जी हां, सीसा विशुद्ध रूप से जहर ही है...

डॉ. मनोहर भंडारी
रविवार, 28 जून 2015 (12:51 IST)
जानिए, कितना खतरनाक है सीसे का जहर....

एक तरफ पूरा वैज्ञानिक और चिकित्सा जगत जानता और मानता है कि सीसा मानव शरीर के लिए शुद्ध रूप से जहर (लेड पॉइजनिंग) है। इसकी शरीर में जरा-सी भी उपयोगिता नहीं है। यह भी ज्ञात सच है कि सीसे की निरापद सूक्ष्मतम मात्रा वैज्ञानिकों को पता नहीं है अर्थात सीसे की सूक्ष्मतम मात्रा भी शरीर के अंगों पर विषाक्त असर डालने में सक्षम है। अतएव हमारे वैज्ञानिकों और नी‍ति-निर्धारकों के दिलोदिमाग में सबसे पहले सवाल यह उठना चाहिए कि देश के बच्चों, बड़ों और बूढ़ों तथा गर्भवती माताओं को ऐसे विष की स्वीकार्य यानी पर्मिसिबल मात्रा को किसी भी रूप में लेने या दिए जाने की अनुमति का क्या औचित्य है? 
पूरी दुनिया को अपना बाजार मानने वाले कुछ देश, शेष दुनिया को अपना बाजार मानते हैं और अपने माल को बेचने के लिए वे किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। तीसरी दुनिया की आम जनता तो बेचारी निस्पृह भाव से विकसित देशों के व्यावसायिक फतवों को वैज्ञानिक सच समझकर आंख मींचकर स्वीकार कर लेती है। दु:ख की बात है कि हर खाने-पीने और दैनंदिन जीवन में काम आने वाली चीजों में स्वास्थ्य के लिए गैरजरूरी, हानिकारक या निश्चित रूप से विषैले रसायनों की स्वीकार्य मात्रा तय कर उसे कानूनसम्मत अनुमति दे दी गई है।

चूंकि बाजारवाद के महाप्रभु, तथाकथित वैज्ञानिकों की पीठ पर सवार होकर सात समंदर पार विराजित हैं इसलिए महाप्रभु की वाणी सभी अनुयायियों के लिए आकाशवाणी के रूप में सौ फीसदी स्वीकार्य होती है। जी हां, यही एक बड़ी और प्रमुख वजह है कि तथाकथित वैज्ञानिक सत्यों और तथ्यों की गंगा अमेरिका और ऐसे ही अन्य देशों के बड़े व्यावसायिक संस्थानों द्वारा परोक्ष रूप से पोषित और नियंत्रित प्रयोगशालाओं तथा विभिन्न एजेंसियों के कक्षों से निकलती है और हम सब उस ज्ञानगंगा में सामूहिक महास्नान का आनंद उठाकर कृतार्थ होते रहते हैं।

उसे विज्ञान यानी सच्चाई की वाणी मान लिया जाता है। विश्वास नहीं हो रहा होगा, हमने अपने तमाम रीति-रिवाजों, परंपराओं और मान्यताओं को ताक में रख दिया है और वही कर रहे हैं, जो बाजार हमसे करवाना चाहता है। विदेशों के खेतों को बंजर बना चुकी रासायनिक खाद को हमने आंख मींचकर अपना लिया। सदियों से आजमाया हुआ गोबर व्यर्थ, हेय और उपेक्षा का शिकार हो गया।

यही हाल देसी कीटनाशकों और बैलों का हुआ और यही खाने के तेलों का भी हुआ। वैज्ञानिकों के अनुसार रिफाइंड तेलों में कैंसरकारक रसायन होते हैं साथ ही खाद्य तेलों को रंगहीन और गंधहीन बनाने की रासायनिक प्रक्रियाओं से उनमें नैसर्गिक रूप से मौजूद सूक्ष्म किंतु शरीर के लिए बेहद जरूरी पौष्टिक तत्व नष्ट हो जाते हैं, परंतु दुर्भाग्यवश रिफाइंड तेल हमारे लोकजीवन में आधुनिकता के पर्याय बन चुके हैं, खैर।

