विरोधाभासों के बीच से लोकतंत्र की आँख-मिचौनी

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की विजय

जयदीप कर्णिक
लोकतंत्र की मतपेटी से कैसे अजूबे निकलेंगे, कोई कह नहीं सकता। भारत में 500 और 1000 के नोट बंद करने का कंपन अभी थमा भी नहीं था कि डोनाल्ड जे. ट्रंप के अमेरिका 45वें राष्ट्रपति बनने की ख़बरों ने दुनिया को हिला दिया। रिक्टर स्केल पर इसकी तीव्रता को नापने में अभी वक़्त लगेगा। पर नतीजे सामने हैं। लोग भौंचक! पंडित सकते में! विचार और बुद्धि के चारगाह को एकाधिकार मानकर स्वच्छंद विचरण करने वाले मौन! ये क्या हुआ? एक ऐसा अज्ञात भय सच बनकर सामने खड़ा हो गया है जिसके सच हो जाने के बाद की परिस्थिति के लिए कोई तैयार ही नहीं था। इसके कभी सच ना हो पाने को ही लोगों का मन सच मानता और मनवाता चला गया। 
ये वो ही लोग और वो ही सोच है जो विचार पर अपने एकाधिकार के दावे के ज़रिए लगातार विश्व को आने वाली परिस्थिति के लिए तैयार करते हुए दिखाई देते हैं। विचारों का एक बाँध बनाते हैं जो संभावित बाढ़ के खतरे से बाकी सबको, यानि उन सबको जो वो मानते हैं कि सोच नहीं सकते, तैयार कर सकते हैं। काल का चक्र समय-समय पर उनके इस बाँध में सैंध लगाता आया है। कभी इस बाँध को ध्वस्त भी किया गया है, पर इस बार तो वो बिना बाँध के ही पकड़े गए! विचारों की ईंटें वहाँ रखी ही नहीं गई जहाँ से पानी आने वाला था!! 
 
अमेरिका की पेचीदा फिर भी सधी हुई चुनाव व्यवस्था में नतीजों को पढ़ पाना इतना मुश्किल पहले कभी नहीं रहा। 2016 के अमेरिकी चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक हैं। ये तो ख़ुद अमेरिका के इतिहास को ही आकलन करना होगा कि उसने पहली महिला राष्ट्रपति बनाने का ये ऐतिहासिक पल गँवा कर अच्छा किया या ट्रंप को राष्ट्रपति बनाकर। पर फिलहाल तो अमेरिका के नक्शे पर बिखरा लाल रंग डोनाल्ड ट्रंप के भाल पर लोकतिलक बनकर मुस्कुरा रहा है। ठीक उसी तरह जैसे कि आठ साल पहले नीला रंग बराक ओबामा के भाल पर पहले अश्वेत राष्ट्रपति को व्हाइट हाउस पहुँचा कर मुस्कुरा रहा था। अमेरिका ने उन आठ सालों की कवायद को एक झटके में हाशिए पर पटक दिया है। पेनसिल्वेनिया, मिशिगन और विस्कॉनसिन जैसे क्षेत्रों में अभेद्य मानी जाने वाली नीली दीवार का ढ़ह जाना बड़ी घटना है। ये वैसा ही है जैसा कि बंगाल में ममता बैनर्जी के हाथों वामपंथ की लाल दीवार ढह गई थी। ये वैसा ही है कि जैसे बिहार और उत्तरप्रदेश में 2014 के लोकसभा चुनाव में कमल खिल उठे थे। ये वैसा ही है कि जैसे पूरी दिल्ली ने झाडू पर मोहर लगा दी थी। अमेरिका में भी डेमोक्रेट्स के बुरे समय में भी ना हिलने वाले नीले गढ़ ढह गए। रिपब्लिकन का लाल रंग छा गया। बदलाव की ऐसी बयार जिसे कोई पढ़ नहीं पाया।
 
भारत में तो फिर भी हम लोकतंत्र के ऐसे अजूबे देखते आए हैं। चाहे वो 1977 में इंदिरा गाँधी की हार हो या 2014 में मोदी की जीत। हमारे यहाँ मधु दंडवते चुनाव हार जाते हैं और शहाबुद्दीन जेल से जीत जाते हैं। हमारे लोकतंत्र ने दरअसल जनमत के अच्छे-बुरे सभी कोणों और आयामों को इतने तरीके से छुआ है कि ख़ुद जम्हूरियत को गढ़ने वालों ने कभी सोचा ना होगा। हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं तो अमेरिका दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र। पर अमेरिका के चुनावी इतिहास में इतने चौंकाने वाले नतीजे कभी नहीं आए।
 
ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि वहाँ डोनाल्ड ट्रंप के रूप में एक ऐसा व्यक्ति चुनाव जीत गया जिसकी उम्मीदवारी को लेकर ही बहुत विवाद था। कहा गया कि एक मसखरे और अय्याश कारोबारी को तो किसी हाल में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी भी नहीं मिलनी चाहिए, जीत तो छोड़िए। जब वो उम्मीदवारी की दौड़ में आ भी गए तो उनकी जीत की संभावनाएँ महज 5 से 15 फीसदी तक ही आँकी गई। दो मीडिया घरानों को छोड़ बाकी सब खुलकर ट्रंप के विरोध में आ गए। डोनाल्ड ट्रंप भी मुस्लिमों को देश में ना घुसने देने से लेकर विरोध करने वालों पर मुकदमे कर देने की बात से विवादों और चर्चा में बने रहे। सीधी बहस में भी हिलेरी और ट्रंप के बीच खूब तनातनी और छींटाकशी हुई। फिर भी, कोई भी सर्वेक्षण और राजनीतिक पंडित ट्रंप की इस तरह से जीत का अंदाजा नहीं लगा पाया। यहाँ तक की शुरुआती रुझानों में भी हिलेरी क्लिंटन के जीतने की 80 प्रतिशत और ट्रंप की केवल 20 प्रतिशत संभावना सामने आई। पर फिर बाजी उलट गई। ना केवल डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के 45वें निर्वाचित राष्ट्रपति हैं और वो 20 जनवरी 2017 को शपथ लेंगे बल्कि, सीनेट पर भी रिपब्लिकन का ही कब्जा हुआ है।
 
ऐसा क्यों हुआ? - निश्चित ही एक असंतोष था ओबामा सरकार के ख़िलाफ। अमेरिका में द्विदलीय व्यवस्था है। और वहाँ सत्ता के ख़िलाफ़ असंतोष (एंटी इनकमबेंसी) ठीक हमारे जैसी नहीं है। पर हाँ असंतोष तो था। पर सबसे बड़ी बात ये है कि वहाँ के नीली कॉलर वाले यानी मजदूर वर्ग और मध्यम वर्ग की नाराज़ी। उन लोगों में जो खदबदाहट थी, जो नाराजी थी वो 'अपने सपनों का अमेरिका' ना मिल पाने के कारण थी।

वर्तमान अमेरिका में दुनिया में चौधराहट कायम करने की तीव्र इच्छा तो है पर वो अमेरिका ख़ुद अपने लोगों के लिए क्या कर रहा है? ये सवाल ही वो अमेरिकी मजदूर और मध्यमवर्गीय पूछ रहे थे जो ट्रंप की इस महाविजय के सारथी बने। ये ही वो लोग हैं जिन्होंने ब्रिटेन को “ब्रेक्ज़िट” के ज़रिए योरपीय संघ से बाहर कर दिया। ये ही वो लोग हैं जो नए तरह के राष्ट्रवाद और दक्षिणपंथ को आकार दे रहे हैं। आप विरोधाभास देखिए कि इस मजदूर, कम और मध्यम आय वर्ग ने एक ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रपति बना दिया जो अरबपति है, शानदार बंगले में रहता है और सोने की चमकदार परत वाले ख़ुद के जेट में सफर करता है!! इसे विडंबना कहिए या विरोधाभास पर लोकतंत्र है ही ऐसे अजूबे का नाम। यहाँ समाजवाद का रथ मर्सिडीज में चलता है और दलितों की कोठियों में हाथी झूमते हैं। इसी तरह जब ट्रंप ने कहा कि हमें नया अमेरिका बनाना है तो ये लोग उनके पीछे खड़े हो गए। ट्रंप के सत्ता विरोधी बयान इन लोगों को और आंदोलित करते चले गए। ये भी एक तथ्य है कि हिलेरी क्लिंटन को लेकर भी अमेरिकी मतदाता में बहुत ज़्यादा स्वीकार्यता नहीं थी। लोग उन्हें पसंद नहीं करते। चुनाव के ठीक पहले एफबीआई से मिली क्लीन चिट का असर भी उल्टा ही हुआ। अमेरिकी मतदाता को इस बार सचमुच कम बुरे को ही चुनना था। सारे मीडिया का विरोध ट्रंप के प्रति नफरत पैदा करने की बजाय हिलेरी के प्रति नाराजी को ही बढ़ाता चला गया। सत्ता विरोध की इसी लहर पर सवार होकर अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली में महाविजय की गाथा रची। उनके खेवनहार भी वही थे। लोकतंत्र इसी तरह से मतपेटियों में छिपकर आँख-मिचौनी खेलता है और उसे जानने का दावा करने वालों को चौंकाता भी रहता है।
 
बहरहाल, सबसे बड़ा सवाल ये है कि इस आँख-मिचौनी में विजयी होकर निकले डोनाल्ड ट्रंप दुनिया की महाशक्ति का नेतृत्व कैसे करते हैं। अपने स्वागत भाषण में उन्होंने जिस तरीके से हिलेरी क्लिंटन का जिक्र किया उससे तो यही लगता है कि वो चुनाव प्रचार के जुमले और कटुता और नई जिम्मेदारी के अंतर को समझते हैं। ये भी महज संयोग नहीं है कि दुनिया से पहली बधाई उन्हें रूस के राष्ट्रपति पुतिन से मिली। दुनिया में पसरे आतंकवाद के ख़तरे और आईएसआईएस से वो कैसे निपटते हैं ये देखना महत्वपूर्ण होगा। देखना तो ये भी दिलचस्प होगा कि वो अपने सुनहरी परत वाले विमान की बजाय एयर फोर्स वन में उड़ान भरते हुए उन नीली-सफेद कॉलर वालों के खेवनहार कैसे बनते हैं जो अपनी ज़िन्दगी पर सुनहरी परत चढ़ने का इंतज़ार लंबे समय से कर रहे हैं। फिलहाल तो डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व वाले अमेरिका के लिए शुभकामना....। 
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