आप के लिए 'करो या मरो' की लड़ाई है यह

अनिल जैन
जिस आम आदमी पार्टी को तेरह महीने पहले हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव के दौरान 'वोट कटुआ' पार्टी करार देते हुए बेहद हलके में लिया जा रहा था, उसका इस बार हो रहे चुनाव में सीधा मुकाबला भाजपा से होने जा रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को 32, आम आदमी पार्टी को 28 और पंद्रह साल तक दिल्ली की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस को महज आठ सीटें मिली थीं। 70 सदस्यीय विधानसभा में दो सीटें अन्य के खाते में गई थीं। भाजपा को बहुमत से चार सीटें कम मिली थीं। आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई थी, लेकिन वह महज 49 दिन ही चल पाई, जिसकी वजह से दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगा और अब फिर से चुनाव होने जा रहे हैं। 
इस बार भाजपा की उम्मीदें आसमान छू रही हैं। वह नरेंद्र मोदी की लहर पर सवार होकर विधानसभा की 60 सीटें जीतने का लक्ष्य बनाकर मैदान में है। लेकिन उसके लिए लड़ाई इतनी आसान नहीं है। जमीनी हकीकत यह है कि उसे आम आदमी पार्टी से कड़ी चुनौती मिल रही है। भाजपा नेतृत्व भी इस हकीकत से बेखबर नहीं है। यही वजह है कि विधानसभा चुनाव की घोषणा से एक दिन पहले 10 जनवरी को रामलीला मैदान में हुई भाजपा की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी के अन्य तमाम नेताओं ने आम आदमी पार्टी और उसके नेता अरविंद केजरीवाल को ही अपने निशाने पर रखा और केजरीवाल ने भी पलटवार में मोदी और भाजपा पर ही निशाना साधा। दोनों ओर से वार और पलटवार में कांग्रेस कहीं नहीं थी। जाहिर है कि दोनों ही पार्टियों ने मान लिया है कि चुनावी मुकाबला उन दोनों के बीच ही है। दिलचस्प बात यह भी है कि कांग्रेस के पस्त हौसलों से भी भाजपा के खेमे में चिंता का माहौल है। 
 
आम आदमी पार्टी की चुनौती को लेकर भाजपा की बेचैनी का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उसने दर्जनों केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को चुनाव प्रचार में जुट जाने को कहा है। इसके अलावा झारखंड और हरियाणा के मुख्यमंत्रियों को भी पूर्वांचल और हरियाणा मूल के मतदाताओं को साधने के लिए लगाने की योजना है। लोकसभा चुनाव से पहले दिल्ली में कांग्रेस की जो करारी हार हुई थी, उसे देश के कांग्रेस विरोधी रुझान के तौर पर देखा गया था। लोकसभा चुनाव के नतीजे आए भी उसी अनुरूप। केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा की सरकार बनी जो अब आठ महीने पूरे करने जा रही है। इस दौरान महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और झारखंड में विधानसभा चुनाव हो चुके हैं, जिनमें भाजपा को उसकी उम्मीदों से कहीं ज्यादा बेहतर कामयाबी तो मिली है। अलबत्ता लोकसभा चुनाव की तुलना में उसे प्राप्त होने वाले वोटों के प्रतिशत में गिरावट आई है।
 
पिछले चार महीने के दौरान जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं, उनकी तुलना में दिल्ली का चुनावी परिदृश्य भिन्न है। महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और झारखंड में मुकाबले बहुकोणीय थे, जिनमें भाजपा ने जोरदार कामयाबी दर्ज की। दिल्ली में भी यद्यपि तीन प्रमुख पार्टियां मैदान हैं, लेकिन भाजपा का सीधा मुकाबला आम आदमी पार्टी से है। पिछले विधानसभा में 24.50 फीसदी वोटों के साथ आठ सीटें हासिल करने वाली कांग्रेस अभी भी अपने को इस लायक नहीं बना पाई है कि वह मुकाबले को त्रिकोणीय बना सके। अलबत्ता भाजपा जरूर चाहती है कि मुकाबला त्रिकोणीय हो ताकि उसे जीतने में आसानी हो। लेकिन उसकी यह मुराद पूरी होने के आसार बहुत ही क्षीण हैं। 
 
