मैनेजर पांडेय के पुनर्मूल्यांकन पर दो महत्वपूर्ण पुस्तकें...

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दूसरी परंंपरा का शुक्ल-पक्ष
सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना के संतुलन की जो परंपरा आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने शुरू की थी, वह विचारधारा के दबाव अथवा रूपवादी प्रयास के कारण दूसरी राह पर चली गई थी। बाद के आलोचक शुक्ल जी की उस नसीहत को भूल गए कि साहित्य की अपनी ‘मूल सत्ता’ होती है।



सभ्यता ऊपरी आवरण है जिसे समझना तो जरूरी है, मगर उसी में डूब जाना ठीक नहीं है। आलोचना को अंततः साहित्य के सवालों और समस्याओं से जुड़ना है इसलिए साहित्य का मूलाधार बचा रहना चाहिए। दूसरी परंपरा में होने के बावजूद मैनेजर पांडेय ने साहित्य के मूल स्वरूप को आत्मसात कर उसके क्रमबद्ध विवेचन का प्रयास किया है। उन्होंने बिना सैद्धांति‍क विमर्श के आलोचनात्मक हस्तक्षेप कभी नहीं किया है। मैनेजर पांडेय दूसरी परंपरा के शुक्ल-पक्ष हैं।
 
‘दूसरी परंपरा का शुक्ल-पक्ष’ पुस्तक में मैनेजर पांडेय के आलोचना-कर्म का त्रिआयामी अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। मैनेजर पांडेय ने आलोचना के सैद्धांति‍क और ऐतिहासिक पहलुओं के अलावा कविता, उपन्यास और स्वयं आलोचना पर अलग से विपुल लेखन किया है। मैनेजर पांडेय की आलोचना के इन्हीं तीन कर्म-क्षेत्रों पर फोकस करते हुए इस पुस्तक की योजना की गई है।

यहां खास बात यह है कि कविता, उपन्यास और आलोचना के अध्ययन-विश्लेषण के साथ-साथ मैनेजर पांडेय के साहित्य से उद्धरणों को चुनकर एक-एक चयनिका भी दे दी गई है। यों पुस्तक के प्रत्येक भाग में सामग्री की दृष्टि से एक पूर्वापरता है। इसलिए यह केवल परवर्ती अध्ययन और शोध के लिए ही नहीं, बल्कि मैनेजर पांडेय के सामान्य पाठकों के लिए भी एक ‘रीडर’ का महत्व रखती है।

पुस्तक : दूसरी परंपरा का शुक्लपक्ष
लेखक : मैनेजर पांडेय
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन

आलोचना और समाज
मैनेजर पांंडेय आज के दौर के सबसे गंंभीर, जिम्मेदार और महत्त्वपूर्ण आलोचक हैं। उनकी आलोचना में प्रखर बौद्धिकता, सामाजिकता, संवादधर्मिता और गहन लोकचिन्ता निहित है। दुनिया भर के तमाम समकालीन विमर्शों और सिद्धांंतों पर पैनी नजर रखने वाले मैनेजर पांंडेय सच्चे अर्थों में लोकचेतना और लोकचिन्ता से संंबद्ध आलोचक हैं। असल में, उनकी आलोचना का प्रस्थान-बिंंदु है मुक्ति का सवाल। उनकी लोकप्रियता का एक कारण यह भी है कि वे विचारों के स्तर पर जितने लोकतांंत्रिक हैं, उतने व्यवहार के स्तर पर भी। 
 
ऐसे आलोचक के जीवन के 75 साल के पड़ाव पर हिन्दी साहित्य-समाज और अध्येताओं का दायित्व है कि उनके योगदान का समग्र मूल्यांकन किया जाए। इसी जि‍म्मेदारी को शिद्दत से महसूस करते हुए ‘आलोचना और समाज’ पुस्तक की योजना की गई है। पुस्तक के पहले खंंड में तीन साक्षात्कार हैं, जिनसे गुजरते हुए पाठक आलोचना की संवादधर्मिता को महसूस कर सकते हैं।
 
‘आलोचना’ खंंड में मैनेजर पाण्डेय की आलोचना के प्रस्थान-बिन्दु, आलोचना के आधार और आयामों का विश्लेषण करने वाले महत्त्वपूर्ण आलेख हैं। इन आलेखों में मैनेजर पांडेय की आलोचना-दृष्टि की देशज प्रवृत्तियों को लक्षित किया जा सकता है। यहांं भक्तिकाल से संंबंधि‍त मैनेजर पांडेय की आलोचना और इतिहास-दृष्टि का मूल्यांकन करने वाले कुछ नए लेख भी शामिल हैं और उनकी कथालोचना पर केंंद्रि‍त एक विशेष व्याख्यान भी है।

हिन्दी में साहित्य के समाजशास्त्र की अवधारणा को विकसित करने में मैनेजर पांडेय का मौलिक योगदान है। पुस्तक में उनके इस पक्ष पर भी एक शोधपरक आलेख संकलित किया गया है। इसके अलावा ‘जनसंस्कृति मंच’ में मैनेजर पांंडेय की भूमिका पर भी एक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
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