कोई भाषा को ईश्वर प्रदत्त कहता है, कोई उसे मनुष्यकृत बतलाता है। कोई उसे क्रमश: विकास का परिणाम मानता है, और कोई उसके विषय में 'यथा पूर्वमकल्पयत्' का राग अलापता है। मैं इसकी मीमांसा करूंगा।
मनुस्मृतिकार लिखते हैं-
ब्रह्मा ने भिन्न-भिन्न कर्मों और व्यवस्थाओं के साथ सारे नामों का निर्माण सृष्टि के आदि में वेदशब्दों के आधार पर किया। प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से परमात्मा ने तप, वाणी, रति, काम और क्रोध को उत्पन्न किया।
पवित्रा वेदों में भी इस प्रकार के वाक्य पाए जाते हैं-जैसे, 'मैंने मनुष्यों को कल्याणकारी वाणी दी'
मैक्समूलर इस विषय में कहते हैं-
'' भिन्न-भिन्न भाषा-परिवारों में जो 400 या 500 धातु उनके मूलतत्तव रूप से शेष रह जाते हैं, वे न तो मनोराग-व्यंजक धवनियां हैं, और न केवल अनुकरणात्मक शब्द ही। उनको-वर्णात्मक शब्दों का सांचा कह सकते हैं। एक मानसविज्ञानी या तत्तवविज्ञानी उनकी किसी प्रकार की व्याख्या करे-भाषा के विद्यार्थी के लिए तो ये धातु अंतिम तत्व ही हैं।
प्रोफेसर पॉट कहते हैं-
' भाषा के वास्तविक स्वरूप में कभी किसी ने परिवर्तन नहीं किया, केवल बाह्य स्वरूप में कुछ परिवर्तन होते रहे हैं, पर किसी भी पिछली जाति ने एक धातु भी नया नहीं बनाया। हम एक प्रकार से वही शब्द बोल रहे हैं, जो सर्गारम्भ में मनुष्य के मुंह से निकले थे।'
जैक्सन-डेविस कहते हैं-
' भाषा एक आंतरिक और सार्वजनिक साधन है, स्वाभाविक और आदिम है। भाषा के मुख्य उद्देश्य में उन्नति होना कभी संभव नहीं क्योंकि उद्देश्य सर्वदेशी और पूर्ण होते हैं, उनमें किसी प्रकार भी परिवर्तन नहीं हो सकता। वे सदैव अखंड और एकरस रहते हैं।'
इस सिद्धांत के विरुद्ध भी काफी कुछ कहा गया, जैसे -
डार्विन और उसके सहयोगी, 'हक्सले' 'विजविड' और 'कोनि नफ ॉर' यह कहते हैं-
' भाषा ईश्वर का दिया हुआ उपहार नहीं है,भाषा शनै:-शनै: धवन्यात्मक शब्दों और पशुओं की बोली से उन्नत होकर इस स्थिति तक पहुंची है।'
' ल ॉक', 'एडमस्मिथ' और 'डी. स्टुअर्ट' आदि की भी इसमें सम्मति है-
' मनुष्य बहुत काल तक गूंगा रहा, संकेत और भ्रू-प्रक्षेप से काम चलाता रहा, जब काम न चला तो भाषा बना ली और परस्पर संवाद करके शब्दों के अर्थ नियत कर लिए।' ( क्रमश:)