल, कार या ट्रेन से दोनों तरफ आ-जा सकते हैं। तब भी दोनों देशो के बीच इस समय राजनैतिक तनाव है।

यूरोपीय वित्त बाज़ार विश्लेषण संस्था "हेल्वेआ " का अनुमान है कि स्विस बैंकों में जमा 80 प्रतिशत काला धन यूरोपीय संघ के देशों का है। यूरोपीय संघ के खातेदारों द्वारा 2010 में वहाँ कुल जमा अनुमानतः 880 अरब स्विस फ्रांक में इटली और जर्मनी वासियों के 220-220 अरब, फ्रांस के 135 अरब और यूरोपीय संघ के अन्य देशवासियों के 325 अरब फ्रांक थे। भारी बजट-घाटे और ऋणभार से दबे इन सभी देशों को अपनी साझी मुद्रा यूरो को डूबने से बचाने के जिस "साझे उद्धार कोष" के लिए इस समय जो पैसा चाहिये, वह सारा पैसा स्विस बैंकों में काले धन के रूप में जमा है, पर किसी भी देश का हाथ वहाँ तक पहुँच नहीं पाता। सभी देश हाथ मसोस कर रह जाते हैं।

स्थिति को बदलने के लिए जर्मनी ने 2010 में स्विट्ज़रलैंड से एक समझौता किया। इस समझौते को जनवरी 2013 से लागू होना चाहिये, पर उसकी परिपुष्टि दोनों देशों में अधर में लटक गई है। जर्मन संसद का ऊपरी सदन समझौते की शर्तों को बदलने की माँग कर रहा है। स्विट्ज़रलैंड में भी उसे रोकने के लिए एक जनमतसंग्रह करवाने के विचार से कुछ नागरिक संगठन 50 हज़ार हस्ताक्षर जमा कर रहे हैं। इस समझौते पर एक नज़र डालना भारत और स्विट्ज़रलैंड के बीच भी किसी भावी समझौते की सीमाओं को समझने के लिए उपयोगी हो सकता है।

स्विस-जर्मन समझौता : जर्मन नागरिकों का जो धन लंबे समय से स्विस बैंकों में है और जिस पर उन्होंने जर्मनी में कोई आयकर या पूरा आयकर नहीं दिया है, उसके पिछले 10 वर्षों के दौरान ब्याज, डिविडेंड, लाभांश या अन्य प्रकार के लाभों को आय मान कर, जर्मनी को एकमुश्त भुगतान किया जाएगा।

यह एकमुश्त भुगतान दो तरह से होगा -- हर खातेदार की इच्छानुसार उसका नाम बताते हुए, या गुमनाम। स्विस बैंक हर खातेदार से पूछेंगे कि जर्मन अधिकारियों को उसके नाम-पते और
खाते के बारे में जानकारी दी जाए या नहीं। जो खातेदार गुमनाम रहना चाहेंगे, पिछले 10 वर्षों में उनके जमा धन पर मिले ब्याज या अन्य प्रकार के लाभों की ऊँचाई के अनुसार स्विस बैंक 21 से 41 प्रतिशत के बीच कर लगाएँगे और इस बारे में केवल उन्हें ही सूचित करेंगे।

ऐसे खातेदार इस सूचना को बाद में जर्मन आयकर विभाग को दिखा कर प्रमाणित कर सकेंगे कि अब वे साफ-सुथरे हैं। स्विस खाते में उनका काला धन अब सफ़ेद हो गया है। आगे से वे अपनी आयकर घोषणा में अपने स्विस खाते से होने वाली आय को भी शामिल किया करेंगे।

इसी तरह जो खातेदार गुमनाम नहीं रहना चाहेंगे, उनके खाते की स्थिति और उनका करभार भी इसी तरह निर्धारित होगा, लेकिन उनका नाम-पता जर्मन आयकर विभाग को भी सूचित किया जाएगा। यह सूचना कुछ ऐसी होगी, मानो खातेदार जर्मन नागरिक अपने रजस्व विभाग को स्वयं सूचित कर रहा है। उसके विरुद्ध कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं होगी।

दोनो स्थितियों में स्विस बैंक जो टैक्स काटेंगे, उसे पहले स्विस राजस्व विभाग को भेजेंगे और स्विस राजस्व विभाग बाद में जर्मन वित्त मंत्रालय के पास आगे बढ़ा देगा। पिछले 10 वर्षों के करों का एकमुश्त भुगतान हो जाने के बाद जर्मन खातेदार के खाते में जो धन बचेगा या नया धन जुड़ेगा, उस पर मिलने वाले भावी ब्याज, डिवडेंड या हर प्रकार के लाभ पर जर्मन बैंकों की तरह स्विस बैंक भी 26.4 प्रतिशत स्रोतकर (सोर्स टैक्स) काट कर उसे अपने देश के वित्तमंत्रालय के माध्यम से जर्मन आयकर विभाग के पास भेज देंगे।

