मोदी विरोधी राजनीति के केन्द्र में होंगे केजरीवाल

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दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) की अपूर्व सफलता ने भारतीय राजनीति में एक नए युग की शुरुआत कर दी है। विदित हो कि पिछले बारह वर्षों से, वर्ष 2002 से वर्ष 2014 तक, अगर देश की राजनीति नरेन्द्र मोदी और भाजपा के नाम रही तो वर्ष 2015 की शुरुआत में अरविंद केजरीवाल ने राजधानी के चुनावों में भाजपा को बुरी तरह से पराजित कर सिद्ध कर दिया कि वे लम्बी रेस के घोड़े हैं जिन्हें बहुत दूर तक जाना है। इसी के साथ ही अब तक निर्विवाद रूप से केन्द्र की सत्ता के शीर्ष पर रहे नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली और रीति-नीतियों पर सवाल उठाया जाना शुरू हो जाएगा। 
इन चुनावों के ‍परिणामों ने यह भी साबित कर दिया कि वर्ष 1993 में दिल्ली में भाजपा का जो परम्परागत जनाधार था, वह भी अब समाप्त हो गया है। यह कहना भी गलत ना होगा कि 15 वर्षों तक सरकार चलाने के बाद आज जो हालत कांग्रेस की है, भाजपा की भी वही हालत होने की शुरुआत हो सकती है। अब न तो मध्यम वर्ग भाजपा के साथ है और न ही अल्पसंख्‍यक और दलित कांग्रेस के साथ हैं। समाज का हर तबका आप के साथ आ गया है। इसके अलावा, कई अन्य कारण हैं जो कि इन चुनावों को असाधारण बनाते हैं। इन्हीं कारणों के परिणामस्वरूप आप ने अपूर्व सफलता की इबारत लिखी है,  जबकि दिल्ली चुनाव के नतीजों पर ही भाजपा का भविष्य टिका था और इसका असर दिल्ली पर ही नहीं बल्कि पूरे देश पर पड़ेगा। अब बारह वर्षों की लगातार जीत के बाद भाजपा के मोदी मैजिक पर सवाल खड़े किए जाएंगे। 
 
यहां पर हार का एक अर्थ यह भी है कि भाजपा की मुख्यमंत्री पद की दावेदार किरण बेदी का राजनीतिक भविष्य भी अधर में लटक गया है। अब सवाल यह है कि वे भविष्य में राजनीति में बनी भी रहती हैं या नहीं? इन नतीजों के लिए हालांकि दिल्ली भाजपा को दोषी ठहराया जा सकता है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि चुनाव की कमान भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह के हाथ में ही थी। मोदी और शाह के हाथ में चुनाव की कमान थी। अब शाह और नरेन्द्र मोदी को विभिन्न राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों की रणनीति को नए सिरे से तय करना होगा। इसी वर्ष अक्टूबर में बिहार में चुनाव होने हैं, अगले साल बंगाल के चुनाव हैं। इसके बाद 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव हैं। भाजपा की दिल्ली में हार से मोदी की अजेय की छवि को भी बड़ा धक्का लगा है और उन्हें भविष्य में एक-एक कदम फूंक-फूंक कर उठाना होगा।
 
वर्ष 1998 के चुनाव में भाजपा को प्याज से ऐसा मारा था कि पार्टी 2013 तक बहुमत हासिल नहीं कर पाई। अब यह पांचवां मौका है जब उसे न केवल करारी हार देखनी पड़ी वरन उसका परम्परागत मतदाता भी किनारा कर गया। अब मोदी और शाह को अपनी 
रणनीति पर नए सिरे से विचार करना होगा क्योंकि पिछले चुनाव में तो बीजेपी बहुमत से सिर्फ 4 सीटें दूर रह गई थी, पर इस बार दिल्ली में भाजपा, पीएम मोदी, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह, पूरे केन्द्रीय मंत्रिमंडल, सैकड़ों सांसदों, कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों, बहुत से राज्यों के नेताओं, कार्यकर्ताओं और आरएसएस की प्रतिष्ठा दांव पर थी लेकिन पार्टी का सफाया हो गया। अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन चुनावों का भाजपा के लिए क्या अर्थ था? लेकिन अब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, राष्ट्रीय संगठन और दिल्ली संगठन पर सवाल उठाए जाएंगे। भाजपा में गुटबाजी को लेकर विचार मंथन किया जाएगा क्यों‍क‍ि पार्टी की हार में इसकी सबसे बड़ी भूमिका रही है।
 
