प्राचीन काल में भवन निर्माण की तकनीक आज के मुकाबले अधिक प्रभावशाली थी। आज प्राचीन भवनों की मजबूती और उसकी दिवारों पर हुए प्लास्टर को देख कर हम अचंभित हो जाते हैं कि यह इतने वर्षों से एक जैसे कैसे रह सकते हैं जबकि आज के युग के भवनों में जल्दी ही प्लास्टर उखड़ने और दिवारों में दरार आने की समस्या आ जाती है।
आज कंक्रीट बनाने के लिए मशीनों का उपयोग करते हैं। पर प्राचीनकाल में इसकी तकनीक अलग थी। एक लम्बे स्तम्भ को लिटा दिया जाता था। उसके एक छोर पर एक पत्थर का पहिया लगा दिया जाता था और दूसरा छोर में छेद करके किसी कीलनुमा वस्तु से जोड़ दिया था जिससे वह एक स्थान पर स्थित तो रहे साथ में दूसरा छोर गोलाकार में घूम भी सके। उस पहिए के परिधि मार्ग को खोद कर एक नाली बना दी जाती थी। फिर इस पहिए को बैल या घोड़े के द्वारा खिंचा जाता था। जिससे वह निरंतर चक्कर लगा सके। उस नाली में कंक्रीट बनाने का मिश्रण डाल दिया जाता था और एक चक्की की भांति उस पहिए के दबाव से यह मिश्रण पीस जाता था और आपस में मिल जाता था।
इस मिश्रण को लगातार 4-5 घंटे दिन में और शाम में 2-3 घंटे उस पहिए के दबाव से मिलाया और पीसा जाता था। इसके बाद उसे निकलकर एक गड्ढे या बड़े पात्र में भर दिया जाता था और उस पर पानी छिड़क कर गिला रखा जाता था ताकि वह सुखकर ठोस ना हो पाए।
प्राचीन काल में बने इस कंक्रीट में रेत,चुना,बेल का फल,गुड़,प्राकृतिक गोंद,हरड़ा,कच्चे केले,दालें और मिलाने के लिए पानी का उपयोग किया जाता था। इन सभी को एक उचित अनुपात में ही मिलाया जाता था। सबकी अलग-अलग मात्रा थी।
आज भी दक्षिण भारत में यह प्रक्रिया देखने को मिलती है। मध्यप्रदेश में हिंगलाजगढ़ के किले में भी यह पूरा सेटअप आज भी देखने को मिलता है।
चित्र सौजन्य - अथर्व पंवार
चित्र - हिंगलाजगढ़ किले में स्थित कंक्रीट बनाने का यन्त्र