इस समझौते में यह भी व्यवस्था है कि किसी खातेदार पर करचोरी करने के शक का जर्मन पक्ष के पास यदि उचित कारण है, तो जर्मन पक्ष स्विस सरकार से मामले से जुड़ी जानकारियाँ देने की माँग कर सकता है। लेकिन, हर दो साल के भीतर केवल 1300 बार ऐसी माँगे की जा सकती हैं और हर माँग से संबंधित खातेदार को इसकी सूचना दी जाएगी, ताकि वह चाहे तो समय रहते किसी जर्मन अदालत के दरवाज़े खटखटा सके।

समझौता अधर में: जर्मनी की विपक्षी पार्टियाँ इस समझौते का विरोध कर रही हैं। कहती हैं, उसमें तय कराधान की ऊँचाई उस ऊँचाई से बहुत कम है, जो जर्मनी के ईमानदार करदाताओं को झेलनी पड़ती है। उन्हें तो अपने सारे जीवन की गाढ़ी कमाई पर कर देना पड़ता है, जबकि बेइमानी या भ्रष्टाचार से मिले काले धन को स्विस बैंकों में छिपाने वाले को पिछले केवल दस साल के ब्याज पर या शेयरों इत्यादि से हुए लाभ पर ही कर दे कर मुक्ति मिल जाएगी। इससे ऐसे विदेशी बैंको में धन छिपाने को भी बढ़ावा मिलेगा, जहाँ जर्मनी की अभी कोई पहुँच नहीं है।

जर्मनी की कुछ राज्य सरकारें पिछले 5-6 वर्षों से जब-तब ऐसे चोरी के डेटा-सीडी ख़रीदती रही हैं, जिन्हें स्विस बैंकों के कर्मचारियों ने चोरी-छिपे तैयार किया था और जिन में जर्मन खातेदारों के बारे में गोपनीय जानकारियाँ होती थीं। इन जानकारियों के आधार पर या तो जर्मन खातेदारों के घरों व कार्यालयों पर छापे पड़ते थे, या भनक मिलने पर वे पहले ही आत्मसमर्पण कर देते थे। बताया जाता है कि कुल एक करोड़ 30 लाख यूरो (एक यूरो लगभग 70 रूपये के बराबर है) दे कर अब तक 9 ऐसे चोरी के डेटा सीडी ख़रीदे गए हैं और उन के बल पर 3 अरब यूरो के बराबर कर वसूली हुई है।

चोरी की सूचनाओं के लिए करोड़ों की रकम देकर 5-6 साल में तीन अरब यूरो जुटा लेना न तो शेर का शिकार कहला सकता है और न ही अपने आप को "कानून के राज वाला देश" कहने के आदी जर्मनी जैसे लोकतांत्रिक देश को शोभा देता है। जर्मनी की केंद्र सरकार इस धर्मसंकट में है कि ऐसा कभी उचित नहीं हो सकता कि कोतवाल ही चोर से चोरी का माल ख़रीदने लगे।

काले धन की कालिख कैसे धुले : 'भागते भूत की लंगोटी ही सही' वाला सिद्धांत चोरी के डेटा-सीडी ख़रीदने का कोई सही औचित्य नहीं हो सकता। इसीलिए जर्मनी की केंद्र सरकार ने स्विट्ज़रलैंड के साथ उपरोक्त समझौता किया। लेकिन, इस समझौते का पुष्टीकरण जर्मन संसद के ऊपरी सदन "बुंडेसराट" (राज्यपरिषद) द्वारा गत 22 नवंबर को साफ़ ठुकरा देने के बाद से उसके लागू हो सकने का अधर में लटक जाना यही सिद्ध करता है कि अमेरिका, जर्मनी या भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों में काले धन की कालिख को धो सकना बहुत ही टेढ़ी खीर है।

स्विट्ज़रलैंड की वित्तमंत्री एवलीन विल्डमेर-श्लुम्फ़ ने, जो इस समय देश की सरकार-प्रमुख भी हैं, जर्मनी के पीछे हटने से दुखी होते हुए भी कहा कि उनका देश "पुष्टीकरण की प्रक्रिया को सफलता तक पहुँचाने के लिए तैयार है।" वैसे, इसकी संभवना नहीं के बराबर ही है कि निकट भविष्य में इस समझौते की पुष्टि हो पाएगी। यह समझौता यदि पहली जनवरी 2013 से लागू हो जाता, तो जर्मनी, विवाद के निपटारे के तौर पर, स्विट्ज़रलैंड से पिछले 10 वर्षों के लिए एकमुश्त 10 अरब यूरो के बराबर कर-भुगतान पाने की आशा कर सकता था। इस निपटारे की क़ीमत यह होती कि जर्मनी को स्विस बैंकों में जमा काले धन के जर्मन खातेदारों को आम क्षमादान देना पड़ता और इस काले धन से 2003 से पहले हुई उनकी सारी आय पर कोई आयकर पाने से हाथ धो लेना पड़ता।

अगली कड़ी में और कौन से देशों में छुपाया जाता है काला धन....


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