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि दिल्ली के चुनाव परिणामों ने ‍केन्द्र सरकार की विरोधी पार्टियों में एक नई आशा का संचार किया है। लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है ‍कि यह देशव्यापी स्तर पर भाजपा का विकल्प बन गई है। आप ने दिल्ली में कमजोर और बदनाम कांग्रेस नेतृत्व का स्थान भरा है और भाजपा को विवश कर दिया है कि वह अपनी असफलता के कारणों पर गौर करे क्योंकि राजधानी से जहां कांग्रेस पूरी तरह से साफ हो गई है, वहीं भाजपा की स्थिति इतनी कमजोर हो गई है कि इसके नेताओं को विचार करना होगा कि मात्र पिछले आठ दस माह में ऐसा क्या हो गया कि आम मतदाता जो सारे देश में उनके पक्ष में था, एकाएक उनके विरोध में खड़ा हो गया? 
 
दिल्ली की हार ने मोदी, शाह और भाजपा की अखिल भारतीय हैसियत पर बड़ा सा प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। इससे उम्मीद की जाती है कि अब भाजपा में भी लोकतंत्रीकरण बढ़ेगा, उन नेताओं की पूछपरख बढ़ेगी जिन्हें हाशिए पर डाल दिया गया है। मोदी सरकार से लोगों का जो मोहभंग शुरू हुआ है, उस पर अंकुश लगाने की कोशिशें की जाएंगी। दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) सरकार का अर्थ होगा कि भाजपा की केन्द्र सरकार की नाक में नकेल डालने की भूमिका भी इसे मिल गई है। वैसे भी इस जीत से केजरीवाल की हसरतों को पंख लगना स्वाभाविक होगा और वे भी आप को अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित करने के प्रयास करेंगे। सरकारी स्तर पर आप जहां केन्द्र को लगातार परेशान बनाए रखने का काम कर सकती है, वहीं जन आंदोलन और धरनों की एक नई संस्कृति भी बलवती होगी। कांग्रेस के सफाए के बाद आप को दूसरे मोर्चे का नेतृत्व करने का अवसर मिलेगा। 
 
अभी तक मोदी सरकार घरवापसी, गिरजों पर हमले, गोडसे के मंदिर और चार बच्चों के मुद्दों पर चुप्पी साधे रही और प्रधानमंत्री ने इन मुद्दों पर बोलना उचित नहीं समझा, लेकिन अब समय आ गया है कि मोदी और केन्द्र सरकार को झख मारकर बोलना होगा या उन्हें आप और विपक्ष‍ी नेताओं के हमलों से खुद को बचाना मुश्किल पड़ेगा। आप की दिल्ली में जीत से भारत में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होंगी, भाजपा को अपनी कमियों, गलतियों से सबक सीखने का मौका मिलेगा और आम लोगों की ओर से राजनीतिक दलों को संदेश जाएगा कि उन्हें अनदेखा करने का जोखिम बहुत महंगा साबित होगा। 
 
इन चुनावों का नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और अन्य क्षेत्रीय दलों के लिए बड़ा महत्व है और आप की जीत से इन्हें केन्द्र सरकार और भाजपा से मुकाबला करने की ताकत मिलेगी। भाजपा को भी सोचना होगा कि वह केन्द्र में बैठकर दिल्ली से ही सरकार बनाने और गिराने का काम नहीं कर पाएगी। उसे सोचना होगा कि जीतनराम मांझी के कंधे पर बंदूक रखकर चलाने का राजनीतिक जोखिम इतना बड़ा हो सकता है कि बिहार में अगर वह जीत की उम्मीद करती है तो इसके उसे शॉर्टकट उपायों से बचना होगा। साथ ही यह जीत आप के लिए एक बड़ी चुनौती साबित होगी क्योंकि अभी तक तो इसने लोगों से केवल वादे किए हैं, इन्हें अमलीजामा पहनाना सबसे बड़ा और कठिन काम होगा। सत्ता पर काबिज होने के साथ इसे दर्शाना होगा कि यह दिल्ली के मतदाताओं से किए हर वादे को पूरा करेगी और अगर यह ऐसा नहीं करती है तो इसे भविष्य में अपनी हालत भी भाजपा जैसी होते देखने के लिए भी तैयार रहना होगा।
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