‍चलिए, बात मिलावट पर ही केंद्रित करते हैं। यह सत्य तथ्य है कि सीसे की ऐसी सूक्ष्मतम निरापद मात्रा वैज्ञानिकों को आज तक पता नहीं चली है, जो शरीर में प्रवेश करें और उसका विषाक्त असर शरीर पर नहीं पड़ता हो। फिर भी सीसे और उसके जैसे जहरीले पदार्थों की पीने और खाने के पदार्थों में एक अनुज्ञेय या उचित (पर्सिबल) मात्रा की अनुमति दी गई है। इस अनुमति के पीछे एक प्रमुख कारण यह हो सकता है कि खाने-पीने के पदार्थों से इन जहरीले पदार्थों को पृथक करके निकाल फेंकना निर्माता कंपनियों के लिए बहुत ही महंगा सौदा साबित होता हो इसलिए इस मिलावट की (कथित) वैज्ञानिक सहमति से अनुमति दी गई हो।

ज्ञात हो कि अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एवं प्रिवेंशन तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वयस्क के 100 मिलीलीटर रक्त में 10 माइक्रोग्राम या इससे अधिक सीसे की मात्रा घातक हो सकती है, बच्चों के मामले में (कथित) निरापद मात्रा 5 माइक्रोग्राम घोषित की गई है, ज‍बकि वैज्ञानिक सच यह है कि सीसा इससे भी कम मात्रा में मौजूद रहने पर शारीरिक विकास को क्षीण कर सकता है और स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव डाल सकता है।
 
सबसे बड़ा सवाल यह है कि फिर स्वीकार्य मात्रा में जहर देने का क्या औचित्य है? क्या कुछ लोगों के व्यावसायिक हितों के लिए विज्ञान की आड़ में आम लोगों के स्वास्‍थ्य से खिलवाड़ किया जाना नीति-निर्धारकों के लिए स्वीकार्य है? 
 
याद रखिए! सीसे जैसे विष निकलते नहीं हैं बल्कि शरीर में डेरा डाले रहते हैं।

सोचिए जरा, पुराण-प्रसिद्ध समुद्र मंथन में विष निकला था, किसी भी देवता या महादेवता ने उसे ग्रहण करने का साहस नहीं किया। आम जनता की तरह महादेवजी को जहर पीना पड़ा, उनको शरीर के विज्ञान का ज्ञान था इसलिए उन्होंने उसे पेट में नहीं जाने दिया और गले में ही धारण कर लिया तथा नीलकंठ हो गए। इसका एक सीधा-सा अर्थ यह भी है कि किसी भी तरह के घातक विष यानी घातक पदार्थ को निरापद तरीके से शरीर के बाहर निकालने की सक्षम व्यवस्था हमारे शरीर पास नहीं है, वह शरीर के किसी न किसी हिस्से में लंबे समय तक पड़ा रहता है। चिकित्सा विज्ञान के ज्ञात ज्ञान की दृष्टि से यह तथ्य सत्य भी है।


यह जानकर उन लोगों को निश्चित रूप से बहुत बड़ा झटका लगेगा, जो मैगी जैसे सीसायुक्त पदार्थों को रोज बेखौफ होकर खाते रहे हैं, क्योंकि सीसा धीरे-धीरे हडि्डयों और अन्य अंगों में जमा होता रहता है अर्थात पाचन संस्थान से रक्त में पहुंचता है और फिर हड्डियों में पहुंचकर सालों तक वहीं अपना डेरा-तम्बू तान लेता है। वयस्कों द्वारा खाया-पीया लगभग 94 प्रतिशत सीसा हड्डियों में जमा हो जाता है। जितना भी सीसा मैगी, सॉफ्ट ड्रिंक या कोल्ड ड्रिंक या चॉकलेट कैंडी अथवा अन्य माध्यमों से लिया है, वह वयस्कों के रक्त में 6 से 7 सप्ताह तक तथा बच्चों को एवं गर्भवतियों के रक्त में अधिक समय तक, मांस और कुछ अंगों में कुछ माह तक और फिर 30 से 40 सालों तक हड्डियों और दांतों में अपना घर बना लेता है। स्मरण रहे, हड्डियां उसका स्‍थायी निवास नहीं होती हैं। सीसा गाहे-बगाहे लौटकर रक्त में आकर आपको बीमार करने का काम करने में कोताही नहीं बरतता है।

