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रावण के तीन जन्मों की कहानी

Webdunia
गुरुवार, 6 अक्टूबर 2016 (11:56 IST)
रावण नाम का इस दुनिया में कभी दूसरा नहीं हुआ। राजाधिराज लंकाधिपति महाराज रावण को 'दशानन' भी कहते हैं। कहते हैं कि रावण लंका का तमिल राजा था। रावण एक कुशल राजनीतिज्ञ, सेनापति और वास्तुकला का मर्मज्ञ होने के साथ-साथ ब्रह्मज्ञानी तथा बहुविद्याओं का जानकार था। उसे 'मायावी' इसलिए कहा जाता था कि वह इन्द्रजाल, तंत्र, सम्मोहन और तरह-तरह के जादू जानता था। उसके पास एक ऐसा विमान था, जो अन्य किसी के पास नहीं था। इस सभी के कारण सभी उससे भयभीत रहते थे। जैन शास्त्रों में रावण को प्रति‍नारायण माना गया है। जैन धर्म के 64 शलाका पुरुषों में रावण की गिनती की जाती है।
रावण अपने पूर्व जन्म में विष्णु का द्वारपाल था। एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु के दर्शन हेतु सनक, सनंदन आदि ऋषि भगवान विष्णु के दर्शन हेतु पधारे, परंतु भगवान विष्णु के द्वारपाल जय और विजय ने द्वार पर ही रोककर उन्हें अंदर जाने से मना कर दिया। कहने लगे कि अभी भगवान के विश्राम का समय है।
 
ऋषिगण ने क्रोध में आकर जय एवं विजय को शाप दे दिया- 'जाओ तुम राक्षस हो जाओ।' बाद में जय और विजय ने ऋषियों से अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी। भगवान विष्णु ने भी ऋषियों से क्षमा करने को कहा। तब ऋषियों ने कहा कि हमारा शाप खाली नहीं जा सकता। हां, इसमें यह परिवर्तन हो सकता है कि तुम हमेशा के लिए राक्षस नहीं रहोगे, लेकिन 3 जन्मों तक तो तुम्हें राक्षस योनि में रहना ही होगा और उसके बाद तुम पुन: इस पद पर प्रतिष्ठित हो सकोगे। लेकिन इसके साथ एक और शर्त यह है कि भगवान विष्णु या उनके किसी अवतारी-स्वरूप के हाथों तुम्हारा मरना अनिवार्य होगा।
 
इस शाप के चलते भगवान विष्णु के इन द्वारपालों ने अपने पहले जन्म में हिरण्याक्ष व हिरण्यकशिपु राक्षसों के रूप में जन्म लिया। हिरण्याक्ष राक्षस बहुत शक्तिशाली था। उसके कारण पृथ्वी पाताल-लोक में डूब गई थी। पृथ्वी को जल से बाहर निकालने के लिए भगवान विष्णु को वराह अवतार धारण करना पड़ा। इस अवतार में उन्होंने धरती पर से जल को हटाने के अथक कार्य किया। उनके इस कार्य में बार-बार हिरण्याक्ष विघ्न डालता था अत: अंत में श्रीविष्णु ने हिरण्याक्ष का वध कर दिया। उसके बाद धरती पुन: मनुष्यों के रहने लायक स्थान बन गई।
 
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हिरण्याक्ष का भाई हिरण्यकशिपु भी ताकतवर राक्षस था और उसने तप करके ब्रह्मा से वरदान प्राप्त किया था। वह जानता था कि इस वरदान के चलते मुझे कोई न आकाश में मार सकता है और न पाताल में। न दिन में और न रात में। न कोई देव, न राक्षस और न मनुष्य मार सकता है तो फिर चिंता किस बात की? यही सोचकर उसने खुद को ईश्वर घोषित कर दिया था।
भगवान विष्णु द्वारा अपने भाई हिरण्याक्ष का वध करने के कारण वह विष्णु विरोधी था। लेकिन जब उसे पता चला कि उसका पुत्र प्रहलाद विष्णुभक्त है तो उसने उसे मरवाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन वह अपने पुत्र को नहीं मार सका। अंत में उसने एक खंभे में लात मारकर प्रहलाद से पूछा- 'यदि तेरा भगवान सभी जगह है तो क्या इस खंभे में भी है?' 
खंभे में लात मारते ही खंभे से भगवान विष्णु नृसिंह रूप में प्रकट हुए, जो न देव थे और न राक्षस और न मनुष्य। वे अर्द्धमानव और अर्द्धपशु थे। उन्होंने संध्याकाल में हिरण्यकशिपु को अपनी जंघा पर बिठाकर उसका वध कर दिया।
 
वध होने के बाद ये दोनों भाई त्रेतायुग में रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए और फिर श्रीविष्णु अवतार भगवान श्रीराम के हाथों मारे गए। अंत में वे तीसरे जन्म में द्वापर युग में शिशुपाल एवं दंतवक्त्र नाम के अनाचारी के रूप में पैदा हुए। इन दोनों का भी वध भगवान श्रीकृष्ण के हाथों हुआ।
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