आम औरत, जिन्दा सवाल

औरत के लिए स्पेस की माँग करते लेख

Webdunia
डॉ. अमिता नीर व
NDND
इस भौतिकवादी दौर में आम आदमी हर जगह से बेदखल कर दिया गया है। ऐसे में आम औरत की बिसात ही क्या है? आम औरत तो यूँ भी हाशिए पर रही है, अब तो वह वहाँ से भी बेदखल हो गई है...हाँ हिन्दी में इन दिनों स्त्री-विमर्श का दौर जरूर चल रहा है, लेकिन यह विमर्श स्त्री कम और दैहिक विमर्श ज्यादा है... गोया कि स्त्री मात्र देह ही हो, लेकिन ' आम औरत जिंदा सवाल' में लेखक ने स्त्री के मानस से जुड़े सूक्ष्म, वायवी से लेकर स्थूल और चिह्नित मसलों पर चर्चा की है।

कथाकार सुधा अरोड़ा के लेखों के संग्रह में लेखक ने हर स्तर और हर वर्ग की स्त्री की समस्याओं को बड़ी सूक्ष्म और संवेदनशील नजरिए से पकड़ा है। उनके लेखों में स्त्री के लिए उसकी नैसर्गिक जगह की माँग स्पष्टतः देखी जा सकती है। कुल पाँच भागों में बँटी लेखों की श्रृंखला में 39 लेख और एक स्वकथन है। शैली स्पष्ट, सरस और सरल हैं।

किताब के पहले हिस्से 'गुमशुदा दोस्त की तलाश' के माध्यम से सुधाजी ने अपने लेखकीय रूप के विकास का खाका खींचने में अपने समय और समाज को आईने के तौर पर प्रयोग किया है। दूसरे हिस्से वामा स्तंभ के तहत 1995 से 2005 तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में स्त्री विमर्श के तौर पर छपे उनके लेखों को स्थान दिया गया है।

इसमें स्त्री की समस्या अलग-अलग स्तर और अलग-अलग एंगल से मुखर होकर उभरी है। सुधाजी ने डायना से लेकर भँवरी तक औरत होने के त्रास और उसकी विडंबना पर सूक्ष्म अभिव्यक्ति की है। कैसे डायना की त्रासदी को उसके मरने के बाद भी एक खूबसूरत औरत की त्रासदी के तौर पर चिह्नित कर उसके अवदान को कम करने का मीडिया ने षड्यंत्र किया, इस पर उनका खास ध्यान रहा। भारत से इमराना है तो पाकिस्तान से सफिया की समस्या भी रेखांकित हुई है। इसमें मध्यम वर्गीय घरेलू औरत है तो निम्न मध्यम वर्गीय औरत भी अपनी विराट विडंबना के साथ चिह्नित हुई है।

किताब के दूसरे हिस्से में कुल 6 आलेख हैं... इनकी विषयवस्तु अपेक्षाकृत ज्यादा विस्तृत है। इनमें सिर्फ औरत की विडम्बना नहीं है, इसका दायरा ज्यादा व्यापक और सामाजिक है। इस हिस्से में आक्रामकता के खिलाफ : एक आम औरत की आवाज और जिसके निशान नहीं दिखते...मानसिक प्रताड़ना के खिलाफ जैसे दो मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है तो रैगिंग और महिला को संपत्ति के अधिकार विधेयक पर भी विचार किया गया।

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तीसरे हिस्से में मीडिया में औरतों की स्थिति पर एक ईमानदार अभिव्यक्ति के तहत चार फिल्मों बैंडिट क्वीन, बवंडर, आस्था और क्या कहना के कथ्य और उसके औरत पर पड़ते प्रभाव पर चर्चा की गई है। साथ ही छोटे पर्दे पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों के कितने व्यापक प्रभाव है, इसे भी रेखांकित किया। संग्रह के अंतिम हिस्से में इस्लाम में औरत और धर्म के बेहद संवेदनशील, लेकिन मौजूँ संबंधों पर चर्चा की और यह बताने का प्रयास किया कि न सिर्फ औरतों के बल्कि कमजोर तबके के लोगों के शोषण के लिए धर्म का किस तरह से इस्तेमाल किया जा रहा है।

कुल मिलाकर स्त्री विमर्श की श्रेणी में यह संग्रह इसलिए अलग है, क्योंकि इसमें स्त्री को मानव की तरह देखने की माँग उभरकर आती है। उसकी दैहिकता से उसे मुक्त कर संवेदनशील इंसान के रूप में उसके वजूद को स्वीकार करने की जिद, जद्दोजहद और सरोकार नजर आता है। इस तरह से सुधा अरोरा का यह संग्रह दिल और दिमाग दोनों को खोल देने का काम कर रहा है।

पुस्तक : आम औरत, जिन्दा सवाल
लेखिका : सुधा अरोड़ा
प्रकाशक : सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य : 300 र ु.
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