यानी आज खाई हुई मैगी या उसके जैसे पदार्थ आपको या आपके लाड़लों को भविष्य में कभी भी बीमार कर सकते हैं। तब आप बीमारी को बदकिस्मती या भगवान की कृपा मानकर मैगी के सीसे को तो भूल ही जाएंगे। वैसे भी विज्ञान के अनुसार सीसे के शरीर पर विषाक्त प्रभाव तुरंत अथवा भविष्य में प्रकट हो सकते हैं, क्योंकि यह शरीर में एकत्रित होता रहता है अर्थात यदि आप या आपके बच्चे मैगी या ऐसी ही चीजों को अनुज्ञेय (पर्मिसिबल) मात्रा में ग्रहण करते रहें तो भविष्य में कभी-भी बीमारियों के जंजाल में पड़ सकते हैं।


यदि सीसे की थोड़ी-थोड़ी मात्रा का किसी न किसी रूप में शरीर में प्रवेश लगातार होता रहे तो सीसा हड्डियों से पुन: रक्त में प्रवेश कर बीमार कर सकने में सक्षम होता है। अफसोस की बात है कि सीसा दिमाग, तिल्ली, लिवर, किडनी और फेफड़ों में भी जमा होता रहता है। अत्यंत धीमी रफ्तार से रक्त में मौजूद सीसा मूत्र और थोड़ा मल और अत्यंत सूक्ष्म मात्रा में बाल, नाखून और पसीने से उत्सर्जित होता है।
 
गर्भस्थ शिशुओं पर भी सीसे का काला साया 

गर्भस्थ शिशुओं पर भी सीसे का काला साया
 
मैगी जैसी सीसायुक्त चीजों का सेवन करने वाली माताओं के लिए एक बुरी खबर है कि उनके रक्त में मौजूद सीसा गर्भ में पल रहे अति कोमल शिशु को अपनी विषाक्तता से प्रभावित कर सकता है, बच्चा समय से पहले अथवा औसत से कम वजन वाला पैदा हो सकता है। यह उनके मा‍नसिक विकास को प्रभावित कर सकता है।

अपने फूल से बच्चों को बचाएं इस जहर से
 
हालांकि पाश्चात्य संस्थाओं ने सीसे नामक ज्ञात विष की रक्त में निरापद मात्रा बच्चों के मामले में बड़ों से आधी तय की है। साथ ही विज्ञान के मुताबिक सीसा उनके नाजुक शरीर में तीव्र गति से जज्ब होता है और आकार में छोटा तथा विकासशील होने के कारण उनका शरीर इसकी ‍विषाक्तता से ज्यादा प्रभावित होता है यानी आधी मात्रा बेहद खतरनाक सिद्ध हो सकती है। सीसा शिशुओं और बच्चों के मानसिक विकास पर दुष्प्रभाव डालता है। अमेरिकन एकेडमी ऑफ पीडिया‍ट्रिक्स के अनुसार रक्त में 10 माइक्रोग्राम/ प्रति 100 मिलीलीटर से अधिक की मात्रा लेड पॉइजनिंग कहलाती है। हालांकि बच्चों का शैक्षणिक प्रदर्शन कमजोर होना 5 माइक्रोग्राम से कम की मात्रा में ही शुरू हो जाता है और 10 माइक्रोग्राम पर आईक्यू कम हो जाता है, साथ ही व्यवहारगत समस्याएं शुरू हो जाती हैं। आर्थिक मुद्दों के सलाहकार रिक नेविन ने सन् 2000 और फिर 2007 में अपने अध्ययनों के प्रकाश में दावा किया था कि अमेरिका और 8 देशों में बढ़ते अपराध की दर का रक्त में सीसे की मात्रा से पुख्ता संबंध है।

