सृजन का उत्सव गुड़ी पड़वा

गुड़ी पड़वा विशेष

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वेदांश द्विवेद ी
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फागुन के गुजरते-गुजरते आसमान साफ हो जाता है, दिन का आँचल सुनहरा हो जाता है और शाम लंबी, सुरमई हो जाती है, रात बहुत उदार... बहुत उदात्त होकर उतरती है तो सिर पर तारों का थाल झिलमिलाता है। होली आ धमकती है, चाहे तो इसे धर्म से जोड़े या अर्थ से... सारा मामला तो अंत में मौसम और मन पर आकर टिक जाता है।

इन्हीं दिनों वसंत जैसे आसमान और जमीन के बीच होली के रंगों की दुकान सजाए बैठा रहता है। मन को वसंत का आना भाता है तो पत्तों का गिरना और कोंपलों के फूटने से पुराने के अवसान और नए के आगमन का संदेश अपने गहरे अर्थों में हमें जीवन का दर्शन समझाता है।

एक साथ पतझड़ और बहार के आने से हम इसी वसंत के मौसम में जीवन का उत्सव मनाते हैं, कहीं रंग होता है तो कहीं उमंग होती है। बस, इसी मोड़ पर एक साल और गुजरता है। गुड़ी पड़वा या वर्ष प्रतिपदा के साथ एक नया साल वसंत के मौसम में नीम पर आईं भूरी-लाल-हरी कोंपलों की तरह बहुत सारी संभावनाओं की पिटारी लेकर हमारे घरों में आ धमकता है। जब वसंत अपने शबाब पर है तो फिर इतिहास और पुराण कैसे इस मधुमौसम से अलग हो सकते हैं।

श्रीखंड, पूरणपोळी और नीम के अजीबो-गरीब संयोग के साथ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को हम विक्रम संवत के नए साल के रूप में मनाते हैं। इस तिथि से पौराणिक और ऐतिहासिक दोनों ही मान्यताएँ जुड़ी हुई हैं। ब्रह्मपुराण के अनुसार चैत्र प्रतिपदा से ही ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इसी तरह के उल्लेख अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मण में भी मिलते हैं। तो इस तरह तो हम सृष्टि के गर्भाधान का उत्सव मनाते हैं, गुड़ी पड़वा पर।

इसी दिन से चैत्र नवरात्रि भी प्रारंभ होती है। लोक मान्यता के अनुसार इसी दिन भगवान राम का और फिर युधिष्ठिर का भी राज्यारोहण किया गया था। इतिहास बताता है कि इस दिन मालवा के नरेश विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर विक्रम संवत का प्रवर्तन किया।

इस दिन से प्रारंभ चैत्र नवरात्रि का समापन रामनवमी पर भगवान राम का जन्मदिन मनाकर किया जाता है। मध्यप्रदेश में मालवा और निमाड़ में गुड़ी पड़वा पर गुड़ी बनाकर खिड़कियों में लगाई जाती है। नीम की पत्ती या तो सीधे ही या फिर पीसकर रस बनाकर ली जाती है।

मान्यता है कि इस दिन से वर्षभर नित्य नियम से पाँच नीम की पत्तियाँ खाने से व्यक्ति निरोग रहता है। दक्षिण भारत में इसे इगादि, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में उगादि, कश्मीर में नवरेह और सिन्धी में इसे चेटीचंड के रूप में मनाया जाता है। आखिर वसंत को नवजीवन के आरंभ के अतिरिक्त और किसी तरह से कैसे मनाया जा सकता है? वसंत के संदेश को गुड़ी पड़वा की मान्यता से बेहतर और कोई परिभाषित नहीं कर सकता।

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