पिछले विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने 29.50 फीसदी वोटों के साथ 28 सीटें जीतकर दिल्ली की राजनीति का समीकरण ही बदल दिया था। उसने न सिर्फ कांग्रेस और बसपा के मुस्लिम और दलित जनाधार में सेंध लगाई थी बल्कि भाजपा के समर्थक युवा और मध्य वर्ग के एक तबके ने भी आम आदमी पार्टी का साथ दिया था। हालांकि यह तबका लोकसभा चुनाव में सूद समेत फिर भाजपा के पाले में लौट गया। लेकिन आम आदमी पार्टी अभी भी अपने पक्ष में पिछले चुनाव जैसी हवा ही मान रही है और अरविंद केजरीवाल भी इस चुनाव को पिछले चुनाव जैसा बनाने की कोशिश में जुटे हुए हैं। आम आदमी पार्टी को भरोसा है कि राजधानी के मुस्लिम और सिख समुदाय का समर्थन इस बार भी उसे ही मिलेगा। केजरीवाल अपनी सरकार के 49 दिनों के काम की याद दिलाकर तथा इस्तीफा देने को अपनी भूल बताकर जनता से पूर्ण बहुमत देने की गुहार लगा रहे हैं। 
 
पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी के चुनावी मुद्दों की फेहरिस्त में जन लोकपाल सबसे ऊपर था। इसके अलावा सस्ती बिजली और मुफ्त पानी जैसे मुद्दे भी थे। इस बार जन लोकपाल पर उनका वैसा जोर नहीं है, जबकि अपनी सरकार का इस्तीफा उन्होंने इसी मुद्दे पर दिया था। इस बार वे फिर बिजली के दाम आधे करने और हर परिवार को 700 लीटर मुफ्त पानी देने का वादा कर रहे हैं। इसके अलावा वे नेतृत्व के मुद्दे पर भी भाजपा को घेर रहे हैं। भाजपा ने पिछले चुनाव में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के मसले को अपने चुनाव घोषणा पत्र में अहम जगह दी थी लेकिन इस बार वह इस मुद्दे पर खामोश है। आम आदमी पार्टी इस मसले पर भी उसे घेर रही है। उसकी दलील है कि जब अन्य मसलों पर सरकार अध्यादेश ला सकती है तो दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे के लिए क्यों नहीं?
 
आम आदमी पार्टी की चुनावी संभावनाओं के खिलाफ सबसे बड़ी बात यही है कि उसे सरकार चलाने का मौका मिला, लेकिन उसके नेता अपनी अखिल भारतीय महत्वाकांक्षाओं के चलते महज 49 दिन में ही सरकार छोड़कर चले गए। भाजपा और कांग्रेस के पास भी उसे अपरिपक्व बताने के अलावा उसके खिलाफ और कुछ कहने को नहीं है। आम आदमी पार्टी अगर अपने खिलाफ इस प्रचार को बेअसर करने में कामयाब रहती है तो वह अपनी पिछली सफलता को दोहरा सकती है। लेकिन दिल्ली छावनी बोर्ड के हाल ही में हुए चुनाव को अगर विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जाए तो आम आदमी पार्टी की संभावनाओं पर सवालिया निशान लग जाता है। बोर्ड की आठ में से महज एक सीट उसके हाथ लग पाई है, जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में दिल्ली छावनी क्षेत्र की सीट उसने जीती थी।
 
कुल मिलाकर आम आदमी पार्टी के लिए यह चुनाव करो या मरो वाला है। अगर विधानसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन पिछली बार की तुलना में कमजोर रहता है तो उसके सामने अपना वजूद बचाने का संकट खड़ा हो जाएगा, लेकिन अगर उसने भाजपा को बहुमत के आंकड़े तक पहुंचने से रोक लिया तो भाजपा से ज्यादा नरेंद्र मोदी की साख पर सवाल खड़ा हो जाएगा और यह माना जाएगा कि मोदी का जादू उतार पर आना शुरू हो गया है, क्योंकि भाजपा यह चुनाव मोदी के भरोसे ही लड़ रही है। 
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