देश-भक्ति गीत 'रंग दे बसंती चोला' का इतिहास, जानिए...

Webdunia
- रोहित कुमार 'हैप्पी', न्यूज़ीलैंड 


 

'रंग दे बसंती चोला' अत्यंत लोकप्रिय देश-भक्ति गीत है। यह गीत किसने रचा? इसके बारे में बहुत से लोगों की जिज्ञासा है और वे समय-समय पर यह प्रश्न पूछते रहते हैं।
 
'यह गीत किसने लिखा?' इसका उत्तर जानने के लिए हमें इसका इतिहास खंगालना होगा। इस गीत के दो संस्करण है। जिस गीत से अधिकतर लोग परिचित हैं वह गीत 1965 की हिंदी फिल्म 'शहीद’ का गीत है जिसे गीतकार-संगीतकार प्रेम धवन ने लिखा था। फिल्म बनाने से पहले मनोज कुमार अपने पूरे दल को लेकर भगतसिंह के गांव में उनकी मां को मिलने गए थे। इस फिल्म के गीत-संगीतकार प्रेम धवन भी इस दल के सदस्य के रूप में साथ गए थे। 
 
प्रेम धवन ने शहीद भगतसिंह की मां से मिलने के पश्चात उस घटना से प्रेरित होकर ही 'रंग दे बसंती चोला' गीत लिखा था। इस गीत को बोल दिए थे - मुकेश, महेंद्र कपूर और राजेन्द्र मेहता ने।
 
प्रेम धवन का लिखा यह गीत इस प्रकार है :- 
 
'मेरा रंग दे बसंती चोला, माए रंग दे
मेरा रंग दे बसंती चोला
दम निकले इस देश की खातिर बस इतना अरमान है
एक बार इस राह में मरना सौ जन्मों के समान है
देख के वीरों की कुर्बानी अपना दिल भी बोला
मेरा रंग दे बसंती चोला...। 
 
जिस चोले को पहन शिवाजी खेले अपनी जान पे
जिसे पहन झांसी की रानी मिट गई अपनी आन पे
आज उसी को पहन के निकला हम मस्तों का टोला
मेरा रंग दे बसंती चोला...। 
 
नि:संदेह इस फिल्म के बाद यह गीत बहुत लोकप्रिय हुआ लेकिन इस गीत का इतिहास 1965 की इस फिल्म से कहीं पुराना है। इस गीत की तुकबंदी 1927 में मुख्य रूप से शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां व उनके कई अन्य साथियों ने जेल में की थी। ये सभी काकोरी-कांड के कारण कारागार में थे। बसंत का मौसम था। उसी समय एक क्रांतिकारी साथी ने बिस्मिल से 'बसंत' पर कुछ लिखने को कहा और बिस्मिल ने इस रचना को जन्म दिया। इसके संशोधन में अन्य साथियों ने भी साथ दिया। 
 
मूल रचना का जो रूप निम्नलिखित रचना के रूप में सामने आता है, वह 1927 में इन क्रांतिकारियों द्वारा रचा गया था :- 
 
रंग दे बसन्ती चोला
'मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
इसी रंग में गांधी जी ने, नमक पर धावा बोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
 
इसी रंग में वीर शिवा ने, मां का बन्धन खोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
 
इसी रंग में भगत दत्त ने छोड़ा बम का गोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
 
इसी रंग में पेशावर में, पठानों ने सीना खोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
 
इसी रंग में बिस्मिल अशफाक ने सरकारी खजाना खोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
 
इसी रंग में वीर मदन ने गवर्नमेंट पर धावा बोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
 
इसी रंग में पद्मकान्त ने मार्डन पर धावा बोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।'
 
उपरोक्त गीत, 'भगत सिंह का अंतिम गान' शीर्षक के रूप में 'साप्ताहिक अभ्युदय' के 1931 के अंक में प्रकाशित हुआ था।  
 
भगत सिंह ने अंतिम समय में यह गीत गाया कि नहीं? इसके साक्ष्य उपलब्ध नहीं किंतु निःसंदेह यह गीत भगत सिंह को पसंद था और वे जेल में किताबें पढ़ते-पढ़ते कई बार इस गीत को गाने लगते और आसपास के अन्य बंदी क्रांतिकारी भी इस गीत को गाते थे।
 
यह गीत क्रांतिकारियों के बीच अत्यंत लोकप्रिय था। बाद में कुछ अन्य प्रकाशनों ने मूल गीत में कुछ और भी जोड़कर, इसे इस तरह भी प्रस्तुत किया है :-  
 
रंग दे बसन्ती चोला
मेरा रंग दे बसन्ती चोला माई रंग दे बसन्ती चोला।
इसी रंग में गांधी जी ने नमक पर धावा बोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
 
इसी रंग में बीर सिवा ने मां का बन्धन खोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
 
इसी रंग में भगत दत्त ने छोड़ा बम का गोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
 
इसी रंग में पेशावर में पठानों ने सीना खोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
 
इसी रंग में बिस्मिल असफाक ने सरकारी खजाना खोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
 
इसी रंग में वीर मदन ने गौरमेन्ट पर धावा बोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
 
इसी रंग को गुरु गोविन्द ने समझा परम अमोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
 
इसी रंग में पद्मकान्त ने मार्डन पर धावा बोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।' 
 
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