किसी भी थ्रिलर या जासूसी उपन्यास में पाठक सबसे पहले जो चीज तलाशता है वह होता है सरप्राइजेज से भरपूर एंटरटेनमेंट और साथ ही वह उसका जीके एनहेंसमेंट भी करे तो सोने पे सुहागा जैसी बात हो जाती है।
वरिष्ठ पत्रकार मनोज राजन त्रिपाठी का नया थ्रिलर कोड काकोरी, इन दोनों ही जरूरतों को पूरा करता है।
मुझे यह मानने में कोई संकोच नहीं कि एक लंबे अरसे बाद मुझे ऐसी किताब हाथ लगी, जिसे एक ही बार में पढ़ने का दिल करे। लेकिन समय, एकाग्रता और सुकून की कमी की वजह से मुझे यह किताब तीन किस्तों में पढ़नी पड़ी। पुस्तक की कहानी बताकर मैं खुद को स्पॉइलर साबित नहीं करना चाहता, फिर भी इसकी कुछ चीजों का जिक्र बहुत जरूरी है, ताकि अच्छे थ्रिलर पढ़ने के जिन शौकीनों ने अभी तक इस किताब को नहीं पढ़ा है, वे इसके मजे से महरूम न रहें।
एक गैंग रेप और मर्डर की साधारण सी घटना से हुई इस कहानी की शुरूआत से अनुभवी से अनुभवी पाठक भी यह अंदाजा नहीं लगा सकता कि कुछ ही पन्नों के बाद यह कहानी उसे सस्पेंस के किस उड़नझूले की सैर कराने वाली है। हत्या और बलात्कार का आरोपी अपना गुनाह कबूल कर जेल में बंद है, लेकिन केस बंद नहीं हुआ है। क्योंकि जिसे हत्यारा अपना शिकार समझ रहा था, वह जिंदा है और असली शिकार और असली शिकारी कोई और ही है।
जैसे—जैसे पन्ने पलटते जाते हैं, सस्पेंस का पारा ऊपर चढ़ता जाता है और हत्या और बलात्कार की इस घटना के तार एक बहुत बड़ी साजिश से जुड़ते चले जाते हैं।
100 साल पहले 1921 में इजाद हुआ काकोरी कबाब, 2021 में एक नए जायके के साथ पाठकों को रोमांचित कर देता है, जिसमें काकोरी कांड के नायक पं. रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खान के आधुनिक अवतार इंस्पेक्टर अशफाक उल्ला बिस्मिल की एंट्री एक करप्ट और चीजों को अपने हिसाब से मैनेज करने में माहिर पुलिस अधिकारी के तौर पर होती है, जिसका कहना है कि काकोरी में जो सबसे बड़ा विलेन है, वही सबसे बड़ा हीरो है। वक्त उसे अपने इस जुमले को सच करने का मौका देता है, वह कैसे इस अवसर का लाभ उठाता है, यही इस कहानी की धुरी है।
जासूसी किताबों के बारे में राय देते हुए सबसे बड़ी समस्या यह सामने आती है कि उनकी कहानी कितनी भी अच्छी हो, उसे शेयर नहीं किया जा सकता। लेकिन, कोड काकोरी में कहानी के अलावा भी कई अच्छी चीजें हैं, जिनके बारे में बात की जा सकती है।
इनमें सबसे अहम हैं, किरदारों की रचना और भाषा को जीवंत और रोचक बनाने के लिए किए गए प्रयोग। किताब के सभी किरदार अपने नाम की तरह, नेचर में भी यूनिक हैं। कड़क मिजाज पुलिस अधिकारी दुर्गा शक्ति ठाकरे, पूरे पुलिस महकमे के लिए जानकारियों का चलता—फिरता कोश विकीपीडिया, सीसीटीवी रिपोर्टर मुन्ना लाल, स्मैकिया सिपैया अंगद यादव, नौटंकी वाली अनारकली, फल कारोबारी नसीम पपीता… एक से एक नायाब किरदार और हरेक का कहानी के प्रवाह को बनाए रखने में अपना एक अहम योगदान है, जिसकी वजह से कोई भी किरदार कहीं भी गैरजरूरी नहीं लगता। इन्हीं में से एक किरदार खुद काकोरी कस्बा भी है, जो 100 सालों से कहानी का साथ निभा रहा है और बिना कुछ कहे, बहुत कुछ बताता चलता है।
पुस्तक की चुटीली भाषा और दृश्यों की विस्तृत वर्णनात्मकता कहीं भी कथानक को बोझिल नहीं होने देती। प्रतीकों और बिम्बों का यथोचित इस्तेमाल, दृश्यों को किसी फिल्म जैसा जीवंत बना देता है और हर शब्द के पीछे एक चित्र होता है की उक्ति को चरितार्थ करता प्रतीत होता है। कहानी के संवादों में ताजगी भी है और पैनापन भी।
जहां तक जानकारी की बात है, तो इस मामले में कोड काकोरी बहुत उदार साबित होती है। खासकर चीजों को अकॉर्डिंगली मैनेज करने से केस की गुत्थियां सुलझाने की काबिलियत तक पुलिस और थानों की कार्यप्रणाली के बारे में विस्तृत जानकारी पाकर दिल बाग-बाग हो उठता है। यही बात स्लीपर सेल की कार्यशैली की डिटेल्स में भी देखी जा सकती है, जिसमें आधुनिक टेक्नोलॉजी और कोऑर्डिनेट्स जैसे टर्म्स का इस्तेमाल चार चांद लगा देता है।
कुल मिलाकर यह एक पढ़ी जा सकती है नहीं, बल्कि पढ़नी ही चाहिए टाइप की किताब है। बस इसे पढ़ने के लिए तीन बातों का ध्यान जरूर रखें।
एक, भूल से भी इसके आखिर के पेज पहले न पढ़ें और किताब को शुरू से ही पढ़ना शुरू करें।
दो, पढ़ते समय एक बुक मार्क जरूर इस्तेमाल करें, ताकि अगर आप किताबों को एक ही बार में पढ़ने के आदी नहीं हैं तो अगली बार सिरा वहीं से पकड़ सकें, जहां छूटा था।
तीन, किताब पूरा करने के बाद लेखकीय जरूर पढ़ें, क्योंकि इस किताब के कॉन्सेप्ट से लेकर पब्लिकेशन तक की यात्रा भी किताब जितनी ही दिलचस्प है।
(किताब के समीक्षक संदीप अग्रवाल पत्रकार हैं)
किताब: कोड काकोरी लेखक: मनोज राजन त्रिपाठी प्रकाशक: वेस्टलैंड एका क़ीमत 299