जय गणेश जय गणेश देवा...

गणपतिजी को प्रिय हैं दूर्वा

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गणेश चतुर्थी 'विनायक चतुर्थी' के नाम से भी जानी जाती है। भाद्र वदी चतुर्थी तिथि से दस दिन तक अर्थात अनंत चतुर्दशी तक गणेश उत्सव मनाया जाता है। इस वर्ष यह उत्सव 11 सितंबर से वृद्धि तिथि होने के कारण 22 सितंबर तक मनाया जाएगा। यह उत्सव महाराष्ट्र में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन अब दक्षिण भारत व उत्तर भारत में भी बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। लोग श्रद्धा से गणेश जी की मूर्ति की स्थापना अपने घर, गली, मोहल्ले में करते हैं और रोज उनकी पूजा, आरती व रंगारंग कार्यक्रमों से वातावरण को भक्तिमय बना देते हैं।

तीन, पाँच या दस दिन बाद मूर्ति का विसर्जन किया जाता है। विसर्जन करने के पीछे मान्यता है कि जिस प्रकार मेहमान घर में आते हैं तो कुछ लेकर आते हैं इसी प्रकार भगवान को भी हम हर वर्ष अपने घर बुलाते हैं, वे घर में पधारते हैं तो जरूर सभी के लिए कुछ न कुछ लेकर आते हैं इस प्रकार घर में खुशहाली व सुख-समृद्धि कायम रहती है।

गणपति- गण+पति। 'पति' यानी पालन करने वाला। 'गण' शब्द के विभिन्न अर्थ हैं - महर्षि पाणिनि अनुसार : 'गण, यानी अष्टवस्तुओं का समूह। वसु यानी दिशा, दिक्‌पाल (दिशाओं का संरक्षक) या दिक्‌देव। अतः गणपति का अर्थ हुआ दिशाओं के पति, स्वामी। गणपति की अनुमति के बिना किसी भी देवता का कोई भी दिशा से आगमन नहीं हो सकता, इसलिए किसी भी मंगल कार्य या देवता की पूजा से पहले गणपति पूजन अनिवार्य है।

गणपति द्वारा सर्व दिशाओं के मुक्त होने पर ही पूजित देवता पूजा के स्थान पर पधार सकते हैं। इसी विधि को महाद्वार पूजन या महागणपति पूजन कहते हैं। भगवान गणपति का पूजन किए बगैर कोई कार्य प्रारंभ नहीं होता। विघ्न हरण करने वाले देवता के रूप में पूज्य गणेश जी सभी बाधाओं को दूर करने तथा मनोकामना को पूरा करने वाले देवता हैं।

श्रीगणेश निष्कपटता, विवेकशीलता, अबोधिता एवं निष्कलंकता प्रदान करने वाले देवता हैं। जिस प्रकार पानी की बूँद में यदि तेल का जरा-सा भी अंश हो, तो वह पानी में पूर्णरूप से घुल नहीं सकता, उसी प्रकार जब तक गणपति भक्त गणपति की समस्त विशेषताएँ आत्मसात नहीं कर लेता, तब तक वह गणपति से एकरूप नहीं हो सकता। भगवान गणेश के संबंध में यूँ तो कई कथाएँ प्रचलित हैं किंतु उनके गजानन गणेश कहलाने और सर्वप्रथम पूज्य होने के संबंध में जग प्रसिद्ध कथा का वर्णन स्कंद पुराण में कुछ इस प्रकार से है :

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एक समय जब माता पार्वती मानसरोवर में स्नान कर रही थी तब उन्होंने स्नान स्थल पर कोई आ न सके इस हेतु अपने बेटे 'बाल गणेश' को पहरा देने के कहा। इसी दौरान भगवान शिव उधर आ जाते हैं। गणेशजी उन्हें रोक कर कहते हैं कि आप उधर नहीं जा सकते हैं। यह सुनकर भगवान शिव क्रोधित हो जाते हैं और गणेश जी को रास्ते से हटने का कहते हैं किंतु गणेश जी अड़े रहते हैं तब दोनों में युद्ध हो जाता है। युद्ध के दौरान क्रोधित होकर शिवजी बाल गणेश का सिर धड़ से अलग कर देते हैं।