सीसा यानी बीमारियों का जखीरा
 
सीसा शरीर के सभी अंग-प्रत्यंगों और अंग-तंत्रों की कार्यप्रणाली पर बुरे असर डालता है, किसी भी अंग को नहीं बख्शता है। केंद्रीय तंत्रिका तंत्र यानी मस्तिष्क और उसके सहयोगी संचार तंत्रिकाओं पर उसका सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव पड़ता है, खासकर बच्चों में। इसलिए यह सीखने की क्षमता और व्यवहारगत असामान्यता पर स्थायी दुष्प्रभाव डालता है तथा विस्मृति, असमंजस, अनिश्चितता, चिड़चिड़ाहट, झटके, कोमा और मौत का कारण बन सकता है। हडि्डयों, दिल, किडनी, प्रजनन तं‍त्र और पाचन तंत्र को भी बीमार करने में सीसा सक्षम है। सच कहा जाए तो सीसा मनुष्य शरीर को बीमारियों का जखीरा देने में सक्षम है।


 

 


सीसा मानव शरीर में घुसता कैसे है?
 
जहर के रूप में कुख्‍यात सीसा शरीर में प्रदूषित हवा, पानी, मिट्टी, दीवारों-दरवाजों आदि को पोतने के उपयोग में आने वाले पेंट्स, अन्य उपभोक्ता पदार्थ (लिपस्टिक, कैंडी और चॉकलेट के रैपर्स, पानी के पाइप, पाइपलाइन जोड़ने के काम में आने वाले सोल्डर्स आदि) तथा भोज्य पदार्थों (मैगी, कुछ खास किस्म के चॉकलेट्स, कैंडी आदि) के माध्यम से प्रवेश कर सकता है। अमेरिका में 30 लाख लोग एक्सपोजर (ऑक्यूपेशनल एक्सपोजर) के कारण सीसे की विषाक्तता से ग्रस्त होते हैं। 

पीने के पानी में कितना सीसा निरापद
 
यह सर्वज्ञात तथ्य है कि अमेरिका जैसे विकसित देश अपने नागरिकों के स्वास्‍थ्य का संपूर्ण सजगता से ध्यान रखते हैं और वहां पीने के पानी में सीसे की स्वीकार्य मात्रा 15 माइक्रोग्राम (ug) प्रति लीटर तय है। ऑस्ट्रेलिया ने पीने के पानी में सीसे की मात्रा 0.01 मिलीग्राम/ प्रति लीटर तय की है। हालांकि विषाक्तता विज्ञान तथा जैव-चिकित्सीय आधार पर पीने के पानी में सीसे का अधिकतम प्रदूषण यानी मिलावट की मात्रा का अंतिम लक्ष्य शून्य तय किया है। सन् 1991 में हमारे देश में पीने के पानी में सीसे की अधिकतम स्वीकार्य मात्रा 0.05 पीपीएम तय की गई थी और किसी भी तरह की छूट का प्रावधान नहीं रखा गया था।


परंतु हमारे देश में पीने के शुद्ध पानी की वास्तविक स्‍थिति किसी से छुपी हुई नहीं है। देश में पीने के पानी के स्रोत लाखों की संख्या में हैं और उनकी नियमित जांच एक किस्म का दिवास्वप्न ही है। नदियों, तालाबों और अन्य जल स्रोतों में प्रदूषण की स्‍थिति बेहद गंभीर है।
 
 कारखानों का कचरा और अपशिष्ट, सीवरेज का पानी, हार-फूल, राख, रासायनिक कीटनाशकों मिली मिट्टी और न जाने क्या-क्या बिना रोक-टोक के मिला दिया जाता है या अनायास घुलमिल जाता है। नलकूप के पानी में भी सीसा होता है और वह पेयजल का प्रमुख स्रोत भी है, परंतु उनकी जांच एक असंभव-सा कार्य है। क्या किसी भी खाद्य पदार्थ में सीसे जैसे जहर की स्वीकार्य या अनुज्ञेय मात्रा की अनुमति देने के पूर्व पीने के पानी में सीसे की मात्रा जानना अनिवार्य नहीं किया जाना चाहिए? स्मरण रहे, 'द वॉशिंगटन पोस्ट' नामक प्रसिद्ध अखबार ने वॉशिंगटन में उपलब्ध पीने के पानी में सीसे की उच्च मात्रा की जांच कर सीसे की मिलावट पर धारावाहिक लेख माला प्रकाशित कर खोजी पत्रकारिता का अवॉर्ड जीता था।

