देश की आजादी के बाद 1952 में गठित दिल्ली की पहली विधानसभा को उसके एक कार्यकाल यानी 5 साल के बाद ही खत्म कर दिल्ली को पूरी तरह केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था। फिर 1966 से 1992 दिल्ली में महानगर परिषद रही। महानगर परिषद का चुनाव भी 1983 में आखिरी बार हुआ था जिसमें कांग्रेस ने बहुमत हासिल किया था।
वर्ष 1991 में 69वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1991 और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम, 1991 के तहत केंद्र शासित दिल्ली को औपचारिक रूप से एक राज्य के रूप में दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र घोषित कर यहां विधानसभा, मंत्रिपरिषद और राज्यसभा की सीटों से संबंधित संवैधानिक प्रावधान निर्धारित किए गए जिनके मुताबिक 1993 में फिर विधानसभा चुनाव का सिलसिला शुरू हुआ।
1993 में जिस समय विधानसभा का चुनाव हुआ तब केंद्र में पीवी नरसिंहराव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी और भारतीय जनता पार्टी राम मंदिर मुद्दे के सहारे अपनी ताकत बढ़ाते हुए देश की दूसरे नंबर की तथा प्रमुख विपक्षी पार्टी बन चुकी थी। दिल्ली की 7 लोकसभा सीटों में से 4 भाजपा के पास थी और 3 पर कांग्रेस काबिज थी यानी विधानसभा चुनाव के लिहाज से भाजपा का पलड़ा भारी था।
दिल्ली की 70 सदस्यों वाली विधानसभा के चुनाव के लिए वैसे तो कांग्रेस और भाजपा सहित 6 राष्ट्रीय स्तर के मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल तथा 44 पंजीकृत राजनीतिक दल मैदान में थे। मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही था, लेकिन कुछ सीटों पर जनता दल और बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवारों मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया था।
कांग्रेस के लिए इस चुनाव में सबसे कमजोर पक्ष यह था कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के चलते उसका मुस्लिम जनाधार उत्तर भारत के अन्य राज्यों की तरह दिल्ली में भी उससे छिटक चुका था। दिल्ली में उसके पास ऐसा कोई नेता भी नहीं था, जिसे वह बतौर मुख्यमंत्री का उम्मीदवार पेश कर सके।
दूसरी ओर भाजपा कई दिनों की तैयारी के साथ चुनाव मैदान में उतरी थी। उसके पास मदनलाल खुराना, प्रोफेसर विजय कुमार मल्होत्रा, केदारनाथ सहानी जैसे दिग्गज नेता थे जो महानगर परिषद में मुख्य कार्यकारी पार्षद रहते हुए अपनी अच्छी-खासी पहचान बना चुके थे।
पार्टी ने यद्यपि किसी भी नेता को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश नहीं किया था, फिर अनौपचारिक रूप से मदनलाल खुराना के नेतृत्व में ही पार्टी ने चुनाव लड़ा था। पार्टी की दिल्ली प्रदेश इकाई अध्यक्ष भी वे ही थे।
इस चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस को बुरी तरह हराते हुए धमाकेदार जीत दर्ज की थी। उसने 47.82 फीसदी वोटों के साथ 70 में से 49 सीटों पर जीत हासिल की थी। कांग्रेस को 34.48 फीसद वोटों के साथ महज 14 सीटों से ही संतोष करना पड़ा था। 4 सीटें जनता दल के खाते में गई थीं और 3 सीटों निर्दलीय उम्मीदवार विजयी हुए थे।
भाजपा की जीत का सेहरा मदनलाल खुराना के सिर पर सजा और उनके नेतृत्व में ही दिल्ली में भाजपा की सरकार बनी। लेकिन इतनी भारी-भरकम जीत के बूते बनी उसकी सरकार का प्रदर्शन बेहद फीका रहा। 5 साल में उसने 3 मुख्यमंत्री दिए लेकिन तीनों ही कामकाज के मामले में अपनी कोई छाप नहीं छोड़ सके।
खुराना को मुख्यमंत्री बनने के करीब ढाई साल बाद ही इस्तीफा देना पड़ गया। 1995 में बहुचर्चित हवाला कांड के चलते देश की राजनीति में भूचाल आ गया था। हवाला कारोबारी जैन बंधुओं की डायरी में पैसा लेने वाले जिन कई नेताओं के नाम थे, उनमें मदनलाल खुराना का नाम भी शामिल था।
उन्हें न चाहते हुए भी अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। उनके इस्तीफा देते वक्त पार्टी ने कहा था कि अदालत से दोषमुक्त होने पर उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा। खुराना के इस्तीफा देने के बाद ग्रामीण पृष्ठभूमि के नेता साहिब सिंह वर्मा मुख्यमंत्री बने।
मुख्यमंत्री के रूप में उनका प्रदर्शन तो और भी ज्यादा खराब रहा। जब अगले चुनाव में महज 6 महीने बाकी रह गए तो दिल्ली में बिजली संकट बुरी तरह गहरा गया और प्याज की कीमतें आसमान छूने लगीं। साहिब सिंह वर्मा दोनों ही मोर्चों पर स्थिति से निबटने में नाकाम रहे।
स्थिति हाथ से निकलते देख पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने चुनाव से 3 महीने पहले साहिब सिंह को हटाकर उनकी जगह सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बना दिया। हालांकि उस समय तक खुराना भी हवाला मामले में अदालत से दोष मुक्त किए जा चुके थे, लेकिन पार्टी में गुटबाजी बढ़ने की आशंका के चलते पार्टी नेतृत्व ने उन्हें दोबारा मौका नहीं दिया।
सुषमा स्वराज दिल्ली के लिए नई थीं, लिहाजा 3 महीने में वे दिल्ली को ही ठीक नहीं समझ सकीं तो काम क्या करतीं! फिर भी पार्टी अगले चुनाव के लिए उनके नेतृत्व में ही मैदान में उतरी। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)