इंदौर के बुजुर्गों से विद्यार्थी जीवन में यह कहावत सुनी थी कि 'होलकर का राज व किबे का ब्याज' विख्यात रहे हैं। इंदौर का किबे परिवार, मूलत: पूना से स्थानांतरित होता हुआ इंदौर पहुंचा था। पूना में इस परिवार का प्रमुख व्यवसाय ब्याज पर पैसा देना ही था। पूना के वैभव का जब विनाश होने लगा और राजनीतिक उथल-पुथल से वहां अस्थिरता उत्पन्ना होने लगी तो उसका प्रभाव व्यापार-व्यवसाय पर भी पड़ा। किबे परिवार के पुरखे महादेव नाइक ने तब अपना कारोबार पूना से समेट लिया और भावी प्रगति की आस में खानदेश आ बसे। वहीं इस परिवार के भाग्यविधाता तात्या जोग का 1777 ई. में जन्म हुआ।
खानदेश से यह परिवार महेश्वर चला आया, जो उन दिनों अहिल्याबाई के सुशासन के कारण मालवा का प्रमुख व्यापारिक केंद्र बना हुआ था। तात्या जोग के बड़े भाई बालाजी ने हरिपंत जोग की व्यापारिक फर्म में नौकरी पा ली, जो मालवा की उन दिनों अग्रणी व्यापारिक संस्था थी। बालाजी अपनी पारिवारिक, व्यापारिक पृष्ठभूमि के कारण शीघ्र ही उन्नाति पाते गए और इस फर्म के प्रमुख एजेंट बन गए। कुछ समय पश्चात तात्या ने भी इसी फर्म में नौकरी पा ली। 1795 में यह फर्म समाप्त हो गई। तात्या अपने स्वामी से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने अपना सरनेम 'जोग' ही लिखना प्रारंभ कर दिया और आजीवन अपने आप को 'तात्या जोग' ही लिखा।
फर्म की समाप्ति पर तात्या ने होलकर फौज में नौकरी पा ली और अपनी योग्यता के बल पर वे शीघ्र ही यशवंतरावहोलकर द्वारा प्रशंसा पाने लगे। उन्हें फौज में क्वाटर मास्टर जनरल का पद प्रदान किया गया। यशवंतराव के उत्तरी भारत व पंजाब के सैनिक अभियानों में तात्या उनके साथ थे।
यशवंतराव के देहांत के बाद होलकर राज्य में आंतरिक गुटबंदियों के कारण अव्यवस्था व अराजकता की स्थिति निर्मित हो गई थी। फौज भी अनुशासनहीन व अनियंत्रित हो उठी थी। इस कलह का ही परिणाम था कि 1817 के महिदपुर के युद्ध में अंगरेजी सेना के सामने होलकर फौज को पराजय का सामना करना पड़ा। पराजय के पश्चात होलकर राज्य पर भारी विपत्ति आ पड़ी थी, क्योंकि तत्कालीन होलकर महाराजा मल्हारराव अल्प वयस्क थे।
कृष्णाबाई मां साहिबा ने इस संकट से मुक्ति पाने का मार्ग खोज निकाला। उन्होंने तात्या जोग को होलकरों की ओर से अंगरेज अधिकारियों के साथ संधि-वार्ता करने के लिए नियुक्त किया।
तात्या को उस समय के सबसे अधिक धूर्त व चालाक अंगरेज अधिकारी सर जॉन माल्कम से चर्चा करनी थी। तात्या ने होलकर का पक्ष काफी दृढ़ता से रखा किंतु ब्रिटिश दृष्टिकोण पूर्व निर्धारित था, जिसका उद्देश्य देशी राज्यों से प्रदेशों का अपहरण करना था। 1818 में मंदसौर संधि दोनों पक्षोंके मध्य संपन्ना हुई, जिसमें होलकर को काफी प्रादेशिक क्षति उठानी पड़ी।
1826 ई. में तात्या जोग का देहांत हो गया। नि:संदेह वह व्यक्ति होलकर राज्य का उद्धारक था, जिसने युद्धोपरांत राज्य में व्याप्त आर्थिक दुर्दशा को काफी कुछ सुधारा था। तात्या जोग में विलक्षण व्यापारिक प्रतिभा थी, जिसका उपयोग करते हुए उन्होंने अपनी व्यापारिक इकाइयां मालवा व काठियावाड़ में ही नहीं अपितु देश के सभी प्रमुख नगरों में स्थापित की थीं। उनका व्यापार चीन के साथ भी होता था।
इस परिवार में गणपतराव को दत्तक पुत्र के रूप में अंगीकार किया गया, जो दाजी साहेब के नाम से जाने गए। वयस्क होने पर यह बालक भी होलकर राज्य का दीवान बना। उनके समय में ही इस परिवार को बंबई शेयर मार्केट के पूंजीकरण में गिरावट आ जाने से 75,00,000/- (पिचहत्तर लाख रु.) की क्षति उठानी पड़ी। दाजी साहेब ने अपने वचनों के अनुसार उक्त राशि का भुगतान किया और इस परिवार की आर्थिक व व्यापारिक साख की रक्षा की।
वर्ष 1857 के स्वाधीनता संग्राम के दौरान इस परिवार ने अपने आर्थिक हितों को अधिक तवज्जो दी और अंगरेजों को काफी धन अग्रिम के रूप में दिया। यह कार्य निश्चय ही प्रशंसनीय न था।
दाजी के तीन पुत्र थे विनायकराव, गोपालराव तथा मुकुंदराव। इनमें से गोपालराव की अकाल मृत्यु उनके दगाबाज मुनीम के कारण हुई। इस परिवार के ज्येष्ठ पुत्र विनायकराव किबे पारिवारिक जागीर के स्वामी बने, जो होलकर व कोटा राज्य के शासकों द्वारा उनके पुरखों को दी गई थी। उन्होंने 1901 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। उनकी अध्ययन व लेखन में काफी रुचि थी। 1911 से 1914 तक वे देवास (छोटी पांती) के मंत्री रहे। 1915 ई. में होलकर महाराजा ने उन्हें हुजूर सेक्रेटरी के पद पर नियुक्ति प्रदान की। भारत सरकार ने उन्हें राव बहादुर की पदवी प्रदान की थी।
सरदार किबे की पत्नी श्रीमती कमलाबाई किबे अत्यंत सुशील व शिक्षित महिला के रूप में जानी गईं। आपने इंदौर नगर में महिला शिक्षा, हिन्दी व मराठी साहित्य सृजन व संग्रहण में अहम भूमिका निभाई। इंदौर का किबे कंपाउंड वाला क्षेत्र इसी परिवार की संपत्ति थी, जो आज भी किबे कंपाउंड के नाम से जाना जाता है।