हमारी उदारता सीसे के जहर पर भारी
 
अमेरिका की एफडीए ने 'लेड इन कैंडी लाइकली टू बी फ्रेंक्वेंटली कंज्यूमड बाय चिल्ड्रेन : रिकमंडेड मैक्सिमम लेवल एंड एन्फोर्समेंट पॉलिसी' अर्थात बार-बार खाई जाने वाली कैंडी में सीसे की अधिकतम स्वीकार्य मात्रा 0.1 पार्ट्स पर मिलियन (पीपीएम) तय की है, जबकि भारत में मैगी के मामले में यह मात्रा 0.01 से 2.5 पीपीएम तय की गई है। कैंडी के मुकाबले 25 गुना तय करने के औचित्य को भी वैज्ञानिक दृष्टि से पुन: अवलोकन की आवश्यकता है। जो भी हो, भारत में रासा‍यनिक खाद और कीटनाशकों में भी हैवी मेटल्स होते हैं, जो हमारे अनाज, सब्जी-फल आदि को प्रदूषित करते रहते हैं, क्या वह पर्मिसिबल लिमिट अदृश्य रूप से ही पहले ही सीमापार नहीं कर जाती होती?



कैंडी, चॉकलेट्स, सॉफ्ट और कोल्ड ड्रिंक आदि में भी हैवी मेटल्स होते हैं। क्या मैगी या ऐसी ही चीजों को खाने की अनुमति देने के पहले यह जानने की कोशिश की जाती है कि अन्य चीजें खाकर बच्चे या बड़े ने पर्मिसिबल मात्रा का अतिक्रमण पहले ही तो नहीं कर लिया है? जिस देश में सामान्य रक्त की जांच ही गरीबी के चलते अनकही/ अनचाही विलासिता के रूप में बदल जाती हो, वहां नागरिकों के रक्त में लेड की मात्रा की जांच शासकीय या व्यक्तिगत रूप से करवाना असंभव-सा है। 

ऐसी विकट परिस्थितियों में तार्किक और चिकित्सकीय दृष्टि से सभी खाद्य पदार्थों में सभी जहरीले हैवी मेटल्स की मात्रा शून्य कर दी जाना चाहिए अन्यथा लेड बेबीज जैसी बीमारियों से हमारी कर्णधार पीढ़ी को बचाना असंभव हो जाएगा, क्यों‍कि हमारी सेलिब्रिटीज तो इन्हें ही खाने-पीने के लिए बच्चों ही नहीं, बड़े-बूढ़ों तक को प्रेरित कर रही हैं। अंत में देसी अथवा विदेशी सभी खाद्य पदार्थों में सीसे जैसे जहरीले पदार्थों की हर माह जांच की जाए, क्योंकि खाद्य पदार्थ में सीसा, पानी, शकर नमक और उसके अन्य घटकों के जरिए आता है।
 
स्मरण रहे, सीसा शरीर में धीरे-धीरे एकत्रित होने वाला जहर है यानी यह वह गुल्लक है जिसका पैसा बाहर नहीं आ पाता है।
 
 
* प्रसिद्ध फ्रांसीसी समाजशास्त्री पियरे बोर्दिए ने साम्राज्यवादी बुद्धि की चालाकी' नामक लेख में लिखा है कि पिछले दो-तीन सौ वर्षों से साम्राज्यवादी देश अपनी ऐतिहासिक स्‍थितियों से उत्पन्न समस्याओं को विश्व समस्या के रूप में पेश करते हैं और फिर उन समस्याओं को सारी दुनिया पर लादने की कोशिश करते हैं।
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