शिव के इस कृत्य का जब पार्वती को पता चलता है तो वे विलाप और क्रोध से प्रलय का सृजन करते हुए कहती है कि तुमने मेरे पुत्र को मार डाला अब आप ही उसे जीवित करेंगे। तब शिव जी कहते हैं कि मैंने जो सर धड़ से अलग किया है वह तो मैं वापस नहीं लगा सकता लेकिन अब जो भी मेरे सामने सबसे पहले आएगा उसका सर मैं इसे लगा सकता हूँ। तभी एक हाथी वहाँ सामने आता है शिव एक हाथी का सिर गणेश के धड़ से जोड़कर गणेश जी को पुनःजीवित कर देते हैं। तभी से भगवान गणेश को गजानन गणेश कहा जाने लगा।

गणेशजी को तुलसी छोड़कर सभी पत्र-पुष्प प्रिय हैं! गणपतिजी को दूर्वा अधिक प्रिय है। अतः सफेद या हरी दूर्वा चढ़ानी चाहिए। दूः+अवम्‌, इन शब्दों से दूर्वा शब्द बना है। 'दूः' यानी दूरस्थ व 'अवम्‌' यानी वह जो पास लाता है। दूर्वा वह है, जो गणेश के दूरस्थ पवित्रकों को पास लाती है। गणपति को अर्पित की जाने वाली दूर्वा कोमल होनी चाहिए। ऐसी दूर्वा को बालतृणम्‌ कहते हैं। सूख जाने पर यह आम घास जैसी हो जाती है। दूर्वा की पत्तियाँ विषम संख्या में (जैसे 3, 5, 7) अर्पित करनी चाहिए।

पूर्वकाल में गणपति की मूर्ति की ऊँचाई लगभग एक मीटर होती थी, इसलिए समिधा की लंबाई जितनी लंबी दूर्वा अर्पण करते थे। मूर्ति यदि समिधा जितनी लंबी हो, तो लघु आकार की दूर्वा अर्पण करें, परंतु मूर्ति बहुत बड़ी हो, तो समिधा के आकार की ही दूर्वा चढ़ाएँ। जैसे समिधा एकत्र बाँधते हैं, उसी प्रकार दूर्वा को भी बाँधते हैं। ऐसे बाँधने से उनकी सुगंध अधिक समय टिकी रहती है। उसे अधिक समय ताजा रखने के लिए पानी में भिगोकर चढ़ाते हैं। इन दोनों कारणों से गणपति के पवित्रक बहुत समय तक मूर्ति में रहते हैं।

गणेशजी पर तुलसी कभी भी नहीं चढ़ाई जाती। कार्तिक माहात्म्य में भी कहा गया है कि 'गणेश तुलसी पत्र दुर्गा नैव तु दूर्वाया' अर्थात गणेशजी की तुलसी पत्र और दुर्गाजी की दूर्वा से पूजा नहीं करनी चाहिए। भगवान गणेश को गुड़हल का लाल फूल विशेष रूप से प्रिय है। इसके अलावा चाँदनी, चमेली या पारिजात के फूलों की माला बनाकर पहनाने से भी गणेश जी प्रसन्न होते हैं। गणपति का वर्ण लाल है, उनकी पूजा में लाल वस्त्र, लाल फूल व रक्तचंदन का प्रयोग किया जाता है।

गणेश जी के कान हाथी के हैं सूपा जैसे सूपा का धर्म है 'सार-सार को गहि लिए और थोथा देही उड़ाय' सूपा सिर्फ अनाज रखता है। हमें कान का कच्चा नहीं सच्चा होना चाहिए। कान से सुनें सभी की, लेकिन उतारें अंतर में सत्य को। गणेश जी की आँखें सूक्ष्म हैं जो जीवन में सूक्ष्म दृष्टि रखने की प्रेरणा देती हैं। नाक बड़ा यानी दुर्गंध (विपदा) को दूर से ही पहचान सकें।

गणेशजी के दो दाँत हैं एक अखंड और दूसरा खंडित। अखंड दाँत श्रद्धा का प्रतीक है यानि श्रद्धा हमेशा बनाए रखनी चाहिए। खंडित दाँत है बुद्धि का प्रतीक इसका तात्पर्य एक बार बुद्धि भ्रमित हो, लेकिन श्रद्धा न डगमगाए। गणेश चतुर्थी के दिन गजमुख को प्रसन्न करने के लिए जो लोग भक्तिपूर्वक गणेश की पूजा करते हैं, उनके विघ्नों का सदा के लिए नाश होता है और उनकी कार्य सिद्धि होती रहती हैं।

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